यह माना जाता है कि भगवान ब्रह्मा ने देवी आदि शक्ति और भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ किया था. देवी आदि शक्ति प्रकट हुईं और शिव से अलग होकर ब्रह्मा को ब्रह्मांड के निर्माण में मदद की. ब्रह्मा बहुत प्रसन्न हुए और देवी आदि शक्ति को शिव को पुनः सौपने का निर्णय लिया. इसलिए उनके पुत्र दक्ष ने माता सती को अपनी बेटी के रूप में प्राप्त करने के लिए यज्ञ किया था. भगवान शिव से विवाह करने के संकल्प से माता सती को इस ब्रह्मांड में लाया गया था और दक्ष का यह यज्ञ सफल रहा.
भगवान शिव के अभिशाप से भगवान ब्रह्मा ने अपने पांचवें सिर को शिव के सामने अपने झूठ के कारण खो दिया था. दक्ष को इसी वजह से भगवान शिव से द्वेष था और भगवान शिव और माता सती की शादी नहीं कराने का निर्णय लिया था. हालांकि, माता सती भगवान शिव की ओर आकर्षित हो गईं और कठोर तपस्या कर अंत में एक दिन, शिव और माता सती का विवाह हुआ.
भगवान शिव से प्रतिशोध लेने की इच्छा से दक्ष ने यज्ञ किया. दक्ष ने भगवान शिव और अपनी पुत्री माता सती को छोड़कर सभी देवताओं को आमंत्रित किया. माता सती ने यज्ञ में उपस्थित होने की अपनी इच्छा शिव के सामने व्यक्त की. उन्होंने माता को रोकने की पूरी कोशिश की परंतु माता सती यज्ञ में चली गईं. यज्ञ में पहुँचने के पश्चात माता सती का स्वागत नहीं किया गया. इसके अलावा, दक्ष ने शिव का अपमान किया. माता सती अपने पिता द्वारा पति के किए गए अपमान को झेलने में असमर्थ थीं, इसलिए उन्होंने अपने शरीर का बलिदान दे दिया.
अपमान और चोट से क्रोधित भगवान शिव ने तांडव किया और शिव के वीरभद्र अवतार ने दक्ष के यज्ञ को नष्ट कर दिया और उसका सिर काट दिया. सभी मौजूद देवताओं के अनुरोध के बाद दक्ष को वापस जीवित किया गया और मनुष्य के सिर की जगह एक बकरी का सिर लगाया गया. दुख में डूबे शिव ने माता सती के शरीर को उठाकर, विनाश का दिव्य नृत्य किया. अन्य देवताओं ने विष्णु से इस विनाश को रोकने के लिए हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया. जिस पर विष्णु ने सुदर्शन चक्र का इस्तेमाल करते हुए माता सती के देह के 51 टुकड़े कर दिए. शरीर के विभिन्न हिस्से भारतीय उपमहाद्वीप के कई स्थानों पर गिरे और वह शक्ति पीठों के रूप में स्थापित हुए.
शक्ति पीठ वह जगह है जहाँ लोगों ने लंबे समय तक ध्यान किया है और वहाँ ऊर्जा पाई है. जब आप ध्यान करते और गाते हैं तो उस स्थान पर ऊर्जा इकट्ठा हो जाती है. जब आप सकारात्मक स्थिति में होते हैं, न केवल आप, यहाँ तक कि खंभे, पेड़ और पत्थर सकारात्मक कंपनों को अवशोषित करते हैं. इसी प्रकार शक्ति पीठ का निर्माण हुआ.
शक्तिपीठ केवल कोई एक स्थान नहीं है, , यह दैवीय शक्ति से ओत-प्रोत एक जगह है जहाँ पर ध्यान किया जा सकता है.
देवी पुराण के अनुसार 51 शक्तिपीठों की स्थापना की गई है और यह सभी शक्तिपीठ बहुत पावन तीर्थ माने जाते हैं. वर्तमान में यह 51 शक्तिपीठ पाकिस्तान, भारत, श्रीलंका,और बांग्लादेश, के कई हिस्सों में स्थित हैं.
कुछ महान धार्मिक ग्रंथ जैसे शिव पुराण, देवी भागवत, कल्कि पुराण और अष्टशक्ति के अनुसार चार प्रमुख शक्ति पीठों को पहचाना गया है, जो निम्नलिखित हैं:
यहाँ 51 शक्तिपीठों के नाम और स्थान दिए गए हैं.
