त्रिपुरा की राजनीति में हाल ही में एक विवाद ने पुनः जातीय पहचान और सोशल मीडिया की भूमिका को उजागर किया है. विवाद की शुरुआत TIPRA Motha पार्टी के नेता डेविड मुरासिंग द्वारा सोशल मीडिया पर साझा की गई एक पोस्ट से हुई, जिसमें उन्होंने बंगाली समुदाय पर आदिवासी—खासकर त्रिपुरी महिलाओं—के विरुद्ध कथित अत्याचार का आरोप लगाया. यह बयान तुरंत वायरल हो गया और राज्य में जातीय तनाव बढ़ गया.
राज्य सरकार, विपक्षी दलों और सामाजिक संगठनों के बीच तीखी प्रतिक्रियाएँ देखने को मिलीं. भाजपा ने इसे राजनीतिक लाभ के लिए भड़काऊ बयानबाज़ी करार दिया, जबकि कांग्रेस ने सरकार की कार्रवाई को दोषी बताते हुए गहरी क्षतिग्रस्त संवैधानिकता की ओर इशारा किया. दूसरी ओर, TIPRA Motha ने दावा किया कि मुरासिंग की पोस्ट पार्टी की आधिकारिक राय नहीं है.
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में, त्रिपुरा में जातीय तनाव नया नहीं है—1980 और 1990 के भ्रमण में, हिंसक संघर्ष और विस्थापन की घटनाएँ हुई थीं, जिसने सामाजिक ध्रुवीकरण को जन्म दिया था.
सोशल मीडिया पर बहस गरम है—#TripuraRow और #StopHateSpeech जैसे हैशटैग ट्विटर (एक्स), फेसबुक, इंस्टाग्राम पर ट्रेंड कर रहे हैं. आदिवासी समर्थक इसे "धक्का मारने वाला पुराना दर्द" कह रहे हैं, जबकि बंगाली युवा इसे समुदाय को बदनाम करने की कोशिश बता रहे हैं.
त्रिपुरा का राजनीतिक इतिहास बंगाली और आदिवासी समुदायों के बीच जटिल रिश्तों से भरा हुआ है. 1949 में त्रिपुरा के भारत में विलय से लेकर आज तक यह राज्य सांस्कृतिक पहचान, जनसंख्या संतुलन और सत्ता-साझेदारी के मुद्दों से जूझता रहा है. आदिवासी बहुल राज्य धीरे-धीरे बंगाली प्रवासियों की अधिकता से प्रभावित हुआ, और आज राज्य की राजनीति में दोनों समुदायों की उपस्थिति निर्णायक भूमिका निभाती है. यही पृष्ठभूमि इस विवाद को और भी संवेदनशील बना देती है.
मुरासिंग का सोशल मीडिया पोस्ट वायरल होते ही बंगाली संगठनों ने इसका कड़ा विरोध किया. उनका कहना था कि इस तरह के बयान न केवल समुदायों के बीच नफरत फैलाते हैं बल्कि कानून और व्यवस्था को भी बिगाड़ सकते हैं. विपक्षी दलों, खासकर भाजपा और कांग्रेस ने भी इस मुद्दे को हाथों-हाथ लिया. भाजपा ने इसे “राजनीतिक लाभ के लिए की गई भड़काऊ बयानबाज़ी” बताया जबकि कांग्रेस ने आरोप लगाया कि राज्य सरकार ऐसे बयानों पर कार्रवाई करने में कमजोर साबित हो रही है.
टिपरा मोथा, जिसने 2021 के त्रिपुरा विधानसभा चुनावों के बाद से आदिवासी राजनीति में अपनी मजबूत पकड़ बना ली है, हमेशा से ‘ग्रेटर टिपरालैंड’ की मांग उठाता रहा है. यह पार्टी लगातार आदिवासी पहचान और अधिकारों की बात करती है. ऐसे में मुरासिंग का बयान उसी लाइन का विस्तार माना जा सकता है. लेकिन सोशल मीडिया के माध्यम से इसे जिस तरह से प्रस्तुत किया गया, उसने विवाद को और भड़का दिया. अब राज्य के कानून-व्यवस्था की स्थिति पर भी सवाल उठ रहे हैं.
