झारखंड की राजनीति में कुड़मी जाति किसी को भी सत्ता के कुर्सी पर बैठा सकते

झारखंड की राजनीति में कुड़मी जाति किसी को भी सत्ता के कुर्सी पर बैठा सकते

प्रेषित समय :18:10:13 PM / Fri, Oct 25th, 2024
Reporter : पलपल रिपोर्टर

अनिल/रांची. झारखंड की राजनीति में आदिवासियों के साथ-साथ कुड़मी (महतो) का बहुत ज्यादा प्रभाव रहा है. राजनीतिक दल भी टिकट के बंटवारे में जातीय समीकरण का ख्याल रखते हैं.यह प्रभाव 1952 के पहले  आम चुनाव से ही दिखता है.1950 में झारखंड पार्टी बनी थी और जयपाल सिंह ने गैर-आदिवासियाें को झारखंड आंदोलन से जोड़ने का प्रस्ताव पारित किया था. उसके बाद पहले चुनाव में जब टिकट का बंटवारा हुआ तो उसमें भी उन्होंने कुड़मी (महतो) पर भरोसा किया और टिकट दिया.झारखंड का एक बड़ा इलाका कुड़मी बहुल है.तब पुरुलिया-मानबाजार आदि कुड़मी बहुल क्षेत्र बंगाल में शामिल नहीं हुआ था .और वह बिहार का ही हिस्सा था. झारखंड में छह लोकसभा और पैंतिस विधानसभा में आदिवासियों के बाद सबसे ज्यादा मतदाता इन्हीं जातियों से आते हैं. झारखंड में कुड़मी जाति वर्षों से आदिवासियों के समान आरक्षण की मांग करते आ रही है. लेकिन झारखंड की सत्ता में बैठने वाले  झारखंड मुक्ति मोर्चा और न ही भारतीय जनता पार्टी इनको इतनी अहमियत दी है. इधर विधानसभा की चुनाव शुरू होते ही पुनः एक बार कुड़मी नेताओं की सुगबुगाहट शुरू हो गई है.अब आने वाले वक्त ही बताएगा कि इस जाति के लोग किसकी सरकार बनाते या किसकी सरकार बनाने में अपनी औकात दिखाते हैं.

 1952 के पहले विधानसभा चुनाव में जयपाल सिंह ने सोनाहातु से जगन्नाथ महतो कुड़मी को प्रत्याशी बनाया था.जगन्नाथ महतो अपने नाम के साथ ही कुड़मी लिखते थे. 1962 के बाद कई कुड़मी नेता चुनाव जीतते रहे.इनमें रामटहल चौधरी (कांके, 1969, 1972), छत्रु महतो (जरीडीह 1972 और गोमिया 1977), घनश्याम महतो, (फारवर्ड ब्लाक), घनश्याम महतो (कांग्रेस), वन बिहारी महतो (सरायकेला, 1969), टेकलाल महतो (मांडू), केशव महतो कमलेश, शिवा महतो, आनंद महतो (सिंदरी, 1977), लालचंद महतो (डुमरी,1977), विद्युत महतो (बहरागोड़ा), सुदेश महतो (सिल्ली), जगन्नाथ महतो (डुमरी), चंद्र प्रकाश चौधरी (रामगढ़) आदि प्रमुख हैं. रामटहल चौधरी पहले कांके से दो बार यानी 1969 और 1972 में विधायक बने थे. लेकिन 1977 के चुनाव में यह सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हो गयी और उन्हें सिल्ली से लड़ना पड़ा. जहां वे जीत नहीं सके थे. बाद में वे कई बार रांची लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीतते रहे हैं. 

1950 में झारखंड पार्टी बनी थी और जयपाल सिंह ने गैर-आदिवासियाें को झारखंड आंदोलन से जोड़ने का प्रस्ताव पारित किया था. उसके बाद पहले चुनाव में जब टिकट का बंटवारा हुआ तो उसमें भी उन्होंने कुड़मी (महतो) पर भरोसा किया और टिकट दिया.झारखंड का एक बड़ा इलाका कुड़मी बहुल है. तब पुरुलिया-मानबाजार आदि कुड़मी बहुल क्षेत्र बंगाल में शामिल नहीं हुआ था और वह बिहार का ही हिस्सा था.जयपाल सिंह ने अपनी टीम में जगन्नाथ महतो और विष्णु चरण महतो जैसे प्रबुद्ध लोगों को रखा था.जो महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे.वे दोनों पर बहुत भरोसा करते थे. जगन्नाथ महतो तो झारखंड पार्टी के महासचिव भी थे. 1952 के पहले विधानसभा चुनाव में जयपाल सिंह ने सोनाहातु से जगन्नाथ महतो कुड़मी को प्रत्याशी बनाया था.जगन्नाथ महतो अपने नाम के साथ ही कुड़मी लिखते थे. झारखंड पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ कर उन्होंने कांग्रेस के प्रताप चंद्र मित्र को हराया था.