(1) कामाख्या देवी:- गुवाहाटी, असम.
(2) त्रिपुरा सुंदरी:- उदयपुर, त्रिपुरा.
(3) सुंदरी देवी:- शोंढेश, बलूचिस्तान, पाकिस्तान.
(4) हिंगलाज देवी:- बलूचिस्तान, पाकिस्तान.
(5) कालीघाट काली मंदिर:- कोलकाता, पश्चिम बंगाल.
(6) तारा देवी:- नीमराना, राजस्थान.
(7) श्री शैल:- श्रीशैलम, आंध्र प्रदेश.
(8) महालक्ष्मी:- कोल्हापुर, महाराष्ट्र.
(9) वीरजा देवी:- ओडिशा.
(10) मंगलचण्डिका:- प्रयागराज, उत्तर प्रदेश.
(11) सती देवी:- कैलाश पर्वत, तिब्बत.
(12) भद्रकाली:- कुरुक्षेत्र, हरियाणा.
(13) विमला देवी:- पुरी, ओडिशा.
(14) ललिता देवी:- प्रयाग, उत्तर प्रदेश.
(15) क्षीर भवानी:- श्रीनगर, जम्मू और कश्मीर.
(16) महामाया देवी:- अमरकंटक, मध्य प्रदेश.
(17) जयंती देवी:- जयंतिया हिल्स, मेघालय.
(18) गंडकी चण्डिका:- पोखरा, नेपाल.
(19) वाराही देवी:- पुष्कर, राजस्थान.
(20) शारदा देवी:- मैसूर, कर्नाटक.
(21) अम्बा देवी:- अम्बाजी, गुजरात.
(22) कालिका:- कालिका मंदिर, पावागढ़, गुजरात.
(23) कुमारी देवी:- कन्याकुमारी, तमिलनाडु.
(24) महेश्वरी देवी:- महेश्वर, मध्य प्रदेश.
(25) शांभवी:- शक्तिपीठ, बंगलोर, कर्नाटक.
(26) चंद्रघंटा:- चंद्रनाथ पर्वत, त्रिपुरा.
(27) शिरोराज्नी:- तृप्ति, ओडिशा.
(28) नारायणी:- नलहाटी, पश्चिम बंगाल.
(29) मंगलचण्डिका:- गया, बिहार.
(30) भ्रामरी देवी:- त्रिशूल पर्वत, उत्तराखंड.
(31) विन्ध्यवासिनी:- मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश.
(32) ललिता देवी:- प्रयागराज, उत्तर प्रदेश.
(33) श्रीशैलम मल्लिकार्जुन:- आंध्र प्रदेश.
(34) महालक्ष्मी देवी:- कोल्हापुर, महाराष्ट्र.
(35) महालक्ष्मी:- वाइ, महाराष्ट्र.
(36) भ्रामरी देवी:- कानकाली, राजस्थान.
(37) गंधमादन पर्वत:- हरिद्वार, उत्तराखंड.
(38) भीमाशंकर:- पुणे, महाराष्ट्र.
(39) कात्यायनी:- वैष्णो देवी, जम्मू और कश्मीर.
(40) अंबाजी:- बनासकांठा, गुजरात.
(41) कालीपीठ:- काली मंदिर, कालीघाट, कोलकाता.
(42) त्रिपुरा भैरवी:- रांची, झारखंड.
(43) मंगलचंडी:- मंगलचंडी, हरियाणा.
(44) भद्रकाली:- कुरुक्षेत्र, हरियाणा.
(45) वीरभद्रेश्वरी:- भद्राचलम, तेलंगाना.
(46) अन्नपूर्णा:- वाराणसी, उत्तर प्रदेश.
(47) चिंतपूर्णी:- चिंतपूर्णी, हिमाचल प्रदेश.
(48) ज्वालामुखी:- ज्वालामुखी, हिमाचल प्रदेश.
(49) तारा तारिणी:- ब्रह्मपुर, ओडिशा.
(50) राजराजेश्वरी:- कांचीपुरम, तमिलनाडु.
(51) कामेश्वरी:- कामाख्या, असम.
ये सभी शक्तिपीठ देवी के विभिन्न रूपों की पूजा स्थलों के रूप में महत्वपूर्ण हैं.
मुकुट: पश्चिम बंगाल में मुर्शिदाबाद के किरीटकोण ग्राम में उनका मुकुट गिरा. यहां उन्हें माता विमला के नाम से जाना गया.
