मनोकामना शीध्र पूरा करने के लिए महाभारत के वनपर्व में वर्णित सूर्य अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र का पाठ करें

मनोकामना शीध्र पूरा करने के लिए महाभारत के वनपर्व में वर्णित सूर्य अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र का पाठ करें

प्रेषित समय :22:39:10 PM / Mon, Jun 23rd, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

धर्मराज युधिष्ठिर जुए में अपना राज्य व धन-धान्यादि सब हार गए और उन्हें बारह वर्षों का वनवास जुए में हार स्वरूप मिला. दुर्योधन की कुटिल द्यूतक्रीड़ा से पराजित हुए पांचों पांडव जब द्रौपदी सहित वन को जाने लगे, तब धर्मराज युधिष्ठिर की राज्यसभा में धर्म का सम्पादन करने वाले हजारों वैदिक ब्राह्मणों का दल युधिष्ठिर के मना करने पर भी उनके साथ वन को चल दिया. युधिष्ठिर ने उन्हें समझाया–’वन की इस यात्रा में आपको बहुत कष्ट होगा अत: आप सब मेरा साथ छोड़कर अपने घर लौट जाएं.’ परन्तु ब्राह्मणों ने कहा–’हम वनवास में आपके मंगल के लिए प्रार्थना करेंगे और सुन्दर कथाएं सुनाकर आपके मन को प्रसन्न रखेंगे.’ युधिष्ठिर ब्राह्मणों का निश्चय जानकर चिन्तित हो सोचने लगे–’किसी भी सत्पुरुष के लिए अपने अतिथियों का स्वागत-सत्कार करना परम कर्तव्य है, तो ऐसी स्थिति में इन विप्रजनों का स्वागत कैसे किया जा सकेगा?’
कुछ दूर वन में जाकर युधिष्ठिर ने अपने पुरोहित धौम्य ऋषि से प्रार्थना की–’हे ऋषे! ये ब्राह्मण जब मेरा साथ दे रहे हैं, तब इनके भोजन की व्यवस्था भी मुझे ही करनी चाहिए. अत: आप इन सबके भोजन की व्यवस्था का कोई उपाय बताइए.’
तब धौम्य ऋषि ने कहा–’मैं ब्रह्माजी द्वारा कहा हुआ अष्टोत्तरशतनाम (एक सौ आठ नाम)  सूर्य स्तोत्र तुम्हें देता हूँ; तुम उसके द्वारा भगवान सूर्य की आराधना करो. तुम्हारा मनोरथ वे शीघ्र ही पूरा करेंगे.’
*महाभारत के वनपर्व में सूर्य अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र का वर्णन(म.भा. अध्याय-३)
धौम्य उवाच
सूर्योऽर्यमा भगस्त्वष्टा पूषार्क: सविता रवि:.
गभस्तिमानज: कालो मृत्युर्धाता प्रभाकर:..
पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वायुश्च परायणम्.
सोमो बृहस्पति: शुक्रो बुधो अंगारक एव च..
इन्द्रो विवस्वान् दीप्तांशु: शुचि: शौरि: शनैश्चर:.
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वै वरुणो यम:..
वैद्युतो जाठरश्चाग्नि रैन्धनस्तेजसां पति:.
धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदांगो वेदवाहन:..
कृतं त्रेता द्वापरश्च कलि: सर्वमलाश्रय:.
कला काष्ठा मुहूर्त्ताश्च क्षपा यामस्तथा क्षण:..
संवत्सरकरोऽश्वत्थ: कालचक्रो विभावसु:.
पुरुष: शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्त: सनातन:..
कालाध्यक्ष: प्रजाध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुद:.
