शून्य को विज्ञान, दर्शन तथा अन्य शास्त्रों ने विभिन्न नाम

शून्य को विज्ञान, दर्शन तथा अन्य शास्त्रों ने विभिन्न नाम

प्रेषित समय :20:00:24 PM / Sun, Jun 29th, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

शून्य के लिए प्रयुक्त शब्द: शून्य के लिए इन शब्दों का प्रयोग मिलता है: ख, गगन, अम्बर, आकाश, अन्तरिक्ष, अनन्त, तुच्छ्य, रिक्त, वशी, वशिक,  रिक्त, नभ पूर्ण .
  शून्य और शून शब्द : वेदों में शून्य और शून दोनों शब्दों का प्रयोग शून्य खाली, अभाव, रिक्तता (Empty Emptiness) अर्थ में हुआ है.
 "मा शूने भूम."
( ऋग्० १.१०५.३)
 (हम कभी अभावग्रस्त न हों ) 
"शून्यैषी निर्ऋते ."
( अ० १४.२.१९ . )
(दरिद्रता अभाव करती है .) 
"अशून्योपस्था ."
( छान्दोग्य ब्रा० १.१.११)
 ( गोदभरी, पुत्रादि से युक्त ) 
   शून्य और जीरो (Zero) का संबन्ध : भाषाविज्ञान की दृष्टि से शून्य, ज़ीरो और साइफर (Cipher, Cypher) ये शब्द परस्पर संबद्ध हैं. शून्य का दो प्रकार से विकास हुआ. शून्य शब्द का अरबी में अनुवाद हुआ सिफ्र. यह सिफ दो मार्गों से होता हुआ यूरोप पहुँचा और वहाँ साइफर और ज़ीरो हुआ .
शून्य क्या है ?
शून्य वस्तुतः विश्व के लिए एक पहेली है. इसका तात्त्विक विवेचन आज तक पूर्ण नहीं हुआ है. यह सृष्टि का आदि और अन्त है. इससे ही सृष्टि का प्रारम्भ होता है और इसमें ही लय होता है. इसको दार्शनिकों और वैज्ञानिकों ने अलग-अलग नाम दिए हैं. शून्य के लिए ही वेदों में 'ख' शब्द का प्रयोग हुआ है. 'ख' के अनेक अर्थ वेदों में दिए गए हैं. ख का अर्थ है आकाश, इन्द्रिय, रिक्त स्थान, छिद्र, द्वार, अन्तरिक्ष, स्वर्ग या देवलोक . जैसे...
 १. "खे रथस्य ."( ऋग्० ८.९१.७)
२." कः सप्त खानि वि ततर्द शीर्षणि."
 (रथ के छिद्र में) (अ० १०.२.६) किसने ७ इन्द्रियां बनाई ) 
३."अंग्धि खम् ."
(ऋग्० १०.१५६.३ )
(आकाश को जल से सिक्त करो ) 
४."विषाहि ... गृणते.. खम् ."
( ऋग्० ४.११.२)
 (हे अग्नि, भक्त को स्वर्ग दो) 
५."ओं खं ब्रह्म ."
(यजु० ४०.१७)
 (ब्रह्म आकाशवत् शून्य है) 
शून्य का मान : शून्य के विषय में एक सुन्दर श्लोक मिलता है. जिसका भाव है : अंक के साथ दाहिनी ओर शून्य रखने से उस अंक का मान दस गुना अधिक हो जाता है. अंकों को पढ़ने में दाहिने से बाईं ओर जाना होता है. अतः 'अंकानां वामतो गतिः' कहा गया है. 
"अंकेषु शून्यविन्यासाद्, वृद्धिः स्यात् तु दशाधिका . 
तस्माद् ज्ञेया विशेषेण, अंकानां वामनो गतिः .."
( समयोचितपद्यरत्नमालिका )
♂दशमलव स्थानमान पद्धति : यह पद्धति भारत का सर्वोत्कृष्ट आविष्कार है. इस पद्धति में १ से ९ तक के अंक हैं तथा दसवाँ शून्य है. इसमें केवल १० चिह्न हैं, जिनके स्थानिक मानों को दशम पद्धति पर मान देकर सभी संख्याओं को व्यक्त किया जा सकता है . यही पद्धति विश्व के समस्त सभ्य देशों में प्रयुक्त हो रही है शून्य के आविष्कार के कारण दश शत, सहस्र आदि संख्याओं को व्यक्त . करना संसार के सबसे बड़े आविष्कारों में एक गिना गया है.

गणित के मूर्धन्य विद्वान् प्रो० हाल्सटेड (G.B. Halsted) ने शून्य' की महत्ता का वर्णन करते हुए कहा है “शून्य के आविष्कार के महत्त्व की प्रशंसा कभी भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं कही जा सकती है. निरर्थक शून्य को केवल स्थान, संज्ञा, आकृति एवं संकेत ही नहीं, अपितु एक उपयोगी शक्ति प्रदान करना हिन्दू जाति की एक विशेषता है . यह निर्वाण के विद्युत् शक्ति में परिवर्तित करने के तुल्य है . गणितसंबन्धी कोई भी एक अविष्कार ज्ञान एवं शक्ति को आगे बढ़ाने में इतना प्रबल सिद्ध नहीं हुआ है.

