ज्योतिष में सूर्य शनि पिता पुत्र है लेकिन शनिदेव सदैव अपने पिता से शत्रुता का भाव रखते हैं, इसी कारण जब भी कुंडली में इनकी युति होती है तो इनके अशुभ फल जातक को मिलते हैं. इनके आपसी विरोध का अनुमान आप इस बात से लगा सकते हैं कि सूर्य मेष राशि उच्च के होते हैं वही शनि नीच के हो जाते हैं और जहाँ तुला में शनि उच्च के होते हैं वहां सूर्य नीच के हो जाते हैं. इन्हीं कारणों से सूर्य शनि का योग ज्योतिष में काफी बुरे फल देने वाला माना गया है. इसका एक कारण ये भी है कि सूर्य जहाँ रौशनी का कारक है वंही शनि अँधेरे का कारक है. रौशनी अँधेरे को खत्म कर देती है इस प्रकार इन दोनों का योग कभी नही हो पाता. एक के खत्म होने पर दुसरे का समय आता है. सूर्य जो सताधीश का कारक है वही शनि देव को दासत्व का कारक माना गया है.
इसके लिए हमें शनिदेव के जन्म की कथा समझनी चाहिए.
पौराणिक कथा के अनुसार, सूर्य देव का विवाह प्रजापति दक्ष की कन्या संज्ञा से हुआ था. संज्ञा सूर्य देव के तेज को सहने में असमर्थ थी. अतः
संज्ञा ने सूर्य देव के तेज से बचने के लिए अपनी छाया सुवर्णा को उनके पास छोड़ दिया और खुद अपने पिता के घर चली गई.
शनि देव का जन्म सुवर्णा के गर्भ से हुआ. जब शनि देव गर्भ में थे, तब सुवर्णा भगवान शिव की कठोर तपस्या कर रही थीं, जिसके कारण उनका वर्ण काला हो गया.काले वर्ण एवं सुवर्णा के पुत्र होने नाते, जन्म के बाद से ही सूर्य देव ने उन्हें अपना पुत्र मानने से इनकार कर दिया. इससे छुब्ध होकर शनि देव ने शिव की तपस्या की और शिव से वरदान प्राप्त किया कि उन्हें सभी ग्रहों में सर्वोच्च स्थान मिलेगा और वे कर्मों का फल देने वाले न्याय के देवता होंगे.
*सूर्यदेव प्रथम भाव यानी जीवन के कारक है जबकि शनिदेव अष्टम भाव यानी मृत्यु के कारक हैं.*
*जहां सूर्यदेव आरोग्यता के कारक हैं,वही शनिदेव रुग्णता के.*
*जहां सूर्यदेव अस्थि के कारक हैं वही शनिदेव अस्थिभंगता के*
सूर्य सात्विकता और शुभता फ़ैलाने वाला, सुलभ दृष्ट, प्रकाशवान व ज्वलंत ग्रह है, यह व्यक्ति के जीवन में प्रकाश फैलाते है, जीवनी शक्ति, पिता, सफलता, स्वास्थ्य, आरोग्य, औषधि आदि के कारक है, इनका आंखों की ज्योति, शरीर के मेरूदंड, तथा पाचन क्रिया पर प्रभुत्व है, वहीँ शनि को तामसिक और कठोर ग्रह माना जाता है, यह प्रकाशहीन एवं ठंडा ग्रह है, जो आलस्य, गरीबी, लंबी बीमारी, रुकावट, जेल,दंड़, दुख, मृत्यु का मुख्य कारक माना गया है,.शनि का एक राशि में गोचर लगभग ढाई वर्ष रहता है. अतः उसे प्रथम स्तर का नैसर्गिक पाप ग्रह की संज्ञा दी गई है. यह व्यक्ति के जीवन में संघर्ष और अंधकार पैदा करते है. प्रकाश और अन्धकार का मिलन होने के परिणाम बड़े विचित्र होते हैं. इससे सूर्यदेव एवं शनिदेव दोनों दूषित हो जाते हैं.
यदि सूर्य शनि की युति हो तो पिता और पुत्र में वैचारिक मतभेद बने रहते हैं,सूर्य-शनि की युति के फलादेश का अध्ययन दर्शाता है कि शनि के दुष्प्रभाव से युति वाले भाव तथा उससे सप्तम भाव के फलादेश में कुछ न कुछ न्यूनता आवश्य आ जाती है. यह युति सूर्य के कारकत्व पिता की स्थिति, उनका स्वास्थ्य तथा जातक के अपने कार्यक्षेत्र तथा मान-सम्मान में कमी करती है. *जातक के अपने पिता से संबंध अच्छे नहीं रहते.* सूर्य के अधिक निर्बल होने पर पिता का साया जल्दी उठ जाता है या जातक अपने पिता से अलग हो जाता है. इसी प्रकार संबंधियों से भी अलगाव होता है. स्वास्थ्य में भी गड़बड़ रहती है, वाणी में संयम नहीं रह पाता है, जिससे बनते हुए कार्य बिगड़ जाते हैं.धन संबंधी परेशानियां भी हो सकती हैं,सूर्य शनि के एक साथ होने के कारण पिता पुत्र के संबंधों में समस्या पैदा होती है इस युति के कारण वैवाहिक जीवन ख़राब होता है, कभी कभी दो विवाहों के योग भी बन जाते हैं, पिता और पुत्र का आपसी व्यवहार अच्छा नहीं होता, और कभी कभी एक दूसरे से दूर हो जाते हैं, कई बार लाख प्रयास करने पर भी पिता या पुत्र का सुख नहीं मिलता, और कभी कभी पिता पुत्र में से एक ही उन्नति कर पाता है, अतः कुछ आचार्य इस युति को *विच्छेदकारी योग* की संज्ञा देते हैं.
सूर्य और शनि पिता-पुत्र होने पर भी परस्पर शत्रुता रखते हैं. वैसे भी प्रकृति का विचार करें तो ज्ञान और अंधकार साथ मिलने पर शुभ प्रभाव नहीं देते, सूर्य-शनि युति प्रतियुति जीवन को पूर्णत: संघर्षमय बनती हैं| विशेषत: जब यह युति लग्न, पंचम, नवम या दशम में हो व दोनों (सूर्य-शनि) में से कोई ग्रह इन भावों का कारक भी हो तो यह योग जीवन में अनावश्यक विलंब लाते है. बेहद मेहनत के बाद, कठिनाई से सफलता मिलती है. पिता-पुत्र में मतभेद हमेशा बना रहता है और एक दूसरे से दूर रहने के भी योग बनते हैं. सतत संघर्ष से ये व्यक्ति निराश हो जाते हैं, डिप्रेशन में भी जा सकते हैं. यदि शनि उच्च का हो व कारक हो तो 36वें वर्ष के बाद, अपनी दशा-महादशा में सफलता जरूर देता है. यह युति होने पर व्यक्ति को सतत परिश्रम के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए, पिता से मतभेद टालें, ज्ञानार्जन करें, आध्यात्मिक साधना से अपना मनोबल मजबूत करना चाहिए.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-