राहु भ्रमोत्पादक तथा रहस्यमयी छाया ग्रह है. इन छाया ग्रहों राहु-केतु के गुण, स्वभाव, प्रभाव, रहस्यों तथा इनकी कार्यप्रणाली पर थोड़ा विस्तार से प्रकाश डाला जाये; क्योंकि किसी राशि व भाव के स्वामी न होने से इनके फलादेश में प्रायः ज्योतिषी असहजता का अनुभव करते हैं. या तो इनको एकतरफा रूप से पापी व संक्रामक ही मान लिया जाता है या इनके अपने स्वतन्त्र फलों तथा 'शनिवत् राहु, कुजवत् केतु' और 'Rahu, Ketu act like a mirror' जैसे नियमों के कारण एक दुविधा की स्थिति पैदा हो जाती है कि इस नियम के अनुसार उनका फल निश्चित किया जाये ?
राहु-बृहस्पति की युति से बनने वाला 'गुरु चाण्डाल योग' बृहस्पति को ही राहु की संगति के कारण क्यों बिगाड़ देता है, राहु को बृहस्पति का संग सुधार क्यों नहीं देता ? राहु को हाथी और मंगल को अंकुश या महावत कहा जाता है. तब राहु-मंगल की युति में राहु को मंगल से नियन्त्रित हो जाना चाहिए, परन्तु तब 'अंगारक योग' या 'धूर्तयोग' माना जाता है. आदि अनेक प्रश्न, शंकाएं, असमंजस इस मामले में (राहु-केतु की सम्बन्ध में) व्यवहार में देखी जाती हैं. जनसामान्य में भी राहु-केतु आतंक के पर्याय बने हुए हैं. शनि के शमनार्थ तो मन्दिर भी मिलने लगे हैं, किन्तु राहु-केतु के तो मन्दिर भी नहीं मिलते.
यानी केवल जनसामान्य ही नहीं, अपितु ज्योतिषियों का एक वर्ग भी इन छाया ग्रहों को लेकर किसी निश्चित या स्पष्ट स्थिति में नहीं होता. प्रधान सात ग्रहों के आधार पर भी फलित करने की प्रथा रही है (वैदिक ज्योतिष व प्राचीन ज्योतिषीय ग्रन्थों में राहु-केतु को लेकर कोई योग भी नहीं कहा गया). यदि सात ग्रहों द्वारा ही योग निर्माण होते हैं और फलादेश सम्भव हो जाता है, तो इन दो छाया ग्रहों को ज्योतिष में शामिल करने की क्या जरूरत पड़ गयी? और यदि नौ ग्रहों के आधार पर ही फलित होता है, तो इन दोनों को क्यों उपेक्षित रखा गया? कालसर्प योग-जो केवल राहु-केतु के आधार पर बनता है-की क्या विश्वसनीयता है, जब प्राचीन शास्त्रों में उसका वर्णन ही नहीं है? आदि बहुत-से उलझाव हैं, जिनमें कुछ को विष्णु भाव पद्धतिकार के अनुसार और कुछ को अपनी सीमित बुद्धि व योग्यता के अनुसार यथासम्भव हल करने का प्रयास यहां करेंगे. पहले तो यही जान लें कि मन्दिर तथा पूजन देवताओं के होते हैं, दानवों के नहीं. महान् दानी होने से आदर प्राप्त करने वाला दैत्य बली यद्यपि भक्त प्रह्लाद का पुत्र था और महापराक्रमी, महाज्ञानी होने से सम्मान पाने वाला राक्षस रावण भी यद्यपि विश्रवा ऋषि का पुत्र व पुलस्त्य ऋषि का पौत्र था, फिर भी उनको मन्दिरों में स्थापित होने व पूजा करवाने का अधिकार नहीं मिला, तो राहु-केतु को कैसे मिलेगा ? राहु तो महामायाविनी सिंहिका नामक राक्षसी का महाप्रतापी पुत्र कहा गया है, जो सुदर्शन चक्र द्वारा वध कर दिये जाने पर सिर धड़ से अलग करा चुका है, परन्तु अमृत पी लेने के कारण (धोखे से) वह मरा फिर भी नहीं, अपितु सिर (राहु) और धड़ (केतु) के रूप में जीवित (अस्तित्व में) रह गया, परन्तु अन्ततः वह पूर्णतः दैत्य ही हैं, अतः पूजा योग्य नहीं है. इसलिए कष्ट शमनार्थ तो उनकी पूजा की जाती है, उनके पूजन के लिए मन्दिर नहीं बनाये जाते.