मणिकर्णिका: उत्तर प्रदेश में वाराणसी के घाट पर उनके कान का गहना मणिकर्णिका गिरा, जिसके कारण उस घाट का नाम मणिकर्णिका पड़ा और माता मणिकर्णी के रूप में जानी गईं.
पीठ: तमिलनाडु के कन्याकुमारी में माता की पीठ का हिस्सा गिरा. यहां की शक्ति पीठ में माता को सर्वाणी के नाम से जाना गया.
बायां नितंब: मध्य प्रदेश के अमरकंटक में कमलाधव जगह के पास सोन नदी के किनारे माता सती का बायां नितंब गिरा.
दायां नितंब: अमरकंटक में ही माता का दायां नितंब गिरा और वहीं से नर्मदा नदी का उद्गम हुआ और माता को देवी नर्मदा कहा गया.
आंखें: हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले में देवी सती की आंख गिरी. यहां नैना देवी का मंदिर बना और मां महिष मर्दिनी कहलाईं.
नाक: बांग्लादेश में शिकारपुर बरिसल से 20 किमी दूर सोंध नदी के पास उनकी नासिका यानी नाक गिरी. यहां उन्हें माता सुनंदा के नाम से जाना गया.
गला: कश्मीर के पास पहलगाम में माता सती का गला गिरा और उन्हें महामाया के रूप में स्थापित किया गया.
जीभ: हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा में उनकी जीभ गिरी और यहां वो अंबिका कहलाईं.
बायां वक्ष: पंजाब के जालंधन में छावनी स्टेशन के पास एक तालाब में माता सती का बायां वक्ष गिरा. यहां पर माता को त्रिपुरमालिनी के नाम से जाना गया.
दायां वक्ष: उत्तर प्रदेश के चित्रकूट स्थिति रामगिरी में माता सती का दायां वक्ष गिरा और उन्हें देवी शिवानी के नाम से जाना गया.
हृदय: गुजरात का अंबाजी मंदिर काफी फेमस है. यहां उनका हृदय गिरा और माता सती अम्बाजी कहलाईं.
केश: उत्तर प्रदेश के वृंदावन में उनके केशों का गुच्छा गिरा और वो उमा देवी के नाम जानी गईं.
ऊपरी दाढ़: तमिलनाडु के कन्याकुमारी में शुचितीर्थम शिव मंदिर के पास उनकी ऊपरी दाढ़ गिरी. यहां परवो देवी नारायणी कहलाईं.
निचली दाढ़: देवी सती की निचली दाढ़ पंचसागर में गिरी और यहां उन्हें देवी वाराही के नाम से जाना गया.
बाएं पैर की पायल: देवी सती के बाएं पैर की पायल बांग्लादेश के भवानीपुर में गिरी.
दाएं पैर की पायल: आंध्र प्रदेश में कर्नूल के भवानीपुर में उनके दाएं पैर की पायल गिरी और यहां वो देवी श्री सुंदरी कहलाईं.
बायीं एड़ी: पश्चिम बंगाल में पूर्व मेदिनीपुर जिले में माता सती की बाईं एड़ी गिरी थी. यहां पर देवी कपालिनी के नाम से मंदिर बना.
अमाशय: माता सती का अमाशय गुजरात के जूनागढ़ में गिरा. यहां वो चंद्रभागा के नाम से जानी गईं.
ऊपरी होंठ: मध्य प्रदेश में क्षिप्रा नदी के किनारे पर बसे उज्जयिनी में उनके ऊपरी होंठ गिरे. यहां पर उन्हें माता अवंति के नाम से जाना गया.
ठोड़ी: महाराष्ट्र के नासिक में उनकी ठोड़ी गिरी. यहां पर माता सती को देवी भ्रामरी नाम दिया गया.
गाल: आंध्र प्रदेश के सर्वशैल राजमहेंद्री में उनके गाल गिरे और उन्हें विश्वेश्वरी देवी कहा गया.
बायें पैर की उंगली: राजस्थान के बिरात में उनके बायें पैर की उंगली गिरी, यहां पर माता को देवी अंबिका के नाम से जाना गया.
दायां कंधा: पश्चिम बंगाल के हुगली में माता सती का दायां कंधा गिरा और वो देवी कुमारी कहलाईं.
बायां कंधा: देवी सती का बायां कंधा भारत-नेपाल सीमा के मिथिला में गिरा और यहां उन्हें देवी उमा के नाम से जाना गया.
पैर की हड्डी: माता की पैर की हड्डी पश्चिम बंगाल के बीरभूम में गिरी और उन्हें कलिका देवी पड़ा.
