नई दिल्ली. संसद का मानसून सत्र इस बार एक असाधारण राजनीतिक और वैचारिक टकराव का गवाह बना. मुद्दा था — 'ऑपरेशन सिंदूर', सरकार द्वारा पूर्वोत्तर और सीमाई इलाकों में आतंकी गतिविधियों के खिलाफ छेड़ा गया सैन्य अभियान. लेकिन संसद में यह केवल सैन्य कार्रवाई पर चर्चा नहीं रही — यह बहस तेजी से धार्मिक विमर्श, विदेश नीति की समीक्षा और लोकतांत्रिक शिष्टाचार के उल्लंघन तक फैल गई. इस पूरे घटनाक्रम ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या भारत में अब राष्ट्रीय सुरक्षा भी राजनीति की प्रयोगशाला बन चुकी है?
बहस की शुरुआत: सुरक्षा या संप्रेषण?
गृहमंत्री अमित शाह ने जब राज्यसभा में जोर देकर कहा — “कोई हिंदू कभी आतंकवादी नहीं हो सकता, यह भारत की संस्कृति के विरुद्ध है,” तो यह कथन सीधे सुरक्षा विमर्श को सांस्कृतिक-धार्मिक पहचान से जोड़ता प्रतीत हुआ. यह एक तरह से उस पूर्ववर्ती राजनीतिक विमर्श पर पलटवार था, जिसमें "हिंदू आतंकवाद" शब्द उछाला गया था. शाह का यह कथन न केवल सांस्कृतिक अस्मिता की पुनर्परिभाषा का प्रयास था, बल्कि एक सुस्पष्ट राजनीतिक संदेश भी: भारत की सुरक्षा नीतियों को अब सांस्कृतिक चेतना और गौरव से जोड़कर देखा जाएगा.
शाह ने अपने बयान में कांग्रेस पर यह आरोप भी लगाया कि उसने बार-बार देश की सुरक्षा को “राजनीतिक फुटबॉल” की तरह इस्तेमाल किया और आतंरिक खतरों को मजहबी रंग देकर समाज में भ्रम और विभाजन पैदा किया.
विदेश नीति का पलटवार: अतीत की छाया में वर्तमान
सुरक्षा की इस बहस को और तीखा बनाया विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर के उस बयान ने, जिसमें उन्होंने स्पष्ट कहा कि “चीन और पाकिस्तान की बढ़ती नज़दीकी कांग्रेस की विदेश नीति की विफलता का परिणाम है.” उनका आशय था कि जिस द्विपक्षीय खतरे से आज भारत जूझ रहा है, उसकी नींव दशकों पूर्व उस समय पड़ चुकी थी, जब कांग्रेस ने रणनीतिक संतुलन की अनदेखी की और सीमाई देशों के साथ रिश्तों को समय रहते नहीं साधा.
यह बयान भारत की वर्तमान विदेश नीति को “आक्रामक लेकिन यथार्थवादी” कहने वाले मतों को बल देता है, और अतीत की सरकारों को कटघरे में खड़ा करता है. लेकिन आलोचकों का कहना है कि यह बयान वास्तविक कूटनीतिक चुनौती के हल की बजाय, राजनीतिक दायित्व स्थानांतरण का प्रयास था.
प्रधानमंत्री की चुप्पी और विपक्ष का आक्रोश
बात तब और गरम हो गई जब 16 घंटे तक चले चर्चा के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सदन में कोई सीधा उत्तर नहीं दिया. कांग्रेस समेत INDIA गठबंधन के दलों ने इसे “लोकतांत्रिक मर्यादाओं का उल्लंघन” बताया और सामूहिक वॉकआउट कर दिया.
विपक्ष का आरोप था कि ऐसे अहम मुद्दे पर प्रधानमंत्री का मौन रहना न केवल सदन का अपमान है, बल्कि जनता की अपेक्षाओं की भी उपेक्षा है. उनकी मांग थी कि जब इस सैन्य अभियान को “देश की गरिमा” और “निर्णायक मोड़” बताया जा रहा है, तब देश को यह जानने का पूरा हक है कि प्रधानमंत्री की सोच क्या है और आगे की योजना क्या होगी.
सेना और सियासत: सीमाओं की लकीरें धुंधली?
विपक्ष ने यह भी प्रश्न उठाया कि क्या अब सेना के अभियान भी राजनीतिक लाभ के लिए मंचित किए जा रहे हैं? बार-बार “सेना को खुली छूट” जैसे वाक्य, प्रचारित किए जा रहे विजुअल्स और प्रधानमंत्री द्वारा अभियान का उल्लेख जनसभाओं में करना — इन सबका अर्थ क्या केवल राष्ट्रगौरव है, या इसके पीछे रणनीतिक चुनावी सोच भी है?
विश्लेषकों का मानना है कि यदि सेना की कार्रवाइयों को खुलकर सियासी विमर्श में शामिल किया गया, तो सेना की तटस्थता और निष्पक्षता पर गंभीर सवाल खड़े हो सकते हैं. यह लोकतंत्र की संस्थागत संरचना के लिए शुभ संकेत नहीं होगा.
भावनाओं की बुनियाद पर नीति विमर्श?
संसद में बहस में जिस तरह के नारे, आरोप और सांस्कृतिक-धार्मिक विमर्श उभरे, उससे यह स्पष्ट है कि नीति निर्धारण का मंच अब भावनात्मक नैरेटिव के आगे झुकता प्रतीत होता है. जहां सत्ता पक्ष राष्ट्रीय सुरक्षा को "सांस्कृतिक चेतना" से जोड़कर प्रस्तुत कर रहा है, वहीं विपक्ष इसे जवाबदेही और प्रक्रियात्मक पारदर्शिता की मांग में बदलना चाहता है.
निष्कर्ष: सुरक्षा का विमर्श या सत्ता का विमर्श?
तीनों मुख्य बयानों — शाह का सांस्कृतिक दावा, जयशंकर का कूटनीतिक आरोप, और विपक्ष का संसदीय विरोध — ने यह दर्शाया कि अब भारत में सुरक्षा, धर्म, कूटनीति और राजनीति एक-दूसरे से इतने घनिष्ठ रूप से जुड़ गए हैं कि किसी एक को अन्य से अलग करके नहीं देखा जा सकता.
ऑपरेशन सिंदूर अब केवल एक सैन्य अभियान नहीं है — यह एक वैचारिक अभियान भी है, जिसमें सत्ता पक्ष अपनी "नई भारत" की परिकल्पना गढ़ रहा है, और विपक्ष उसमें लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण की आहट देख रहा है.
यह संसद सत्र समाप्त होगा, लेकिन यह बहस यहीं नहीं रुकेगी — यह आने वाले चुनावों, जनसभाओं और सोशल मीडिया के विमर्श में गहराई से गुंजती रहेगी.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