NOTE (नोट)-शनि भी सूर्यपुत्र होते हुए अपनी पाप संगति के कारण मन्दिरों से बहिष्कृत रहा है. नवग्रहों के रूप में या तो वह सबके साथ कहीं प्रतिष्ठित होता है या उसका पृथक् स्थान (मन्दिर से भिन्न) बनाया जाता था, परन्तु आजकल पुजारियों और मन्दिर संचालकों ने चढ़ावे के लोभ में पड़कर प्रायः हर मन्दिर के किसी कोने में या मन्दिर के बाहर शनि प्रतिमा भी लगानी शुरू कर दी है. जैसे प्रायः सभी मन्दिरों में साईं बाबा की भी प्रतिमा लगाई जाने लगी है, जबकि साई बाबा के किसी भी मन्दिर में उनके अलावा तत्कालीन लोगों की तस्वीरें तो लगी मिलती हैं, किसी भी हिन्दू देवता की कोई प्रतिमा या चित्र लगा नहीं मिलता.
राहु-केतु सर्वाधिक रहस्यमयी ग्रह या छाया ग्रह हैं. इनका फल-प्रभाव भी विलक्षणतापूर्ण है. विभिन्न ग्रहों की युति या दृष्टि, विभिन्न राशियों में इनका बैठा होना और विभिन्न भावों में बैठा होना इनके फल-प्रभाव में बहुत अन्तर ले आता है. विष्णु भाव पद्धतिकार ने इस विषय को बहुत अच्छे ढंग से तथा सरल बनाकर समझाया है. उस मत को यहां पाठकों के लाभार्थ संक्षेप में कहेंगे.
स्मरणीय- 1. राहु छठे भाव का सहकारक माना गया है. कन्या राशि (कालपुरुष का छठा भाव) में बहुत प्रसन्न भी रहता है. स्वयं रोग, ऋण, कलह, विवाद, युद्ध, लड़ाई-झगड़ा, छल-कपट, चालाकी आदि का कारक भी है, अतः उसे शास्त्रकार ने छठे भाव का स्वामी ही मान लिया है (यदि स्वामी नहीं, तो सह- स्वामी या उपस्वामी तो माना ही जा सकता है).
2. केतु राहु से सदा 180° या सातवें स्थान पर रहता है, अतः छठे से सातवें, अर्थात् बारहवें भाव का कारक माना गया है. बारहवां भाव अन्तरिक्ष, आकाश, मोक्ष आदि से सम्बद्ध है. केतु इनका कारक है. केतु भक्ति, समर्पण, आस्था का कारक भी है और कालपुरुष की दृष्टि से बारहवां भाव विष्णु या प्रधान पुरुष के चरणों का सूचक है. अतः केतु को बारहवें भाव का सहकारक माना जाता है, इसलिए शास्त्रकार में केतु को बारहवें भाव का स्वामी ही मान लिया है (यदि स्वामी नहीं, तो सहस्वामी या उपस्वामी तो माना ही जा सकता है). इन तथ्यों को स्मरण रखें
नियम - निष्कर्ष के आधार पर यह नियम बनाया जा सकता है कि कालपुरुष की कुण्डली के अनुसार छठे भाव का स्वामी या उपस्वामी राहु है और बारहवें भाव का स्वामी या उपस्वामी केतु है. राहु-केतु के फलादेश के समय यह नियम लागू होगा.
विशेष-राहु के लिए 3, 6, 10, 11 राशियां या भाव अधिक बलदायक माने जाते हैं. इनमें भी कन्या राशि उसे अधिक अनुकूल पड़ती है. यदि राहु पूर्वोक्त भावों में पूर्वोक्त राशियों में हो, तो अति बलवान् हो जाता है. यही कारण है कि उत्तर भारतीय दैवज्ञों ने भी कन्या के राशि को स्वराशि जैसा, मिथुन के राहु को उच्च जैसा और मकर में मूलत्रिकोण जैसा माना है और केतु को मीन में स्वराशि जैसा, धनु में उच्च जैसा और कर्क में मूलत्रिकोण जैसा माना है. 1, 2, 5, 6, 7, 9, 11 क्रमशः मंगल, चन्द्र, सूर्य, बुध, शुक्र, बृहस्पति, शनि की मूलत्रिकोण राशियां हैं, अतः राहु-केतु को यह मूलत्रिकोण का होने के लिए दी भी नहीं जा सकर्ती. इसलिए 3, 4, 8, 10, 12 ही शेष बर्ची. आठवीं राशि में कोई ग्रह उच्च का हो नहीं सकता, 3 में राहु उच्च का (उच्च जैसा) और 12 में केतु स्वराशि (जैसा) मान लिया गया, तो शेष 4 और 10 ही बर्ची. इसलिए राहु-केतु इन्हीं को मूलत्रिकोण के रूप में ले सकते थे.