वरुण: सागरोंऽशश्च जीमूतो जीवनोऽरिहा..
भूताश्रयो भूतपति: सर्वलोकनमस्कृत:.
स्रष्टा संवर्तको वह्नि: सर्वस्यादिरलोलुप:..
अनन्त: कपिलो भानु: कामद: सर्वतोमुख:.
जयो विशालो वरद: सर्वधातुनिषेचिता..
मन:सुपर्णो भूतादि: शीघ्रग: प्राणधारक:.
धन्वन्तरिर्धूमकेतुरादिदेवो दिते: सुत:..
द्वादशात्मारविन्दाक्ष: पिता माता पितामह:.
स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम्..
देहकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुख:.
चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेय: करुणान्वित:..
भगवान सूर्य के अष्टोत्तरशतनाम नाम (हिन्दी में)–ब्रह्माजी द्वारा बताए गए भगवान सूर्य के एक सौ आठ नाम जो स्वर्ग और मोक्ष देने वाले हैं, इस प्रकार हैं–
१. सूर्य, 
२. अर्यमा, 
३. भग, 
४. त्वष्टा, 
५. पूषा (पोषक), 
६. अर्क, 
७. सविता, 
८. रवि, 
९. गभस्तिमान (किरणों वाले), 
१०. अज (अजन्मा), 
११. काल, 
१२. मृत्यु, 
१३. धाता (धारण करने वाले), 
१४. प्रभाकर (प्रकाश का खजाना), 
१५. पृथ्वी, 
१६. आप् (जल), 
१७. तेज, 
१८. ख (आकाश), 
१९. वायु,
२०. परायण (शरण देने वाले), 
२१. सोम, 
२२. बृहस्पति, 
२३. शुक्र, २४. बुध, 
२५. अंगारक (मंगल), 
२६. इन्द्र, २७. विवस्वान्, 
२८. दीप्तांशु (प्रज्वलित किरणों वाले), 
२९. शुचि (पवित्र), 
३०. सौरि (सूर्यपुत्र मनु), 
३१. शनैश्चर, ३२. ब्रह्मा, 
३३. विष्णु, 
३४. रुद्र, 
३५. स्कन्द (कार्तिकेय), 
३६. वैश्रवण (कुबेर), 
३७. यम, 
३८. वैद्युताग्नि, 
३९. जाठराग्नि, 
४०. ऐन्धनाग्नि,  
४१. तेज:पति, 
४२. धर्मध्वज, 
४३. वेदकर्ता, 
४४. वेदांग, 
४५. वेदवाहन, 
४६. कृत (सत्ययुग), 
४७. त्रेता, 
४८. द्वापर, 
४९. सर्वामराश्रय कलि, 
५०. कला, काष्ठा मुहूर्तरूप समय, 
५१. क्षपा (रात्रि), 
५२. याम (प्रहर), 
५३. क्षण, 
५४. संवत्सरकर, 
५५. अश्वत्थ, 
५६. कालचक्र प्रवर्तक विभावसु, 
५७. शाश्वतपुरुष, 
५८. योगी, 
५९. व्यक्ताव्यक्त, 
६०. सनातन, 
६१. कालाध्यक्ष, 
६२. प्रजाध्यक्ष, 
६३. विश्वकर्मा, 
६४. तमोनुद (अंधकार को भगाने वाले), 
६५. वरुण, 
६६. सागर, 
६७. अंशु, 
६८. जीमूत (मेघ), 
६९. जीवन, 
७०. अरिहा (शत्रुओं का नाश करने वाले), 
७१. भूताश्रय, 
७२. भूतपति, 
७३. सर्वलोकनमस्कृत, 
७४. स्रष्टा,
७५. संवर्तक, 
७६. वह्नि, 
७७. सर्वादि,
७८. अलोलुप (निर्लोभ), 
७९.  अनन्त, 
८०. कपिल, 
८१. भानु, 
८२. कामद, 
८३. सर्वतोमुख,  
८४. जय,  
८५. विशाल,
८६. वरद, 
८७. सर्वभूतनिषेवित, 
८८. मन:सुपर्ण, 
८९. भूतादि, 
९०. शीघ्रग (शीघ्र चलने वाले), 
९१. प्राणधारण, 
९२. धन्वन्तरि, 
९३. धूमकेतु, 
९४. आदिदेव, 
९५. अदितिपुत्र, 
९६. द्वादशात्मा (बारह स्वरूपों वाले), 
९७. अरविन्दाक्ष, 
९८. पिता-माता-पितामह, 
९९. स्वर्गद्वार-प्रजाद्वार, 
१००. मोक्षद्वार, 
१०१. देहकर्ता, 
१०२. प्रशान्तात्मा, 
१०३. विश्वात्मा, 
१०४. विश्वतोमुख, 
१०५. चराचरात्मा, 