बिहार विधानसभा में पहुंचनेवाले पहले कुड़मी विधायक जगन्नाथ महतो ही थे.1957 में साेनाहातु सीट का नाम बदल गया और रांची (दो सीट थी) हो गया. जगन्नाथ महतो दुबारा झारखंड पार्टी से चुनाव लड़े और जीत गये. लेकिन 1962 में सोनाहातु सुरक्षित हो गया जिसके कारण उन्हें सिल्ली से लड़ना पड़ा और वे चुनाव हार गये. उन्होंने झारखंड पार्टी के कांग्रेस में विलय का विरोध किया था और एनई होरो को आगे बढ़ा दिया था. उन्होंने 1955 में कांची सिंचाई परियोजना शुरू की थी. आजसू के पूर्व अध्यक्ष ललित महतो के वे नाना थे.1952 के चुनाव में ही झारखंड पार्टी ने सिल्ली से विष्णु चरण महतो को प्रत्याशी बनाया था लेकिन वे चुनाव नहीं जीत सके थे. वे प्रसिद्ध अधिवक्ता थे, लॉ कॉलेज के संस्थापक थे. वे जयपाल सिंह को आवश्यक दस्तावेज-ज्ञापन तैयार करने में बड़ी भूमिका अदा करते थे. 1957 में विष्णु महतो ने झारखंड पार्टी से ही सिल्ली से चुनाव लड़ा और सिर्फ 223 मत से हार गये.ऐसी बात नहीं कि सिर्फ झारखंड पार्टी ने ही कुड़़मियों को मैदान में उतारा था. कांग्रेस और लोक सेवक समिति ने भी कुड़़मियों को टिकट दिया था और वे जीते भी थे.तब झालदा, बड़ा बाजार,मान बाजार आदि बंगाल में नहीं गया था. 1952 के बिहार विधानसभा चुनाव में झालदा से देवेंद्रनाथ महतो ने जीत हासिल की थी.उन्होंने लोक सेवक संघ के सागर चंद्र महतो को हराया था. उस क्षेत्र में लोक सेवक संघ का अच्छा प्रभाव था.मानबाजार-पटमदा विधानसभा से लोक सेवक संघ के सत्य किंकर महतो और बड़ा बाजार-चांडिल से भीम चंद्र महतो भी चुनाव जीत गये थे. ये सभी कुड़मी थे लेकिन ये इलाके बाद में बंगाल में शामिल हो गये. 1952 में विनोद बाबू ने बलियापुर से निर्दलीय लड़ा लेकिन हार गये.1957 में विनोद बाबू निरसा से निर्दलीय लड़े. 1962 में वे जोड़ा पोखर से चुनाव मैदान में उतरे लेकिन सफल नहीं हो सके. उन्हें 1980 तक इंतजार करना पड़ा.

इसी प्रकार निर्मल महतो इतने बड़े नेता होने का बावजूद चुनाव नहीं जीत सके थे.एक और प्रभावशाली नेता शक्ति महतो (धनबाद) ने भी टुंडी से 1977 में चुनाव लड़ा लेकिन वे भी जीत नहीं सके भाजपा को एक और परेशानी से जूझना पड़ सकता है. राज्य में तकरीबन 25 प्रतिशत कुड़मी वोटर हैं. ये भाजपा के पारंपरिक वोटर रहे हैं. भाजपा आदिवासी वोटों के लिए तो परेशान दिखती है. लेकिन कुड़मी वोटों के लिए उसकी ओर से कोई खास पहल नहीं की जा रही. संभव है कि भाजपा यह सोच रही हो कि आजसू एनडीए में है.  लेकिन आजसू तो अपने हिस्से की सीटों पर ही लड़ेगी. भाजपा के पास इन वोटों को हासिल करने के लिए एक बड़ा हथियार है.लेकिन न जाने क्यों इसके नेता अभी तक इसका प्रयोग नहीं कर रहे हैं. कुड़मी समाज की लंबे समय से यह मांग रही है कि उन्हें आदिवासी का दर्जा दिया जाए. इस बारे में कुड़मी समाज से आने वाले भाजपा नेता शैलेंद्र महतो को पत्र भी लिखा था. पीएमओ और अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय से होता हुआ वह पत्र झारखंड और बंगाल के चीफ सेक्रेट्री तक पहुंच गया है. इस बाबत दोनों राज्यों के चीफ सेक्रेटरी से अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय ने जानकारी भी मांगी है. हेमंत सोरेन कुड़मी समाज को आदिवासी का दर्जा देने से मना कर चुके हैं. भाजपा इस मुद्दे को उछाल कर कुड़मी वोटरों को अपनी ओर खींच सकती है. झारखंड का चुनावी गणित कुड़मी कार्ड से बनता बिगड़ता रहा है. राज्य की 14 में से पांच सीटों पर कुड़मी (कुर्मी) वोटरों का मत निर्णायक होता रहा है. इन पांच सीटों में रांची, जमशेदपुर, हजारीबाग, धनबाद और गिरिडीह शामिल हैं. झारखंड में कुड़मी लगभग 16प्रतिशत है लेकिन उनके जानकार इसे 25प्रतिशत बताते हैं. आदिवासियों के बाद सबसे ज्यादा कुड़मी जाति के जनसंख्या और मतदाता होने से कोई भी पार्टी इंकार नहीं कर सकती है.

हजारीबाग में कुड़़मी वोटर्स की संख्या 15 फीसदी है. रांची में 17, धनबाद में 14 फीसदी, जमशेदपुर में 11 और गिरिडीह में 19 प्रतिशत मतदाता कुड़़मी हैं. इस तरह से सूबे के 81 में से 35 विधानसभा क्षेत्र और 14 में से 6 लोकसभा क्षेत्रों में उनका वोट प्रत्याशी की जीत-हार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.
अब मतगणना के दिन ही पता चल पायेगा कि इस जाति के लोग झारखंड की कुर्सी पर बैठाते हैं.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-