बंगाली–आदिवासी विवाद नया नहीं है. 1980 के दशक में त्रिपुरा ने बड़े पैमाने पर जातीय हिंसा देखी थी, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए और हजारों विस्थापित हुए. उसके बाद से राज्य की राजनीति में शांति बनाए रखने की कोशिशें होती रही हैं, लेकिन समय-समय पर ऐसे बयान और घटनाएँ पुराने जख्मों को कुरेद देती हैं. मुरासिंग के पोस्ट ने ठीक वही किया. सोशल मीडिया पर कई उपयोगकर्ताओं ने इसे भड़काऊ और गैर-जिम्मेदाराना करार दिया.
राज्य सरकार के सामने अब चुनौती है कि वह इस विवाद को कैसे संभाले. मुख्यमंत्री माणिक साहा ने बयान दिया कि किसी भी तरह की जातीय नफरत फैलाने वाले बयानों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और पुलिस को आवश्यक कार्रवाई करने का निर्देश दिया गया है. हालांकि, विपक्ष का आरोप है कि भाजपा आदिवासी वोट बैंक को खोने से डर रही है इसलिए कड़ी कार्रवाई से बच रही है. दूसरी ओर, टिपरा मोथा पार्टी ने कहा कि मुरासिंग का बयान उनकी व्यक्तिगत राय थी, न कि पार्टी का आधिकारिक रुख.
मीडिया और राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि त्रिपुरा में यह विवाद आने वाले स्थानीय निकाय और विधानसभा चुनावों की राजनीति पर असर डाल सकता है. आदिवासी इलाकों में टिपरा मोथा की पकड़ मजबूत है, वहीं बंगाली बहुल क्षेत्रों में भाजपा और कांग्रेस का सीधा मुकाबला है. यदि जातीय विभाजन और बढ़ता है, तो इसका फायदा किसी एक दल को मिल सकता है. इसीलिए राजनीतिक दल इस मुद्दे पर अपने-अपने तरीके से सक्रिय हो गए हैं.
सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाएँ भी दिलचस्प हैं. कई आदिवासी युवाओं ने मुरासिंग के बयान का समर्थन किया और कहा कि ऐतिहासिक रूप से उनके समुदाय के साथ अन्याय हुआ है. वहीं, बंगाली युवाओं ने इसे “समुदाय को कलंकित करने की कोशिश” बताया. ट्विटर (अब एक्स), फेसबुक और इंस्टाग्राम पर इस विवाद को लेकर तीखी बहसें हो रही हैं. हैशटैग #TripuraRow और #StopHateSpeech लगातार ट्रेंड कर रहे हैं.
इतिहासकारों का मानना है कि त्रिपुरा के लिए जातीय संतुलन हमेशा से एक संवेदनशील मुद्दा रहा है. 1947 के विभाजन के बाद और बांग्लादेश मुक्ति युद्ध (1971) के दौरान बड़ी संख्या में बंगाली शरणार्थी त्रिपुरा आए. इससे जनसंख्या अनुपात बदल गया और आदिवासी समुदाय धीरे-धीरे अल्पसंख्यक स्थिति में चला गया. इस बदलाव से उपजी असुरक्षा की भावना ने समय-समय पर संघर्ष को जन्म दिया. इस पृष्ठभूमि में जब भी कोई नेता भड़काऊ बयान देता है, तो तनाव बढ़ना स्वाभाविक है.
इस विवाद ने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या सोशल मीडिया अब राजनीतिक हथियार बनता जा रहा है? पहले जहां बयान मंचों और सभाओं तक सीमित रहते थे, वहीं आज हर पोस्ट लाखों-करोड़ों लोगों तक तुरंत पहुँच जाती है. मुरासिंग का पोस्ट इसी ट्रेंड का हिस्सा है, जिसने कुछ ही घंटों में पूरे राज्य और देश भर में राजनीतिक चर्चा को हवा दे दी.
कुछ विश्लेषकों का कहना है कि इस विवाद का उद्देश्य चुनावी रणनीति भी हो सकता है. आने वाले समय में त्रिपुरा में सत्ता समीकरण बदल सकते हैं और जातीय ध्रुवीकरण उसमें बड़ी भूमिका निभा सकता है. यदि बंगाली और आदिवासी समुदाय एक-दूसरे के खिलाफ खड़े किए जाते हैं, तो इसका फायदा वही दल उठाएगा जो अपने-अपने गढ़ों में मजबूती से खड़ा है.
