जब हिमालय ने चुप्पी तोड़ी और हमने तैयारी में चूक की भारी कीमत चुकाई

जब हिमालय ने चुप्पी तोड़ी और हमने तैयारी में चूक की भारी कीमत चुकाई

प्रेषित समय :21:31:41 PM / Thu, Aug 7th, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

उत्तराखंड की आपदा पर विशेष रिपोर्ट

उत्तरकाशी ज़िले के धाराली कस्बे में दोपहर के वक़्त सब कुछ सामान्य था. बादल छाए थे, पर यह तो पहाड़ों की रोजमर्रा की तस्वीर है. अचानक, एक भयंकर जलधारा आसमान से सीधे उतरती हुई घाटी में घुस आई. लोगों को संभलने तक का मौका नहीं मिला—घर, दुकान, सड़कें, पुल सब बह गए.

स्थानीय लोगों ने पहले इसे सामान्य बादल फटना समझा, पर जब पानी का रंग गाढ़ा हुआ, ज़मीन कांपी और आवाज़ें तेज़ हुईं, तो स्पष्ट हो गया—यह एक और जलवायु जनित आपदा थी.

क्या यह वाकई अचानक था
यह सवाल अब ज़रूरी हो गया है कि क्या ये आपदा वास्तव में अचानक आई, या यह उसी विनाश की कड़ी थी जिसकी चेतावनी विज्ञान और पर्यावरणविद सालों से दे रहे थे—पर हमने उसे लगातार नज़रअंदाज़ किया.

मानसून की दिशा बदली और खतरा बढ़ा
जलवायु विशेषज्ञ बताते हैं कि अब मानसून का मिज़ाज बदल चुका है. अरब सागर की गर्म हवाएं, मध्य एशिया के तापमान में उछाल और दक्षिण-पश्चिमी मानसूनी हवाओं की दिशा में बदलाव—ये तीनों मिलकर उत्तर भारत के हिमालयी क्षेत्रों में उथल-पुथल मचा रहे हैं.

Cumulonimbus बादलों से बनती है तबाही की लकीर
स्कायमेट वेदर के वरिष्ठ मौसम वैज्ञानिक महेश पलावत कहते हैं, “गर्म समुद्री हवा जब भारी नमी लेकर हिमालय से टकराती है, तो विशाल Cumulonimbus बादल बनते हैं, जो 50,000 फीट तक ऊंचे हो सकते हैं. इनके फटने पर पूरी घाटी में मौत बरस सकती है.”

ग्लेशियर पीछे हटे और ज़मीन अस्थिर हुई
DRDO और पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि हिमालय के प्रमुख ग्लेशियर हर साल औसतन 15–20 मीटर पीछे हट रहे हैं:

गंगा बेसिन: 15.5 मीटर/वर्ष

सिंधु बेसिन: 12.7 मीटर/वर्ष

ब्रह्मपुत्र बेसिन: 20.2 मीटर/वर्ष

Wadia Institute of Himalayan Geology के अनुसार, जैसे-जैसे ग्लेशियर पिघलते हैं, नीचे की ज़मीन ढीली होती जाती है, जिससे अचानक बनने वाली झीलों के टूटने का खतरा बढ़ता है. Karakoram और Hindu Kush क्षेत्रों में 2018 तक 127 बड़े ग्लेशियर-जनित भूस्खलन रिकॉर्ड किए गए.

अब हिमालय चेतावनी नहीं जवाब दे रहा है
IPCC की Cryosphere रिपोर्ट के अनुसार, हर 1 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने पर वर्षा की तीव्रता 15% तक बढ़ जाती है—यह सामान्य परिस्थितियों की तुलना में दोगुनी दर है. Zero-degree isotherm यानी बर्फबारी की ऊंचाई अब ऊपर खिसक गई है—जिससे बर्फ के स्थान पर बारिश हो रही है, और वह बारिश पूरे पहाड़ को बहा ले जाती है.

अंधाधुंध विकास ने विनाश को न्योता दिया
केदारनाथ (2013), ऋषिगंगा (2021) और अब धाराली (2025)—तीनों आपदाओं की एक जैसी पृष्ठभूमि है:
नीतिगत चूक और लापरवाह विकास.

दून यूनिवर्सिटी के भूगर्भ विज्ञानी प्रोफेसर वाईपी सुंद्रियाल कहते हैं, “हिमालय अभी भूगर्भीय रूप से अधपका है, और हम इसमें सड़कें, होटल, सुरंगें और बांध बना रहे हैं, जैसे यह कोई स्थिर पठार हो. यहां की हर बारिश अब खतरा बन चुकी है.”

समाधान मौजूद हैं लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं
IIT मुंबई के जलवायु वैज्ञानिक डॉ. सुभीमल घोष का मानना है कि जैसे हमने चक्रवातों के लिए चेतावनी तंत्र तैयार किया है, वैसे ही हमें पहाड़ी इलाकों के लिए भी Floodplain Zoning, Early Warning Systems और खतरों के लेवल पर आधारित विकास नीति बनानी चाहिए.

ISB के प्रोफेसर अंजल प्रकाश, जो IPCC रिपोर्ट के लेखक भी हैं, कहते हैं, “हमें Automatic Weather Stations (AWS) का जाल फैलाना होगा. हर घाटी, हर जलग्रहण क्षेत्र की नब्ज़ हमें पढ़नी होगी, तभी समय रहते अलर्ट जारी हो पाएंगे.”

कहानियों में दर्ज है नुकसान की सच्चाई
हर बार जब कोई घर बहता है, कोई बच्चा स्कूल नहीं पहुंच पाता या कोई किसान अपनी ज़मीन छोड़ता है, वह सिर्फ मौसम की मार नहीं होती—वह हमारी नीतिगत अक्षमता की गवाही होती है.

हिमालय अब कोई चुप रहने वाला पहाड़ नहीं रहा, वह हर मानसून में हमें झकझोर रहा है—
“अब और नहीं. अब सीखो.”

अब सवाल यही है
क्या हम तैयार हैं?
या अगली बार फिर किसी और धाराली की बारी होगी?

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-