"The importance of the creation of Zero-mark can never be exaggerated. This giving to airy nothing, not merely a local habitation and a name, a picture, a symbol, but helpful power, is the characteristic of the Hindurace whence it sprang. It is like coining the Nirvana into dynamos, No single mathematical creation has been more potent for the general on-go of intelligence and power." -G.B. Halsted - On the foundation and technique of Arithmetic. 1912, P. 20
हाल्सटेड का यह कथन सर्वथा सत्य है कि दशमलव स्थानमान पद्धति के आविष्कार ने शून्य को इतना अधिक महत्त्वपूर्ण बना दिया है कि यह निरर्थक समझा जाने वाला शून्य बहुमूल्य रत्न बन गया है. 

वेदों में अतएव अनन्त("अनन्तः ." ऋग्० १.११३.३) ,अपरिमित(अपरिमितो यज्ञः." अ० ९.५.२१),असंख्यात("असंख्याता सहस्राणि ये रुद्राः ." यजु० १६.५४),"असख्येय."("शतं सहस्रम् अयुतं न्यर्बुदम् असंख्येयम् ." अ० १०.८.२४),आदि शब्द शून्य स्थान के महत्व के बोध के लिए प्रयुक्त हुए हैं. कहीं पर ये शब्द ब्रह्म, शिव आदि के सूचक है और कहीं विभिन्न शक्तियों के लिए हैं. ऋग्वेद के एक मंत्र में 'दशान्तरुष्यादतिरोचमानम्' में दश (१०) के महत्त्व का वर्णन करते हुए कहा गया है कि इससे इसकी शक्ति गुप्त रूप से बहुत बढ़ती जाती है. 'दशान्तरुष्य' का अर्थ है दस की संख्या के कारण गुप्तरूप से शक्ति का बढ़ जाना अतएव सायण ने अर्थ किया है-
"अन्तरुष्यं गूढम् आवासस्थानम् . 
तच्च स्थानं दशसंख्योपेतम् . "
(सायण, ऋग्० १०.५१.३)

परार्ध और अवरार्ध : यजुर्वेद में एक से लेकर परार्ध तक की संख्याओं का उल्लेख है. परार्ध संख्या १८वां स्थान हैं. मंत्र में परार्ध शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण है. परार्ध का अर्थ है पर अर्थात् उत्कर्ष की ओर, अर्ध-आधा भाग . इसका अभिप्राय यह है कि धनात्मक संख्या एक (+१) से लेकर १८वें स्थान तक बढ़ते चले जाएँ तो प्रत्येक संख्या १० गुनी होती चली जाएगी. अतएव इनको 'दशगुणोत्तर संज्ञा' कहा गया है. परार्ध का अभिप्राय यह है कि १८ स्थान तक धनात्मक संख्याओं के जो ये नाम दिए गए हैं, वह पूरी संख्या का आधा भाग हैं. इसका आधा भाग 'ऋणात्मक संख्याएँ' हैं. इनको वेद में 'अवरार्ध' अर्थात् 'ऋणात्मक आधा भाग' कहा गया है. शतपथ ब्राह्मण में 'अवरार्धतः' और काण्व संहिता में 'अवरार्ध' का प्रयोग हुआ है. इसका अर्थ यह निकलता है कि जिस प्रकार १८ स्थान तक 'धनात्मक संख्याएँ' हैं, उसी प्रकार १८ स्थान तक 'ऋणात्मक संख्याएँ होंगी और उनको शत, सहस्र आदि के आधार पर शतांश, सहस्रांश, लक्षांश (१००वाँ, १०००वाँ आदि) कहा जाएगा. यह गुणा (गुना) के विरुद्ध भाग (हिस्सा) अर्थ बताएगा. परार्ध और अवरार्ध शब्द दशमलव (शून्य) से पूर्व और बाद का अर्थ बताते हैं. यजुर्वेद में 'अतिदीर्घ और 'अतिह्रस्व' दो शब्द आए हैं." अतिदीर्घ सूचित करता है कि बहुत बड़ी संख्या धनात्मक वृद्धि करते हुए 'परार्ध' तक जाएगी और 'अतिह्रस्व' बताता है कि बहुत छोटी संख्या ऋणात्मक रूप से घटते हुए "अवरार्ध' १०^-१७ तक जाएगी . 

