अजय श्रीवास्तव की विशेष रिपोर्ट
नई दिल्ली. 31 जुलाई 2025 को संसद में देश की सुरक्षा और राजनीतिक रणनीति को लेकर अभूतपूर्व बहस देखने को मिली. बहस का केंद्र बिंदु रहा – ऑपरेशन सिंदूर. यह एक सैन्य-राजनयिक पहल है, जिसे सरकार ने हाल ही में पूर्वोत्तर और सीमावर्ती क्षेत्रों में आतंकी गतिविधियों के खिलाफ चलाया है. लेकिन संसद में यह केवल एक सैन्य विषय नहीं रहा, बल्कि सत्ता और विपक्ष के बीच तीव्र वैचारिक मुठभेड़ का कारण बन गया.
ऑपरेशन सिंदूर पर संसद में हुई यह बहस केवल रणनीतिक नहीं, बल्कि वैचारिक और नैतिक भी थी. यह दर्शाती है कि भारत में राष्ट्रीय सुरक्षा अब केवल नीति निर्माताओं और सैन्य अधिकारियों की बौद्धिक चौखट में नहीं सिमटी, बल्कि यह जनमत और राजनीतिक विमर्श की खुली ज़मीन पर आ चुकी है.
अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि सरकार इस ऑपरेशन के पूर्ण विवरण को कब और किस तरह सार्वजनिक करेगी, लेकिन संसद में जो वातावरण बना है, उससे तय है कि ऑपरेशन सिंदूर न केवल सीमाओं की लड़ाई है, बल्कि लोकतंत्र के भीतर भी एक गहरी बहस का केंद्र बन चुका है.
यह लोकतंत्र की सुंदरता है कि युद्ध नीति भी बहस के दायरे में आती है — लेकिन यह भी चुनौती है कि सुरक्षा और राजनीति की रेखा कहाँ खिंचनी चाहिए.
लोकसभा में सत्ता बनाम विपक्ष की भिड़ंत
लोकसभा में जैसे ही कार्यवाही शुरू हुई, सरकार की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने मिलकर ऑपरेशन सिंदूर पर सरकार का दृष्टिकोण रखा. उन्होंने इस ऑपरेशन को भारत की सुरक्षा नीति की दृढ़ता और साहसिक रणनीति का प्रतीक बताया. गृहमंत्री ने इसे "भारत के आत्मरक्षा के अधिकार" का स्पष्ट उदाहरण बताया, वहीं प्रधानमंत्री ने कहा कि अब भारत “प्रतिक्रिया नहीं, पहल की नीति” पर चल रहा है.
वहीं विपक्ष, विशेषकर कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और डीएमके ने इस ऑपरेशन पर सवाल खड़े किए. उनका कहना था कि सरकार इस सैन्य अभियान को "राजनीतिक सैन्यीकरण" का औजार बना रही है. कांग्रेस सांसदों ने तर्क दिया कि राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा, जिसे सैद्धांतिक, रणनीतिक और गुप्त रहना चाहिए, उसे जनसभाओं और चुनावी रैलियों में प्रचार की तरह पेश किया जा रहा है.
तृणमूल कांग्रेस के एक सांसद ने यहां तक कह दिया कि "सेना की वीरता का श्रेय सरकार लेने की होड़ में लगी है, जबकि जवानों के परिवार मुआवजे और सुविधाओं के लिए अब भी भटक रहे हैं."
राज्यसभा में बयानबाज़ी और विपक्षी बहिर्गमन
राज्यसभा में यह बहस और भी तीखी हो गई. गृहमंत्री अमित शाह ने बहस में भाग लेते हुए सीधा निशाना कांग्रेस पर साधा. उन्होंने कहा – "मैं गर्व से कहता हूँ, कोई भी हिंदू कभी आतंकवादी नहीं हो सकता. यह इस देश की सांस्कृतिक आत्मा के खिलाफ है." इस बयान ने विपक्ष को और भड़का दिया. कई विपक्षी सदस्यों ने इस वक्तव्य को साम्प्रदायिक रंग देने वाला बताया और सदन की कार्यवाही को बाधित किया.
इसके बाद विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने हस्तक्षेप करते हुए कांग्रेस के ऐतिहासिक विदेश नीति दृष्टिकोण पर सवाल उठाए. उन्होंने कहा कि "चीन और पाकिस्तान की बढ़ती नजदीकियों को कांग्रेस सरकारों ने बार-बार नज़रअंदाज़ किया. अब उसी ढीली विदेश नीति का परिणाम है कि भारत को सीमाओं पर दोहरी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है."
जयशंकर के इस विश्लेषण से यह स्पष्ट संकेत गया कि सरकार केवल वर्तमान में ही नहीं, अतीत की असफलताओं को भी मुद्दा बनाकर विपक्ष को कटघरे में खड़ा कर रही है.
लेकिन बहस का सबसे विवादास्पद मोड़ तब आया जब विपक्ष ने प्रधानमंत्री से राज्यसभा में सीधे जवाब देने की माँग की. 16 घंटे चली बहस के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सदन में उपस्थित होकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. इस चुप्पी को विपक्ष ने लोकतांत्रिक गरिमा के विरुद्ध बताते हुए सामूहिक रूप से सदन से वॉकआउट कर दिया.
क्या यह केवल रक्षा बहस थी?
ऑपरेशन सिंदूर को लेकर संसद में मचे इस राजनीतिक संग्राम को यदि हम गहराई से समझें, तो स्पष्ट होता है कि यह केवल एक सैन्य अभियान की समीक्षा नहीं थी. यह उस व्यापक विमर्श का हिस्सा है, जिसमें देश की सुरक्षा, राष्ट्रवाद, साम्प्रदायिकता और राजनीतिक पूँजीकरण – सभी गुथे हुए हैं.
सरकार जहां इस ऑपरेशन को ‘मजबूत भारत’ की छवि से जोड़ती है, वहीं विपक्ष इसे ‘चुनावी राष्ट्रवाद’ का प्रतीक मानता है. इस बहस में कहीं न कहीं सेना की भूमिका, उसकी राजनीतिक निष्पक्षता, और नीति निर्धारण में रक्षा विशेषज्ञों के स्थान को भी अप्रत्यक्ष रूप से चुनौती मिली.
विपक्ष का वॉकआउट: लोकतंत्र की शून्यता या रणनीति?
प्रधानमंत्री की चुप्पी और विपक्ष का वॉकआउट आने वाले समय में और भी बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन सकता है. यह बहस केवल राज्यसभा की दीवारों तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि राज्यों के चुनावी मंचों से लेकर मीडिया विमर्श और सोशल मीडिया ट्रेंड तक फैल जाएगी.
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि विपक्ष जानबूझकर इस बहस से बाहर होकर एक नैतिक स्थिति गढ़ना चाहता है, ताकि उसे जनता के समक्ष एक "अनसुनी आवाज़" के रूप में पेश किया जा सके. वहीं सत्ता पक्ष इस वॉकआउट को "बहस से भागने" और "देशहित के विरुद्ध" बता रहा है.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

