- डॉ. सत्यवान सौरभ
नहरें केवल पानी की धाराएँ नहीं होतीं. ये खेतों की हरियाली की लहर हैं, पशुओं की प्यास बुझाने वाली धारा हैं, और गाँव-गाँव में जीवन की गूँज बिखेरती संस्कृति की निसर्ग-गाथा हैं. परंतु आज ये जीवन-रेखाएँ मनुष्य की भूलों से आहत हैं. पूजा के बाद की सामग्री, कपड़े, मूर्तियाँ, प्लास्टिक, सिंदूर और यहाँ तक कि मृत पालतू पशुओं तक को लोग नहरों में डाल देते हैं. आस्था के नाम पर यह प्रदूषण, जल और जीवन दोनों के लिए अभिशाप बन गया है.
इसी पीड़ा से जन्मा है—“सुनो नहरों की पुकार”—एक जागरूकता अभियान, जिसकी शुरुआत रोहतक में डा. जसमेर सिंह हुड्डा (संयोजक)एवं हिसार में माo भूपेंद्र सिंह गोदारा द्वारा हुई और जिन्होंने पिछले कुछ वर्षों में हजारों दिलों तक दस्तक दी.
मास्टर भूपेंद्र गोदारा और साथियों का संकल्प
गुरेरा गाँव की मिट्टी से उठे मास्टर भूपेंद्र गोदारा ने यह बीड़ा उठाया कि नहरों को उनकी पवित्रता लौटाई जाए. उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चले—सुबेदार मेजर दलीप सिंह, टेकचन्द बागड़ी, श्री दलवीर पोटलिया, रिटायर्ड आचार्य विजेन्द्र सिंह, कृष्ण कुमार , प्राचार्य अजीत सिंह, निहाल सिंह गोदारा, श्री पवन कुमार और अनेक जागरूक साथी.
इन सबका विश्वास है कि जब तक समाज अपनी आदतें नहीं बदलेगा, तब तक नहरों की आत्मा को शांति नहीं मिलेगी.
पिछले कई वर्षों की यात्रा : एक संकल्प, एक तपस्या
कोरोना के भयावह समय में भी, यह कारवाँ नहीं रुका. रविवार हो या छुट्टी का दिन, त्यौहार हो या बरसात—टीम अपने हाथों में तख्तियाँ लिए नहरों के किनारे खड़ी मिलती है. तख्तियों पर लिखे शब्द जैसे जनता से संवाद करते हैं—“जल है तो कल है”, “नहरों को प्रदूषित मत करो”, “आस्था है तो स्वच्छता भी हो”.
इस यात्रा में हिम्मत सिंह, रामुर्ती, नरेंद्र कुल्हड़िया, प्रवीण वकील, सुरेंद्र गोदारा, संदीप, सीताराम, शेर सिंह, विकास गोदारा, रामभगत पुनिया, जैसे समाजसेवियों ने स्वर मिलाया. वहीं सुमन गोदारा, संतोष गोदारा, रचना, पुष्पा, कमला, सुनीता, शीला, तारा देवी, सुदेश ढांडा जैसी महिलाओं ने इस अभियान को और गहराई दी.
गुरेरा से इंस्पेक्टर उदयभान गोदारा ने भी समाज से आह्वान किया कि जब तक यह आवाज़ हर गली-मोहल्ले तक नहीं पहुँचेगी, तब तक बदलाव अधूरा रहेगा.
नहरें आहत क्यों हैं?
वह जलधारा जो खेतों में सुनहरे बालियाँ उगाती है, वही जब प्लास्टिक और पूजा सामग्री के बोझ से दब जाती है, तो विष बन जाती है. इस प्रदूषित जल से मिट्टी बीमार होती है, फसलें अस्वस्थ होती हैं और अंततः वही अन्न और सब्ज़ी हमारे थालियों में पहुँचती हैं.
यह केवल खेती तक सीमित नहीं—नहरों से पानी पीने वाले पशु और जीव भी रोगों से ग्रसित हो जाते हैं. वैज्ञानिक चेतावनी दे चुके हैं कि यह प्रदूषण कैंसर, हृदय रोग और अनेक असाध्य बीमारियों का कारण बन रहा है.
धर्म की नई परिभाषा
अभियान का मूल संदेश यही है—धर्म का अर्थ है प्रकृति की रक्षा.
भगवान को प्रसन्न करने का सबसे सच्चा मार्ग यही है कि हम जल को शुद्ध रखें, पेड़ों की रक्षा करें और जीव-जंतुओं की सुरक्षा करें. पूजा सामग्री को नहर में बहाना धर्म नहीं, बल्कि अधर्म है.
मास्टर भूपेंद्र गोदारा बार-बार प्रश्न करते हैं—
“हे प्रभु, आपके नाम पर लोग प्रकृति का इतना अपमान क्यों कर रहे हैं? यह कैसी आस्था है, जो जीवनदायिनी नहरों को विष से भर रही है?”उनकी पीड़ा ही इस आंदोलन का प्रकाश बनी.
जनता की भागीदारी से ही बदलाव
हर अभियान का प्राण जनता की भागीदारी होती है. जब-जब समाज ने ठान लिया, तब-तब असंभव भी संभव हुआ. “सुनो नहरों की पुकार” ने हजारों लोगों की सोच बदल दी है. अब लोग पूजा सामग्री को नहरों में बहाने के बजाय मिट्टी में दबाने, पौधों के नीचे रखने या खाद बनाने की ओर बढ़ रहे हैं.
यह छोटे-छोटे कदम हैं, मगर इन्हीं से भविष्य के लिए बड़ा परिवर्तन संभव होगा.
जीवन बचाना है तो नहरें बचानी होंगी
यह अभियान केवल एक चेतावनी नहीं, बल्कि एक प्रार्थना भी है—
“नहरों को स्वच्छ रखो, जीवन को सुरक्षित रखो.”
नहरें यदि बचेंगी तो खेत हरे-भरे रहेंगे, पशु-पक्षी जीवित रहेंगे, और आने वाली पीढ़ियों के चेहरे पर मुस्कान बनी रहेगी.
“सुनो नहरों की पुकार” दरअसल हमारी अंतरात्मा की भी पुकार है—
जो हमें याद दिलाती है कि जल ही जीवन है, और इसे बचाना हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है.