शून्य का अभिप्राय: शून्य का अभिप्राय 'अभाव' या 'नहीं' समझना बहुत बड़ी भूल है .शून्य का अभिप्राय पाणिनि के एक सूत्र 'अदर्शनं लोप:' (अष्टा० १.१.६०) से स्पष्ट होता है. व्याकरण में 'लोप' शब्द का अर्थ होता है- किसी वर्ण आदि का हट जाना या अदृश्य होना . पाणिनि ने स्पष्ट किया है कि लोप होने का अभिप्राय है उस वर्ण आदि का अदर्शन ( अदृश्य) हो जाना, न कि उसका अभाव . इसी प्रकार 'शून्य' का अर्थ है- वहाँ पर कोई संख्या अदृश्य रूप में विद्यमान है, जिसको हम एक दो आदि अंकों से नहीं बता सकते हैं. यदि वस्तुतः शून्य का अर्थ 'अभाव' हो तो १०, १००, १००१ आदि संख्याएँ बन ही नहीं सकती हैं. हम १०, १०० और १००० को एक ही कहेंगे, दश, सौ, एक हजार नहीं, क्योंकि १ संख्या के आगे एक दो या तीन शून्यों का कोई अर्थ नहीं है, वे है ही नहीं . वास्तविकता यह है कि शून्य, कोई विशेष अंक न होने पर भी अपना स्थान बनाए हुए है और वह जिस स्थान पर है, उसका स्थानमान बताता है. नही तो १०१ और १००१ को ११ पढ़ा जाएगा.

शून्य का स्वरूप : शून्य का स्वरूप यजुर्वेद के 'ओं खं ब्रह्म' (यजु० ४०.१७) मंत्र से स्पष्ट होता है. 'ख' अर्थात् शून्य ब्रह्म का स्वरूप है. गणित में 'ख' या 'शून्य' उस अनन्त, अपरिमित, अपरिमेय या असंख्येयशक्ति (ऊर्जा, Energy) का प्रतीक है, जिससे समस्त अंकों और संख्याओं की उत्पत्ति हुई है. वह धनात्मक (Positive) और ऋणात्मक (Negative) शक्तियों में विभक्त होकर धनात्मक परार्ध और ऋणात्मक अवरार्ध को सूचित करता है. इसके लिए धन या योग (Plus, +) और वियोग या ऋण (Minus,-) का चिह्न देकर धनात्मक और ऋणात्मक बड़ी से बड़ी संख्या को बताया जा सकता है.

मूल ऊर्जा (Energy) के प्रतीक इस 

दिए हैं. यह धनात्मक और ऋणात्मक शक्तियों के बीच में विद्यमान एक अदृश्य शक्ति है, जिसको गणित में शून्य या दशमलव (Decimal) के चिह्न द्वारा सूचित किया जाता है. अन्य स्थानों पर शून्य, सैकड़ा, हजार, लाख आदि स्थानमान को सूचित करता है.

इससे ज्ञात होता है कि शून्य का ही धनात्मक विघटन एक, दो तीन आदि धनात्मक अंक है, और ऋणात्मक विघटन ऋणात्मक- १, -२,- ३ आदि दशमलव अंक है. 
शून्य और अनन्त : यजुर्वेद (४०.१७) में 'ओं खं ब्रह्म' कहकर शून्य को अनन्त और अपरिमेय बताया गया है. किसी भी संख्या में शून्य को जोड़ें, घटावें या गुणा करें तो उसका मान वही रहता है. उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता है . भास्कराचार्य द्वितीय (११५० ई०) ने सर्वप्रथम यह स्पष्ट किया है कि किसी भी संख्या को शून्य से भाग देने पर 'अनन्त' संख्या आती है. इस अनन्त राशि को ही 'खहर' कहा जाता है . 
"वधादौ वियत् खस्य खं खेन घाते .
 खहारो भवेत् खेन भक्तश्च राशिः .
 अयमनन्तो राशिः खहर इत्युच्यते ."
( बीजगणित श्लोक ३)
 भास्कर ने इस 'खहर' राशि की तुलना विष्णु (ब्रह्मा, अच्युत, ईश्वर) से की है. उसका कथन है : 
"अस्मिन् विकारः खहरे न राशौ - अपि प्रविष्टेष्वपि निःसृतेषु .
 बहुष्वपि स्याद् लय सृष्टि कालेऽ नन्तेऽच्युते भूतगणेषु यद्वत् ."
(बीज ० श्लोक ४ )
अर्थात् प्रलय और सृष्टि के समय अनन्त अच्युत (विष्णु) में समस्त प्राणियों के लीन एवं निर्गत होने पर जैसे उसमें कोई विकार नहीं होता, उसी प्रकार इस 'खहर' राशि में किसी राशि को घटाने, जोड़ने आदि से कोई विकार ( अन्तर, परिवर्तन) नहीं होता है . यही भाव निम्न श्लोक में भी मिलता है कि पूर्ण में से पूर्ण निकाल लेने पर भी पूर्ण ही बचता है, अर्थात् शून्य में से शून्य को निकाल लेने पर भी शून्य (पूर्ण) शेष बचता है. शून्य आकाश के तुल्य एक पूर्ण संख्या है. उसमें से घटाने आदि से कोई अन्तर नहीं पड़ता . 
"पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते .
 पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते .."
      (उपनिषदों में शान्तिपाठ)
#त्रिस्कन्धज्योतिर्विद्     

त्रिस्कन्धज्योतिर्विद् शशांक शेखर शुल्ब

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