अति महत्त्वपूर्ण - राहु छाया ग्रह (अशरीरी या कर्मेन्द्रियों से रहित) होने के कारण स्वयं कुछ नहीं करता. दूसरे ग्रह के द्वारा उसके गुण, स्वभाव, राशि तथा भाव के अनुसार कराता है. उसके प्रभाव को या तो घटाता है या बढ़ाता है. चूंकि वह संक्रमण, विषाक्तता, प्रदूषण आदि का कारक है, अतः ग्रह उसका मित्र हो या शत्रु, वह उसे संक्रमित जरूर करेगा, इसलिए अतिशुभ ग्रह को भी बिगाड़ देता है. यही कारण है कि 'गुरु चाण्डाल योग' (बृहस्पति-राहु की युति) बृहस्पति का नाश कर देती है, किन्तु राहु पर कुछ अधिक प्रभाव नहीं पड़ता. पाठक ध्यान दें कि पीला (बृहस्पति) नीला (राहु) मिला देने पर 'हरा' रंग (लाल किताब का मस्नुई या नकली बुध) रंग बनता है. यह नीले से अत्यधिक मेल खाता है (निकटस्थ है), परन्तु पीले का भान भी नहीं होने देता, यानी पीला रंग बरबाद हो जाता है. दूसरे शब्दों में, बृहस्पति का ज्ञान, विवेक, धर्म, मर्यादा, धैर्य आदि बुध (हरा) के चतुराई, चालाकी, स्वार्थ, लालच, अधैर्य, छल या पाखण्ड में बदल जाते हैं. (राहु बृहस्पति को खराब बुध में बदल देता है. स्वयं धर्म या बृहस्पति) का पाखण्ड करने वाला या बगुला भगत हो जाता है या धर्म (बृहस्पति) को छल, राजनीति, षड्यन्त्र (राहु) से जोड़ देता है.
इसी प्रकार मंगल घाव, चोट, जलना, रक्तस्त्राव, कटना, छिलना आदि का कारक होने से दुर्घटना में चोट, घाव देता या खून निकालता है, पर अशुभ स्थिति का मंगल भी भीषण दुर्घटना नहीं कराता, जब तक कि राहु का प्रभाव साथ न हो (राहु आकस्मिकता का कारक होने से दुर्घटना कराता है). वह न केवल अपने पृथक्तावादी प्रभाव से हड्डी तोड़ता व गुम चोट या नील आदि देता है, अपितु मंगल का प्रभाव बढ़ाकर बड़ा घाव या अतिरक्तस्त्राव या किसी अंग का ही कट जाना जैसे घातक परिणाम सामने लाता है.
अतिविशेष - यह भी स्मरण रखें कि राहु-केतु के सम्बन्ध में भुक्तांश का ग्रह (जो उनके अंशों को भोग चुका या पार कर चुका हो) अधिक खतरनाक स्थिति नहीं देता; क्योंकि वह जातक के जन्म से पूर्व ही राहु या केतु का बुरा फल भोग चुका होता है और वर्तमान में ऐसी स्थिति में होता है कि गोचर में राहु या केतु से और भी दूर होता चला जाये, परन्तु भोग्यांश का ग्रह (जो राहु या केतु के अंशों से अपने अंशों द्वारा इस प्रकार दूर हो कि निकट भविष्य में या गोचर में राहु की 'पकड़' में आने वाला हो) अधिक खतरनाक स्थिति में होता है; क्योंकि वह राहु की ओर गतिमान होने से पहले ही भयभीत या त्रस्त होता है और राहु वक्री होने के कारण मुंह फाड़े उसी की ओर बढ़ते हुए उसके आतंक को और बढ़ा देता है.
Narender Pal Bhardwaj