हालांकि, समाजशास्त्रियों और शांति कार्यकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि ऐसे बयान लंबे समय में राज्य के सामाजिक ताने-बाने को कमजोर कर सकते हैं. त्रिपुरा एक ऐसा राज्य है जहाँ अलग-अलग भाषाएँ, संस्कृतियाँ और परंपराएँ साथ-साथ रहती हैं. यहाँ सांस्कृतिक समन्वय की परंपरा रही है. यदि इस तरह के विवाद लगातार बढ़ते रहे तो वह सद्भावना और आपसी विश्वास को चोट पहुँचा सकते हैं.
राज्य के कई बुद्धिजीवियों और नागरिक संगठनों ने अपील की है कि सभी समुदाय संयम बरतें और एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करने के बजाय संवाद का रास्ता अपनाएँ. उन्होंने यह भी कहा कि सरकार को चाहिए कि वह ऐसे मामलों में कड़ी निगरानी रखे और सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स पर भी जिम्मेदारी तय करे.
अंततः यह विवाद केवल एक नेता की पोस्ट तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उस गहरी खाई को उजागर करता है जो त्रिपुरा की राजनीति और समाज में मौजूद है. यह खाई ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक कारणों से बनी है. सवाल यह है कि क्या राज्य इन चुनौतियों से ऊपर उठकर एक साझा भविष्य की ओर बढ़ पाएगा या फिर ऐसे बयान और विवाद उसे बार-बार पीछे खींचते रहेंगे.
इस पूरे प्रकरण ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि भारतीय राजनीति में अब सोशल मीडिया की भूमिका कितनी अहम हो चुकी है. यह न केवल जनमत को प्रभावित करता है बल्कि कई बार वास्तविक राजनीति को दिशा भी देता है. त्रिपुरा का यह विवाद इसी बात का उदाहरण है कि एक पोस्ट से कैसे पूरे राज्य का माहौल बदल सकता है और सियासत गरमा सकती है.
पिछले चुनावी आंकड़े (2023 विधानसभा चुनाव)
निर्वाचन तिथि: 16 फरवरी 2023; मतगणना: 2 मार्च 2023; उपस्थिति: 89.95%
मुख्य परिणाम :
BJP: 32 सीटें (मंडATORY बहुमत)
TIPRA Motha: 13 सीटें (नए पार्टी के रूप में, दूसरी सबसे बड़ी शक्ति)
CPI(M): 11 सीटें
Congress: 3 सीटें
लोकप्रिय वोट प्रतिशत :
BJP: 38.97%, TIPRA Motha: 19.7%, CPI(M): 24.62%, Congress: 8.56%
सरकार गठन: Manik Saha दूसरी बार मुख्यमंत्री बने (8 मार्च 2023 को शपथ ग्रहण) .
जनसंख्या संतुलन के ताज़ा आँकड़े
वर्ष 2024 अनुमानित आबादी: लगभग 42.0 लाख (4.20 मिलियन) 2025 की परियोजना: लगभग 41.85 से 42.85 लाख (4.18–4.28 मिलियन) Example: IndiaCensus पर 4,184,959 अनुमानित N आबादी, जिसमें पुरुष 2,135,183 और महिलाएं 2,049,776 थी
सेक्स रेश्यो: 2024 में लगभग 103.25 पुरुष प्रति 100 महिलाएं (यानि महिलाएं कम) 2011 जनगणना आंकड़े: एक प्रतिशत में लघु संदर्भ:
आबादी: 36.74 लाख
सेक्स रेश्यो: 960 महिलाएं प्रति 1000 पुरुष
अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) आबादी (2011):
महत्वपूर्ण जनजातियाँ:
Tripuri: 5,92,255
Reang: 1,88,220
Jamatia: 83,347
Chakma: 79,813
कुल ST समुदाय की संख्या में निरंतर बढ़ोतरी देखी गई है
यह आंकड़े विवाद की भावना और राजनीति पर क्या कह रहे हैं?
आबादी में बढ़ोतरी—जनसंख्या में वृद्धि और बदलता लैंगिक अनुपात सामाजिक संतुलन को प्रभावित कर सकता है.
जातीय विभाजन का राजनीतिक प्रभाव—हिंदी वोट-बैंक वाले TIPRA Motha का उभार (13 सीटें) आदिवासी पहचान की राजनीतिक मजबूती दिखाता है.
भाषा और पहचान की जटिलता—आदिवासी जनजातियाँ (Tripuri, Reang, Chakma आदि) आबादी का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं; उनकी चिंताओं को बगैर संवाद के बड़े पैमाने पर सुना नहीं गया तो तनाव बढ़ सकता है.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

