विशेष संवाददाता, नई दिल्ली. सुप्रीम कोर्ट ने 1 अगस्त 2025 को एक महत्वपूर्ण निर्णय में उस जनहित याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें राजनीतिक दलों को यौन उत्पीड़न से संरक्षण अधिनियम (POSH), 2013 के अंतर्गत लाने की मांग की गई थी. यह याचिका अधिवक्ता शोभा गुप्ता द्वारा दायर की गई थी. शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि इस विषय में हस्तक्षेप करना न्यायपालिका के क्षेत्र में नहीं आता, बल्कि यह विधायिका का विषय है.
न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की खंडपीठ ने सुनवाई के दौरान यह स्पष्ट किया कि राजनीतिक दलों को POSH एक्ट के अंतर्गत लाने के लिए कानून में संशोधन करना पड़ेगा, जो संसद का विशेषाधिकार है. कोर्ट ने याचिकाकर्ता को सुझाव दिया कि यदि वे इस विषय पर गंभीर हैं, तो उन्हें या तो केरल उच्च न्यायालय के पूर्व निर्णय के खिलाफ विशेष अनुमति याचिका (SLP) दाखिल करनी चाहिए या फिर महिला सांसदों के माध्यम से इस मुद्दे पर निजी विधेयक संसद में प्रस्तुत करने का प्रयास करना चाहिए.
अधिवक्ता शोभा गुप्ता द्वारा दायर की गई याचिका में तर्क दिया गया था कि राजनीतिक दलों में भी बड़ी संख्या में महिलाएं कार्यरत होती हैं, जिनके लिए सुरक्षित और सम्मानजनक कार्यस्थल सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है. लेकिन वर्तमान में उनके लिए न तो कोई आंतरिक शिकायत समिति (ICC) है और न ही POSH अधिनियम के अंतर्गत कोई स्पष्ट सुरक्षा तंत्र.
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि POSH अधिनियम पहले से ही उन सभी संस्थानों पर लागू होता है जहां दस या अधिक कर्मचारी कार्यरत हैं, लेकिन राजनीतिक दलों को इस श्रेणी में अभी तक शामिल नहीं किया गया है. अदालत ने इसे 'नीतिगत मामला' बताते हुए किसी प्रकार की न्यायिक व्याख्या से इनकार कर दिया और याचिका को अनुमति सहित खारिज कर दिया.
यह निर्णय संविधान में निहित शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को भी रेखांकित करता है, जिसमें न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका की सीमाएं स्पष्ट की गई हैं. सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि वह अपनी सीमाओं का उल्लंघन नहीं करेगा, भले ही मामला सामाजिक दृष्टि से कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो.
यह मामला इस दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है कि पिछले वर्षों में कई महिला कार्यकर्ताओं और नेताओं द्वारा राजनीतिक दलों में यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए गए हैं, लेकिन अधिकतर मामलों में कोई प्रभावी जांच या कार्रवाई नहीं हो पाई है. ऐसे में यह याचिका उन महिलाओं के लिए एक संभावित सुरक्षा तंत्र तैयार करने की दिशा में प्रयास मानी जा रही थी.
हालांकि कोर्ट ने हस्तक्षेप करने से मना कर दिया, लेकिन उसने विधायिका और समाज के लिए यह संकेत अवश्य दिया है कि यह एक गंभीर और विचारणीय मुद्दा है. विशेषज्ञों का मानना है कि यदि राजनीतिक दल महिलाओं के सशक्तिकरण की बात करते हैं, तो उन्हें अपने आंतरिक ढांचे में भी POSH जैसे कानूनों को स्वेच्छा से लागू करने का प्रयास करना चाहिए.
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई लोकतांत्रिक देशों में राजनीतिक संगठनों के लिए यौन उत्पीड़न के मामलों में आंतरिक शिकायत प्रणाली अनिवार्य की गई है. भारत में भी अब इस दिशा में ठोस पहल की आवश्यकता महसूस की जा रही है, ताकि राजनीति में कार्यरत महिलाओं को भी अन्य क्षेत्रों की तरह समान अधिकार और सुरक्षा मिल सके.
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न केवल एक कानूनी सीमा को रेखांकित करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि सामाजिक और संस्थागत सुधार की दिशा में विधायिका और राजनीतिक इच्छाशक्ति की भूमिका कहीं अधिक महत्वपूर्ण है.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-