१०६. सूक्ष्मात्मा, 
१०७. मैत्रेय, 
१०८. करुणान्वित (दयालु).
*सूर्यदेव के अष्टोत्तरशतनाम विवरणः*
सूर्य के अष्टोत्तरशतनामों में कुछ नाम ऐसे हैं जो उनकी परब्रह्मरूपता प्रकट करते हैं जैसे– *अश्वत्थ, शाश्वतपुरुष, सनातन, सर्वादि, अनन्त, प्रशान्तात्मा, विश्वात्मा, विश्वतोमुख, सर्वतोमुख, चराचरात्मा, सूक्ष्मात्मा.*
सूर्य की त्रिदेवरूपता बताने वाले नाम हैं– *ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, शौरि, वेदकर्ता, वेदवाहन, स्रष्टा, आदिदेव व पितामह.* सूर्य से ही समस्त चराचर जगत का पोषण होता है और सूर्य में ही लय होता है, इसे बताने वाले सूर्य के नाम हैं– *प्रजाध्यक्ष, विश्वकर्मा, जीवन, भूताश्रय, भूतपति, सर्वधातुनिषेविता, प्राणधारक, प्रजाद्वार, देहकर्ता और चराचरात्मा.*
सूर्य का नाम काल है और वे काल के विभाजक है, इसलिए उनके नाम हैं– *कृत, त्रेता, द्वापर, कलियुग, संवत्सरकर, दिन, रात्रि, याम, क्षण, कला, काष्ठा–मुहुर्तरूप समय.*
सूर्य ग्रहपति हैं इसलिए एक सौ आठ नामों में सूर्य के *सोम, अंगारक, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनैश्चर व धूमकेतु  नाम भी हैं.*
उनका ‘व्यक्ताव्यक्त’ नाम यह दिखाता है कि वे शरीर धारण करके प्रकट हो जाते हैं. *कामद, करुणान्वित* नाम उनका देवत्व प्रकट करते हुए यह बताते हैं कि सूर्य की पूजा से इच्छाओं की पूर्ति होती है.
सूर्य के नाम मोक्षद्वार, स्वर्गद्वार व त्रिविष्टप यह प्रकट करते हैं कि सूर्योपासना से स्वर्ग की प्राप्ति होती हैं. उत्तारायण सूर्य की प्रतीक्षा में भीष्मजी ने अट्ठावन दिन शरशय्या पर व्यतीत किए. गीता में कहा गया है–उत्तरायण में मरने वाले ब्रह्मलोक को प्राप्त करते हैं. सूर्य के सर्वलोकनमस्कृत नाम से स्पष्ट है कि सूर्यपूजा बहुत व्यापक है.
*सूर्योपासना से युधिष्ठिर को अक्षयपात्र की प्राप्तिः*
धौम्य ऋषि द्वारा बताए इस स्तोत्र और सूर्योपासना के कठिन नियमों का युधिष्ठिर ने विधिपूर्वक अनुष्ठान किया. सूर्यदेव ने प्रसन्न होकर अक्षयपात्र देते हुए युधिष्ठिर से कहा–’मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, तुम्हारे समस्त संगियों के भोजन की व्यवस्था के लिए मैं तुम्हें यह अक्षयपात्र देता हूँ; अनन्त प्राणियों को भोजन कराकर भी जब तक द्रौपदी भोजन नहीं करेगी, तब तक यह पात्र खाली नहीं होगा और द्रौपदी इस पात्र में जो भोजन बनाएगी, उसमें छप्पन भोग-छत्तीसों व्यंजनों का-सा स्वाद आएगा.’ जब वह पात्र मांज-धोकर पवित्र कर दिया जाता था और दोबारा उसमें भोजन बनता था तो वही अक्षय्यता उसमें आ जाती थी.
इस प्रकार इस अक्षयपात्र की सहायता से धर्मराज युधिष्ठिर के वनवास के बारह वर्ष ऋषि-मुनि, ब्राह्मणों, और वनवासी सभी व्यक्तियों की सेवा करते हुए सरलता से व्यतीत हो गए.  

Astro nirmal

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