माता पार्वती की आग्रह को सम्मान देकर उन्हें महायोगेश्वर शिव जी ने योग- शास्त्र का एक विशेष अंश 'स्वरोदय तंत्र' के बारे में विस्तार से समझाए थे. गुरु- परम्परा से योग- साधकों ने इस स्वर- योग को उज्जीवित करके रखे हैं और अब इस योग या तंत्र शास्त्र "शिव स्वरोदय"/ "पवनविजय स्वरोदय"/ "The Science of Breathe" आदि -- ऐसे कई नाम से परिचित है. स्वर- साधना करने के लिए आग्रही व्यक्ति किसी अनुभवी गुरु या साधक के साथ कुछदिन रहकर, प्रैक्टिकल प्रशिक्षण ले सकते तो सफलता पाने की राह सहज- सरल हो जाता है. जंहा यह सुविधा पाना सम्भव नहीं, वंहा शिव जी को गुरु मानकर, शास्त्र से उपलब्ध नियमों के अनुसार साधक खुद कोसिस कर सकता है..
प्राणी जबतक जीवित है, अपनी नासाद्वार माध्यम फेंफड़े को श्वास- प्रश्वास क्रिया में चालू रखता है. इसी श्वास क्रिया बिल्कुल बन्द होना ही उनके लिए मृत्यु का लक्षण है. स्वरोदय- विज्ञान के अनुसार बामनासाद्वार को "इड़ा"/ चन्द्रनाड़ी, दक्षिणनासाद्वार को "पिंगला"/ सूर्यनाडी और दोनों द्वार को मिलाकर "सुषुम्ना नाड़ी" नाम से चिन्हित किया जाता है. सुषुम्ना नाडी का मतलब, जब एक साथ दोनों नासाछिद्र में श्वास प्रवाहित होती है..
प्रातः काल में जागने का समय स्वर प्रवाह को जांच करना जरूरी है. क्योंकि शुक्ल व कृष्ण पक्ष भेद में स्वर यानी श्वासक्रिया अलग- अलग नियम में चलती है. प्रातः काल में जो स्वर जिस नासाछिद्र के माध्यम चलती है, लगभग एक घण्टे के अंतर में वही स्वर दूसरे नासा छिद्र से प्रवाहित होती है और अहोरात्र ऐसी क्रम चलती रहती है. इस क्रम में परिवर्त्तन होना ही आनेवाले कुछ विमारी की लक्षण है. इसीलिए स्वर- प्रवाह- नियम में व्यतिक्रम होने से स्वर- प्रवाहित छिद्र से दूसरे छिद्र को श्वास- परिवर्त्तन के लिए, स्वर- प्रवाहित- छिद्र को कुछ समय तक रुई से बंद कर सकते है. ऐसा करने से एक छिद्र से दूसरे छिद्र को सहज तरीके से स्वर बदलती है. उपलब्ध स्वरतंत्र- नियम के अनुसार--
शुक्ल पक्ष में १, २, ३, ७, ८, ९, १३, १४,१५ तिथियों को प्रातः काल में शय्या त्याग के समय चन्द्र नाडी अर्थात बायें स्वर का संचार होता है . और इसी प्रकार ४, ५, ६, १०, ११, १२ तिथयों को सूर्य नाडी अर्थाय दायें स्वर का संचार होता है..
कृष्ण पक्ष में १, २, ३, ७, ८, ९,१३,१४,१५ तिथियों को प्रातः शय्या त्याग के समय सूर्य नाड़ी अर्थात दाहिने स्वर का संचार होता है. इसी प्रकार ४, ५, ६, १०, ११, १२ तिथियों को चन्द्र नाड़ी में स्वर का संचार होता है..
(कभी- कभी तिथि के घटने पर दो दिन में और तिथि के बढ़ने पर चार दिन में भी स्वर बदल जाते हैं. कुछ दिन लक्ष्य करने से ये बात साफ हो जाता है.. )
शास्त्रोपदेश में शीतल प्रकृति चन्द्र स्वर में सभी प्रकार के सौम्य, स्थिर और शुभ कार्य करना प्रशस्त. क्योंकि यह स्वर गर्मी और पित्त प्रकोप से रक्षा करता है. ऐसे शीतल प्रकोप का सफल प्रतिरोधक उष्म प्रकृति सूर्य- स्वर में सभी प्रकार के दैनन्दिन कार्य करने का नियम है. इस स्वर में भोजन करना, औषधि बनाना, विद्या और संगीत का अभ्यास आदि कार्य सफल होते हैं..
जब दोनों छिद्र में स्वर अर्थात श्वास एक साथ चलें तो इसको सुषुम्ना- स्वर कहा जाता है. ऐसे स्वर- प्रवाह समय में जप, ध्यान, धारणा, समाधि, प्रभुस्मरण या कीर्तन, मन्त्र साधना आदि आध्यात्मिक कार्य करना चाहिए..
स्वर- प्रवाह से अच्छी जानकारी रखने वाले, प्रवाह के अनुसार अपना कार्य निर्वाह करते हैं. साधारण लोग भी घर से बाहर जाते समय जो स्वर चल रहा है, उसी दिशा का पैर और हाथ चलाते हुए घर से निकलें तो उनका हर कार्य में सफलता सम्भव है. ऐसे, किसी को प्रभावित करना है तो स्वर प्रवाहित दिशा में उनको रखकर बातचित करना लाभप्रद है. स्वरज्ञान को लेकर उपलब्ध कुछ ग्रन्थों में बहुत कुछ जनहितकारी टोटके है..
शिव स्वरोदय सिर्फ एक योग/ तंत्र नहीं, एक कल्याण द्वेतक विज्ञान है. इसके सहायता से नाड़ी- शोधन आदि प्राणायम योग तो बनता है, हठयोग में भी कुछ हदतक उत्कर्ष साधन भी सम्भव होते है..
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

