गुप्त नवरात्रि देवी मां दुर्गा को समर्पित एक विशेष साधना काल है. इस दौरान मां दुर्गा की आराधना की जाती है, जिससे जीवन के संकटों का नाश होता है. आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से यह नवरात्रि प्रारंभ होती है, जो इस वर्ष 26 जून, गुरुवार को सूर्योदय से पूर्व ही शुरू हो जाएगी. गुप्त नवरात्रि में देवी के दस महाविद्या स्वरूपों की पूजा की जाती है. यह साधना आमतौर पर तांत्रिकों, अघोरियों और गूढ़ साधकों द्वारा की जाती है, किंतु गृहस्थ भक्त भी श्रद्धा और नियम से पूजन कर मनोकामना सिद्ध कर सकते हैं.
चैत्र और शारदीय नवरात्रि में जहां मां के नवदुर्गा रूपों की पूजा की जाती है, वहीं गुप्त नवरात्रि में काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, त्रिपुर भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला — इन दस महाविद्याओं की साधना का विधान है. यह साधना पूर्ण गोपनीयता और तपश्चर्या की मांग करती है. धार्मिक विश्वास है कि इस दौरान की गई साधना मन, बुद्धि और जीवन के समस्त विकारों का शमन कर दिव्य अनुभवों की ओर ले जाती है.
गुप्त नवरात्रि की शुरुआत इस बार विशेष योगों में हो रही है. गुरुवार को प्रतिपदा तिथि के साथ-साथ ध्रुव योग और सर्वार्थ सिद्धि योग का संयोग बन रहा है. सर्वार्थ सिद्धि योग सुबह 8 बजकर 46 मिनट से लेकर 27 जून की सुबह 5 बजकर 35 मिनट तक रहेगा. इस योग में किया गया पूजन विशेष फलदायी माना जाता है. कलश स्थापना के लिए शुभ मुहूर्त 26 जून को प्रातः 9 बजकर 9 मिनट से 11 बजकर 34 मिनट तक है. इसके अलावा 11 बजकर 34 मिनट से दोपहर 1 बजकर 24 मिनट तक भी शुभ समय रहेगा. प्रतिपदा तिथि का समापन उसी दिन दोपहर 1 बजकर 25 मिनट पर होगा.
गुप्त नवरात्रि में देवी पूजा की विधि अत्यंत विशिष्ट है. पूजा के लिए एक चौकी पर लाल या पीला वस्त्र बिछाकर देवी की मूर्ति स्थापित की जाती है. यह चौकी घर के उत्तर-पूर्व, पूर्व-मध्य या उत्तर-मध्य भाग में होनी चाहिए. कलश में शुद्ध जल और गंगाजल भरकर उसमें बतासे, दूर्वा, साबुत हल्दी, साबुत सुपारी डाली जाती है. आम या अशोक के सात या ग्यारह पत्ते कलश के चारों ओर लगाए जाते हैं और श्रीफल को मौली से बांधकर कलश पर स्थापित किया जाता है. गणेश जी, कुलदेवी, नवग्रह आदि को चावल की ढेरी के रूप में स्थापित कर पूजन प्रारंभ होता है.
पूरे नौ दिनों तक देवी की नियमित पूजा, दुर्गा सप्तशती का पाठ, आरती और दीपदान किया जाता है. जल, रोली, चावल, लौंग, गूगल, फल, पुष्प, माला, धूप और दीप से प्रतिदिन आराधना की जाती है. गायत्री मंत्र का 24 हजार बार जाप भी इस साधना का अंग है. कुश या ऊन के आसन पर पूर्व या उत्तर की ओर मुख कर बैठना आवश्यक बताया गया है. मान्यता है कि इस साधना से प्राप्त पुण्य सामान्य साधना की अपेक्षा कई गुना अधिक होता है.
गुप्त नवरात्रि से संबंधित अनेक पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं. देवी भागवत पुराण में वर्णित कथा के अनुसार जब भगवान विष्णु शयनकाल (चातुर्मास) में होते हैं, तब पृथ्वी पर रजोगुण और तमोगुण का प्रभाव बढ़ता है. देवताओं की शक्ति क्षीण हो जाती है, और राक्षसी शक्तियां सक्रिय हो जाती हैं. ऐसे समय में मां दुर्गा की गुप्त साधना से ही संतुलन स्थापित होता है. एक अन्य कथा के अनुसार मां छिन्नमस्ता ने अपनी भूखी सखियों की तृप्ति के लिए स्वयं का शीश काटकर उन्हें रक्तधारा प्रदान की थी. इसी स्वरूप की पूजा गुप्त नवरात्रि के छठे दिन विशेष रूप से की जाती है. ऋषि कात्यायन की कथा में बताया गया है कि उन्होंने माघ मास में नौ दिनों की विशेष साधना कर देवी के दस महाविद्या स्वरूपों के दर्शन किए थे और प्रत्येक स्वरूप से विशिष्ट ज्ञान और सिद्धि प्राप्त की थी.
गुप्त नवरात्रि का नाम ही इसकी गोपनीयता का प्रतीक है. यह पर्व उन साधकों के लिए विशेष महत्व रखता है जो अपने मन, शरीर और आत्मा को पूर्ण समर्पण के साथ देवी की साधना में लगाते हैं. शास्त्रों में कहा गया है कि यह काल विशेष रूप से ग्रह दोष, कुंडली के विघ्न, तांत्रिक बाधाओं और मानसिक अवरोधों के निवारण के लिए उपयुक्त है. इस साधना के माध्यम से न केवल आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त की जा सकती है, बल्कि सांसारिक समस्याओं से भी मुक्ति संभव है.
इस नवरात्रि को ‘गायत्री नवरात्रि’ भी कहा जाता है क्योंकि इस काल में गायत्री मंत्र की साधना को विशेष फलदायक माना गया है. उत्तर भारत के अनेक राज्यों — उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश — में यह पर्व गुप्त रूप से किन्तु अत्यंत श्रद्धा और शुद्धता के साथ मनाया जाता है. यह पर्व आत्मानुशासन, साधना और देवी कृपा प्राप्ति का एक दुर्लभ अवसर प्रदान करता है.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-