अनुपमा
भारत आज तेजी से विकास की ओर अग्रसर है. आर्थिक सुधारों, तकनीकी विस्तार और वैश्विक निवेश की संभावनाओं के बीच एक प्रश्न लगातार गूंजता है—क्या भारत आधी आबादी को साथ लेकर आगे बढ़ रहा है? इसका सीधा उत्तर है—नहीं पूरी तरह नहीं. आज भी भारत में महिला श्रमिक भागीदारी दर उस स्तर तक नहीं पहुंची है, जो विकसित या यहां तक कि अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले भी सम्मानजनक मानी जाए.
वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारत की स्थिति
2025 में किए गए Reuters के अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार, भारत की महिला श्रम भागीदारी दर 31.7% है. जबकि विकसित देशों में यह दर अक्सर 60-70% तक होती है. G20 देशों के औसत स्तर को छूने में भारत को अब भी 20 से 30 साल लग सकते हैं, यदि मौजूदा प्रगति की दर बनी रहे. यह आंकड़ा न केवल आर्थिक चिंता का कारण है, बल्कि यह सामाजिक और लैंगिक असमानता की भी गहरी झलक देता है.
क्या है श्रम भागीदारी?
महिला श्रम भागीदारी का अर्थ केवल नौकरी करना नहीं है, बल्कि औपचारिक अर्थव्यवस्था में उनकी सक्रिय और संरचित उपस्थिति से है—जिसमें उन्हें उचित वेतन, सुरक्षा, मातृत्व लाभ, स्वास्थ्य बीमा, और करियर ग्रोथ मिले.
सरकारी योजनाओं और सकारात्मक संकेतों की भूमिका
कुछ राज्यों में हालात बदले हैं. उत्तर प्रदेश इसका प्रमुख उदाहरण है, जहाँ 2017‑18 में महिला श्रमिक भागीदारी दर 14% थी, जो 2023‑24 में 36% हो गई है. यह बड़ी छलांग मिशन शक्ति, रात्रि पाली की अनुमति, बाल देखभाल केंद्रों की स्थापना और सुरक्षित कार्यस्थलों जैसे प्रयासों की देन है.
इसी प्रकार केंद्र सरकार के Skill Impact Bond (SIB) प्रोजेक्ट ने महिलाओं को स्किलिंग और रोजगार के नए अवसर दिए हैं. इस योजना में प्रशिक्षित युवाओं में 72% महिलाएं थीं, जिनमें से 75% को रोजगार मिला और 60% ने तीन महीने से ज्यादा अपनी नौकरी को बनाए रखा. इससे यह साबित होता है कि अगर महिलाओं को सही मंच और समर्थन मिले, तो वे श्रम शक्ति में समान रूप से भागीदार बन सकती हैं.
क्यों पिछड़ रही है भारत की महिलाएं?
सामाजिक दृष्टिकोण: आज भी लाखों परिवारों में महिलाओं के नौकरी करने को प्राथमिकता नहीं दी जाती, विशेष रूप से ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में.
कार्यस्थलों पर असुरक्षा और भेदभाव: महिलाओं के लिए पर्याप्त सेफ्टी, लचीलापन और मातृत्व अनुकूल सुविधाएं अभी भी नहीं हैं.
रोजगार के अवसरों की असमानता: औद्योगिक और तकनीकी क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी कम है, और पारंपरिक क्षेत्रों में भी काम की गुणवत्ता व वेतन स्तर बहुत कम है.
असंगठित क्षेत्र में महिलाओं का वर्चस्व: भारत में 90% से अधिक महिलाएं असंगठित क्षेत्र में काम करती हैं, जहां कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं होती.
सामाजिक प्रभाव और चिंता
कम श्रम भागीदारी का सीधा प्रभाव देश की GDP, पारिवारिक आय और महिला सशक्तिकरण पर पड़ता है. अगर भारत महिला श्रमिकों की संख्या को वैश्विक औसत तक ले जाए, तो इसके GDP में 27% तक की वृद्धि हो सकती है (McKinsey रिपोर्ट अनुसार).
इससे भी बड़ा संकट यह है कि नौकरी में न होने के कारण महिलाओं की आवाज़ कमजोर हो जाती है—नीतियों में, परिवार में, और समाज में.
समाधान क्या हैं?
औपचारिक रोजगार को बढ़ावा देना
– MSMEs और स्टार्टअप्स को महिला रोजगार के लिए टैक्स राहत दी जाए.
– महिलाओं के लिए रिमोट और फ्लेक्सी वर्क की व्यवस्था को वैधानिक रूप से बढ़ावा दिया जाए.
डिजिटल साक्षरता और प्रशिक्षण
– डिजिटल इंडिया के तहत महिलाओं को विशेष डिजिटल ट्रेनिंग दी जाए, जिससे वे घर से भी काम कर सकें.
महिला केंद्रित इनक्यूबेशन प्रोग्राम
– स्वरोजगार और उद्यमिता को बढ़ावा देने के लिए महिलाओं को सस्ते ऋण, ट्रेनिंग और मार्केटिंग सहायता दी जाए.
सामाजिक बदलाव
– शिक्षा से ही जेंडर संवेदनशीलता लानी होगी.
– पुरुषों को घरेलू ज़िम्मेदारियों में साझेदार बनाना होगा.
संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों में कानून का सख़्ती से पालन
– श्रम कानूनों को लागू करना और महिला कर्मचारियों की निगरानी के लिए स्वतंत्र समितियां बनाना आवश्यक है.
महिला श्रमिक भागीदारी केवल आर्थिक मुद्दा नहीं, बल्कि राष्ट्रीय समावेशन, सामाजिक न्याय और लोकतांत्रिक सशक्तिकरण का मापदंड भी है. भारत को अगर सच में विश्व गुरु बनना है, तो यह तभी संभव होगा जब उसकी आधी आबादी केवल वोटर या उपभोक्ता नहीं, बल्कि उत्पादक, निर्णायक और नेतृत्वकर्ता बने.
आज यह मुद्दा सिर्फ नीति या मंचों पर नहीं, सोशल मीडिया, कैंपस चर्चाओं और युवा संगठनों के एजेंडे पर है. यह दिखाता है कि नया भारत एक नई सोच चाहता है—जहाँ विकास का रास्ता पुरुष और महिला दोनों की साझेदारी से बने, न कि एक के बल पर.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