कान: कहा जाता है कि कर्नाट (अज्ञात स्थान) में माता सती के दोनों कान गिरे.
शरीर का मध्य हिस्सा: पश्चिम बंगाल के वक्रेश्वर में माता सती के शरीर का मध्य हिस्सा और वो महिषमर्दिनी कहलाईं.
हाथ-पैर: बांग्लादेश के खुलना जिले में देवी सती के हाथ और पैर गिरे और यहां उन्हें यशोरेश्वरी के नाम से जाना गया.
निचला होंठ: पश्चिम बंगाल के अट्टहास उनका निचला होंठ गिरा और वो देवी फुल्लारा कहलाईं.
हार: पश्चिम बंगाल के नंदीपुर में उनका हार गिरा, यहां उन्हें मां नंदनी के नाम से जाना गया.
पायल: श्रीलंका के एक अज्ञान स्थान पर उनकी पायल गिरी. कहा गया कि श्रीलंका के ट्रिंकोमाली में मंदिर पहले था, जो पुर्तगाली बम्बारी में ध्वस्त हो गया.
घुटने: नेपाल के पशुपति मंदिर के पास उनके दोनों घुटने गिरे और यहां वो देवी महाशिरा कहलाईं.
दायां हाथ: तिब्बत के पास मानसरोवर में देवी सती का दायां हाथ गिरा. यहां पर उन्हें दाक्षायनी के नाम से जाना गया.
नाथि: ओडिशा के उत्कल में माता सती की नाभि गिरी और उन्हें देवी विमला कहा जाने लगा.
माथा: नेपाल के पोखरा में बने मुक्तिनाथ मंदिर में देवी का मस्तक गिरा और यहां उन्हें गंडकी चंडी देवी के नाम से जाना गया.
बायां हाथ: पश्चिम बंगाल के वर्धमान जिला में माता का बायां हाथ गिरा. यहां उन्हें बहुला देवी के नाम से जाना गया. देवी का बायां हाथ गिरा था.
दायां पैर: माता सती का दायां पैर त्रिपुरा में गिरा और उन्हें त्रिपुर सुंदरी कहा गया.
दाईं भुजा: बांग्लादेश के चिट्टागौंग जिला में चंद्रनाथ पर्वर शिखर पर देवी सती की दाईं भुजा गिरी. यहां उन्हें देवी भवानी के नाम से जाना गया.
बायां पैर: पश्चिम बंगाल के जलपाइगुड़ी में बायां पैर गिरा और वो भ्रामरी देरी कहलाईं.
योनि: असम के गुवाहाटी में नीलांपल पर्वत पर उनकी योनि गिरी और माता सती को देवी कामाख्या के रूप में जाना गया.
दाएं पैर का अंगूठा: पश्चिम बंगाल के वर्धमान जिले में उनके दाएं पैर का अंगूठा गिरा और उनका नाम देवी जुगाड्या पड़ा.
पैर का अंगूठा: कोलकाता के कालीघाट में देवी सती के पैर का दूसरा अंगूठा गिरा. उस जगह को कालीपीठ और माता को मां कालिका के नाम से जाना गया.
उंगली: उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में देवी सती के हाथ की उंगली गिरी और उन्हें वहां मां ललिता कहा जाने लगा.
बाईं जांघ: बांग्लादेश के सिल्हैट जिला में माता सती की बाईं जांघ गिरी और उन्हें वहां देवी जयंती के नाम से जाना गया.
पैर की एड़ी: हरियाणा के कुरुक्षेत्र में उनके पैर की एड़ी गिरी और वो माता सावित्री कहलाईं.
कलाई: अजमेर के पुष्कर में उनकी कलाई गिरी और यहां माता को देवी गायत्री के नाम से जाना गया.
गला: बांग्लादेश में ही उनका गला गिरा और माता सती को महालक्ष्मी के नाम से जाना गया.
अस्थियां: पश्चिम बंगाल में कोपई नदी के तट पर उनकी अस्थियां गिरी. उसे देवगर्भ के रूप में स्थापित किया गया.
दाईं जांघ: बिहार के पटना में माता सती की दाईं जांघ गिरी. उसे पटनेश्वरी शक्तिपीठ के नाम से जाना गया.
त्रिनेत्र: महाराष्ट्र कोल्हापुर देवी सती का त्रिनेत्र गिरा और इसे माता महालक्ष्मी का विशेष स्थान माना गया.