सुप्रीम कोर्ट ने रेप के मामलों में खींची लकीर, लड़की का चिल्लाना और चोट के निशान जरूरी नहीं

सुप्रीम कोर्ट ने रेप के मामलों में खींची लकीर, लड़की का चिल्लाना और चोट के निशान जरूरी नहीं

प्रेषित समय :16:23:36 PM / Wed, Jan 22nd, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

नई दिल्ली. सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में यह स्पष्ट किया है कि यौन उत्पीड़न के मामले में शारीरिक चोटों का न होना अपराध नहीं होने की पुष्टि नहीं करता है. साथ ही देश की सर्वोच्च अदालत ने यह भी साफ कहा है कि यह भी जरूरी नहीं है कि पीड़िता शोर मचाए या चिल्लाए. कोर्ट का मानना है कि ऐसे मामलों में पीडि़तों की प्रतिक्रिया विभिन्न परिस्थितियों पर निर्भर करती है. अदालत ने यह भी कहा कि यौन उत्पीड़न से जुड़ी सामाजिक कलंक और डर पीड़िता की ओर से घटना को उजागर करने में महत्वपूर्ण बाधाएं उत्पन्न करती हैं.

न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय और एसवीएन भट्टि की बेंच ने कहा, यह एक सामान्य मिथक है कि यौन उत्पीडऩ से शारीरिक चोटें होनी चाहिए. पीड़िता विभिन्न तरीकों से मानसिक आघात का सामना करते हैं. भय, आघात, सामाजिक कलंक, या असहायता जैसी भावनाओं से वह प्रभावित हो सकती है. यह न तो वास्तविक है और न ही उचित है कि हम एक समान प्रतिक्रिया हर केस में उम्मीद करें. यौन उत्पीड़न से जुड़ा कलंक अक्सर महिलाओं के लिए महत्वपूर्ण बाधाएं पैदा करता है, जिससे उनके लिए घटना को दूसरों से साझा करना मुश्किल हो जाता है.

अदालत ने अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट के हैंडबुक ऑन जेंडर स्टिरियोटाइप्स (2023) का हवाला देते हुए कहा, अलग-अलग लोग आघातपूर्ण घटनाओं पर अलग-अलग तरीके से प्रतिक्रिया करते हैं. उदाहरण के लिए एक व्यक्ति अपने माता-पिता की मृत्यु पर सार्वजनिक रूप से रो सकता है, जबकि दूसरा व्यक्ति उसी स्थिति में सार्वजनिक रूप से कोई भावना नहीं दिखा सकता. इसी तरह एक महिला का यौन उत्पीड़न या बलात्कार पर प्रतिक्रिया उसके व्यक्तिगत लक्षणों पर निर्भर कर सकती है. इस मामले में एक जैसा कोई सही या उचित तरीका नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में आरोपी की सजा को निरस्त कर दिया, जिसमें एक लड़की को कथित रूप से अपहरण कर शादी के लिए ले जाने का आरोप था. आरोपी दलिप कुमार उर्फ डली ने उत्तराखंड उच्च न्यायालय के 29 मार्च 2013 के फैसले को चुनौती दी थी. कोर्ट ने आईपीसी की धाराओं 363 और 366ए के तहत आरोपी को दोषी ठहराया था. 1998 में दर्ज की गई एफआईआर में शुरू में आरोपी का नाम नहीं था, लेकिन बाद में उसे अन्य आरोपियों के साथ धारा 363, 366ए, 366, 376 के साथ 149 और 368 के तहत आरोपित किया गया. सत्र अदालत ने आरोपी को गंभीर आरोपों से मुक्त कर दिया, लेकिन दलिप कुमार और एक अन्य आरोपी को धारा 363 और 366-A के तहत दोषी ठहराया.

पीड़िता की गवाही पर जोर

बेंच ने बताया कि पीड़िता की गवाही सबसे महत्वपूर्ण सबूत थी. पीड़िता ने अपने बयान में कहा कि आरोपी के साथ उसकी शादी को लेकर बातचीत हो रही थी, जिसे उसके पिता ने जाति के आधार पर नकारा. पीड़िता ने क्रॉस-एग्जामिनेशन में यह स्पष्ट रूप से कहा कि उसने आरोपी के साथ स्वेच्छा से जाने का निर्णय लिया था. इस दौरान पीडि़ता की छोटी बहन सरिता ने उसे स्कूल के पास आरोपी के साथ जाते देखा था, लेकिन उसे गवाही में पेश नहीं किया गया था. इसके अलावा, अदालत ने यह भी उल्लेख किया कि एफआईआर 18 मार्च 1998 को दर्ज होने के बाद अगले दिन 19 मार्च को शाम 7 बजे दर्ज की गई थी, जबकि घटना का समय 3:00 बजे था.

अदालत ने मेडिकल साक्ष्य का भी संदर्भ लिया. डॉक्टर ने पीडि़ता का परीक्षण किया और कोई शारीरिक चोट या सूजन नहीं पाई. पीड़िता को शारीरिक रूप से सामान्य माना गया और यौन उत्पीड़न का कोई प्रमाण नहीं मिला. डॉक्टर ने यह भी कहा कि पीड़िता की आयु 16 से 18 वर्ष के बीच थी. अदालत ने निष्कर्ष निकाला, साक्ष्य से यह स्पष्ट होता है कि इस मामले में धारा 366-्र के तहत अपहरण का आरोप स्थापित करने के लिए कोई आधार नहीं था. इसलिए आरोपी की सजा को बरकरार नहीं रखा जा सकता.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-