पलपल संवाददाता, जबलपुर. एमपी के जबलपुर में कैमरे लगे हैं. उनके लेंस थानों की दीवारों से टकराते हैं. लॉकअप की दीवारों को निहारते हैं और कभी-कभी पीटे जा रहे किसी आरोपी की खामोश चीख को देख भी लेते हैं. लेकिन फिर भी व्यवस्था शांत रहती है. कैमरे चल रहे हैं लेकिन किसके लिए और किसके अधीन है.
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 2 दिसंबर 2020 को परमवीर सिंह सैनी बनाम बलजीत सिंह व अन्यश् आपराधिक रिट याचिका संख्या 330/2020, एआईआर 2021 एससी 64, के ऐतिहासिक फैसले में निर्देश दिया था कि देश के प्रत्येक पुलिस थाने और जांच एजेंसी कार्यालय में ऑडियो और वीडियो रिकॉर्डिंग सक्षम क्लोज्ड सर्किट टेलीविजऩ कैमरे लगाए जाएं और उनकी निगरानी के लिए राज्य स्तरीय और जिला स्तरीय समितियां गठित की जाएं जो न केवल कैमरों की कार्यशीलता पर निगाह रखें बल्कि हिरासत में अधिकारों के हनन की शिकायतों पर तत्पर कार्रवाई करें. यह आदेश कोई प्रशासनिक सुझाव नहीं था.
यह संविधान के अनुच्छेद 21 की आत्मा को टेक्नोलॉजी से जोडऩे का प्रयास था. जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी को डिजिटल साक्ष्य के माध्यम से संरक्षित करने का न्यायिक उपक्रम. परंतु आज 5 वर्ष बीत जाने के बाद हम एक बेजान प्रशासनिक असहमति के सामने खड़े हैं, कैमरे हैं, निगरानी करने वाली संस्थाएं जैसे ग़ायब हो गई हैं. मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार देश के कई प्रमुख राज्यों में ना तो राज्य स्तरीय समिति का कोई कार्यवृत्त सामने आता है. न जिला स्तर पर इन समितियों के गठन की सार्वजनिक जानकारी. किसी को यह नहीं पता कि ये समितियां बनीं भी हैं या नहीं. अगर बनी हैं तो उनके सदस्य कौन हैं. उन्होंने कौन से थानों का निरीक्षण किया, किन शिकायतों पर कितनी बार बैठकें कीघ् क्या उन्होंने कभी किसी सीसीसटीवी फुटेज की जांच की.
सूचना के अधिकार के तहत पूछे गए सवालों के जवाब चौंकाने वाले हैं, इस विषय की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है. यह केवल लापरवाही नहीं, यह न्यायिक आदेश की निर्मम अवमानना है. कैमरे जिन थानों में लगाए गए हैं वहां आज तक किसी शिकायतकर्ता को यह अधिकारिक रूप से नहीं बताया गया कि वह किस समिति से संपर्क करे. न थानों में कोई बोर्ड लगा है. न पुलिस कर्मियों को इसकी जानकारी है. ऐसे में प्रश्न यह नहीं है कि पारदर्शिता कहां है, प्रश्न यह है कि जवाबदेही किसकी है. क्या यह सुप्रीम कोर्ट के आदेश की हत्या नहीं है कि उस आदेश का कोई प्रभाव-निष्पादन तंत्र ही सामने नहीं आता, यह कैसे स्वीकार कर लिया गया कि निगरानी करने वाली संस्थाएं, जिन पर इस पूरी प्रणाली की विश्वसनीयता टिकी थी, वे स्वयं अज्ञात, अनुपस्थितए और अदृश्य हो जाएं. यदि सुप्रीम कोर्ट की निगाह इस पर नहीं गई तो अब जाना चाहिए.
यह किसी याचिका का प्रारूप नहीं बल्कि एक संवैधानिक आत्मा की पुकार है. यह सिर्फ प्रश्न नहीं उठाता कृ यह उस मौन को तोड़ता है जिसे व्यवस्था ने समिति के नाम पर रचा है पर जो वास्तविकता में कभी अस्तित्व में ही नहीं आई. अब आवश्यक है कि सर्वोच्च न्यायालय इस आदेश के अनुपालन की समीक्षा करे. राज्य सरकारों को बाध्य किया जाए कि वे निगरानी समितियों की स्थिति, संरचना, बैठकें, रिपोर्ट, निरीक्षणों का ब्यौरा सार्वजनिक करें. हर थाने में यह जानकारी प्रदर्शित हो कि नागरिक शिकायत कहां करें और कैमरे की रिकॉर्डिंग की मांग कैसे करें. क्योंकि अगर आदेश केवल आदेश रह जाएए और व्यवस्था केवल दिखावा तो लोकतंत्र केवल एक औपचारिकता बनकर रह जाता है. कैमरे दिखते हैं पर न्याय नहीं. समितियां घोषित हैं पर पहुंचा नहीं जा सकता. हिरासत में मौन है और जवाबदेही अनुपस्थित. इस स्थिति को बदलना होगा. क्योंकि अगर निगरानी करने वाली संस्थाएँ ही अदृश्य हों तो कैमरे किसके लिए और किससे जवाबदेह होंगे.
यह तकनीकी असफलता नही, संवैधानिक विश्वासघात है-
कैमरा तब तक न्याय का उपकरण नहीं बन सकता, जब तक उस पर नजऱ रखने वाली संरचना सक्रियए पारदर्शी और सुलभ न हो. जब कैमरे केवल देखने के लिए हों लेकिन उनके देखने की क्रियाविधि पर कोई निगरानी न हो तो वे मौन उपकरण बन जाते हैं. वे उस चुप्पी का हिस्सा हो जाते हैं. जहां अन्याय सिर्फ होता नहीं, बल्कि संरक्षित भी किया जाता है. यह चुप्पी बहुत गहरी है. यह उस व्यक्ति की चीख को निगल जाती है जिसे थाने में बिना सूचना के रोका गया. वह मां जो रात भर अपने बेटे के लिए थाने के बाहर रोती है, उसे यह जानने का कोई अधिकार नहीं कि कैमरा क्या देख रहा है. वह छात्र वह मजदूरए वह आदिवासी कार्यकर्ता, जिसे बिना कारण उठाया गया. उसके पास यह जानने का कोई माध्यम नहीं कि उसकी हिरासत की निगरानी कौन कर रहा है. इस पूरे तंत्र में सबसे बड़ा झूठ यही है कि निगरानी हो रही है. जबकि सच्चाई यह है कि निगरानी की निगरानी करने वाली समितियां ही अस्तित्वहीन हैं.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

