परंपरा तब तक सुंदर है, जब तक वह पंख न काटे, घूंघट हटा, तो सपनों ने उड़ान भरी

परंपरा तब तक सुंदर है, जब तक वह पंख न काटे, घूंघट हटा, तो सपनों ने उड़ान भरी

प्रेषित समय :20:42:04 PM / Sun, Apr 27th, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

-प्रियंका सौरभ

रात के आठ बजे का वक्त था. ढाणी बीरन गांव की चौपाल पर बड़ी संख्या में पुरुष, महिलाएं और बच्चे इकट्ठा थे. धीमी हवाओं के बीच चारों तरफ टिमटिमाते दीयों और लालटेन की रोशनी थी. माहौल में एक अजीब-सी उत्तेजना थी — जैसे कोई बड़ा बदलाव दस्तक दे रहा हो.

तभी बुजुर्ग धर्मपाल, जिनकी बात को गांव में विशेष आदर मिलता है, उठे और भारी आवाज़ में बोले:
"बेटी वह है जो हमारे घर को बढ़ाती है. हमारी बेटी भी किसी और के आंगन में रोशनी फैलाएगी. आज से हम प्रण लेते हैं कि किसी बहू-बेटी को यह नहीं कहेंगे कि घूंघट क्यों उतार रखा है. अगर कोई इसका विरोध करेगा तो पंचायत में उसके खिलाफ उचित निर्णय लिया जाएगा."

चौपाल में बैठे तमाम लोगों ने एक साथ दोनों हाथ उठाकर इस संकल्प का समर्थन किया. यह महज समर्थन नहीं था, यह सदियों पुरानी एक मानसिकता की बेड़ियों को तोड़ने का सामूहिक निर्णय था.

कविता देवी ने दिखाई राह

गांव की सरपंच कविता देवी, जो अब तक परंपरा के चलते घूंघट में थीं, धीमे-धीमे आगे बढ़ीं. फिर सबकी नजरों के सामने उन्होंने घूंघट को सिर से पीछे सरका दिया. वह सिर ऊंचा किए, गर्व से मुस्कुराती रहीं — मानो सदियों का एक बोझ उनकी मुस्कान के नीचे झरता जा रहा हो. कविता देवी के इस साहसिक कदम ने बाकी महिलाओं के भीतर भी एक नयी ऊर्जा फूंकी. धीरे-धीरे कई और महिलाएं, जो सिर से पल्लू हटाने से झिझकती थीं, चौपाल में खड़ी होकर बिना घूंघट के सामने आईं. ढाणी बीरन में एक नयी कहानी लिखी जा रही थी — घूंघट से आज़ादी की कहानी.

परंपरा या बंधन?

हरियाणा जैसे राज्य में, जहां घूंघट को लंबे समय तक सम्मान और संस्कार की निशानी माना गया, वहीं दूसरी तरफ इस परंपरा ने महिलाओं की स्वतंत्रता और आत्मविश्वास पर अक्सर अनदेखे पहरे भी लगाए. बहू-बेटियों को घरों में सीमित करना, सार्वजनिक जीवन में उनकी भागीदारी कम करना — ये सब पर्दा प्रथा के अदृश्य दुष्परिणाम रहे हैं. लेकिन ढाणी बीरन ने आज यह तय कर लिया था कि सम्मान का असली अर्थ नियंत्रण में नहीं, बल्कि बराबरी में है.

बदलाव एक दिन में नहीं आता

गांव के बुजुर्ग धर्मपाल मानते हैं कि बदलाव अचानक नहीं आता. "समझदारी से काम लेना होता है. अगर हम अपनी बहू-बेटियों को शिक्षा, रोजगार और निर्णय लेने का अवसर देना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें अपने सोच के पर्दे हटाने होंगे," वे कहते हैं. इसी सोच ने पूरे गांव को एक नई दिशा दी. आज ढाणी बीरन के लोग न सिर्फ घूंघट उतारने की बात कर रहे हैं, बल्कि लड़कियों की पढ़ाई, महिलाओं की पंचायत में भागीदारी और आर्थिक आज़ादी को भी प्राथमिकता दे रहे हैं.

छोटी-छोटी पहल, बड़ा असर

सरपंच कविता देवी बताती हैं, "पहले महिलाएं पंचायत की बैठक में भी परदे के पीछे से बोलती थीं. अब हम चाहती हैं कि बहनें-बहुएं खुलकर अपनी बात रखें. बेटी सिर्फ घर में चूल्हा जलाने के लिए नहीं है, वह गांव का भविष्य संवारने के लिए भी है." गांव में लड़कियों की स्कूल उपस्थिति बढ़ाने के लिए भी प्रयास हो रहे हैं. साक्षरता अभियान, स्वास्थ्य शिविर, और महिला सशक्तिकरण पर जागरूकता कार्यक्रमों की योजना भी बनाई जा रही है.

विरोध की आहट भी

बेशक हर बदलाव के साथ कुछ विरोध भी होता है. गांव के कुछ पुराने विचारों के लोग आज भी पर्दा प्रथा को छोड़ने में हिचकिचा रहे हैं. लेकिन जब धर्मपाल जैसे बुजुर्ग, जिनकी आवाज गांव में सम्मान के साथ सुनी जाती है, खुले मंच से इस पहल का समर्थन करते हैं, तो विरोध स्वतः कमजोर पड़ने लगता है. धर्मपाल मुस्कुराते हुए कहते हैं, "अगर घर की लक्ष्मी खुद को बांधकर रखेगी तो घर कैसे समृद्ध होगा? उड़ने दीजिए बेटियों को, वे नए आकाश रचेंगी."

एक गांव से शुरू, पूरे प्रदेश तक?

ढाणी बीरन की चौपाल पर जो दीप जलाया गया है, उसकी रोशनी सिर्फ इस गांव तक सीमित नहीं रहेगी. यह बदलाव दूसरे गांवों, कस्बों और जिलों के लिए भी एक मिसाल बनेगा.
यह कहानी बताती है कि जब गांव का एक बुजुर्ग अपनी सोच बदलता है, जब सरपंच घूंघट उतारती है, जब महिलाएं डर छोड़कर मुस्कुराती हैं — तब असली क्रांति होती है. और शायद आने वाले वर्षों में कोई बच्ची ढाणी बीरन के चौपाल पर खड़े होकर यह कहेगी: "मेरे गांव ने मुझे घूंघट नहीं, हौसला दिया था."

"ढाणी बीरन का संकल्प"

> **"हम प्रण लेते हैं — किसी बहू-बेटी से घूंघट ना करने की आज़ादी छीनेंगे नहीं. महिलाओं को पंचायत, शिक्षा और रोजगार में बराबरी का अवसर देंगे. जो विरोध करेगा, उसके खिलाफ पंचायत में उचित निर्णय लिया जाएगा. ढाणी बीरन ने घूंघट नहीं, सोच का पर्दा हटाया है.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-