जन सुराज पार्टी के प्रमुख और चुनावी रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर का नाम भारतीय राजनीति में विचार और रणनीति दोनों स्तरों पर लंबे समय से चर्चा में रहा है. 21 अगस्त 2025 को उन्होंने एक बयान दिया जिसने सोशल मीडिया पर गहन बहस छेड़ दी. उनका कहना था कि “आने वाले दस वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हिन्दुत्व भी नरम प्रतीत होगा.” यह टिप्पणी न केवल भाजपा की विचारधारा पर गहरा प्रश्नचिह्न खड़ा करती है बल्कि भारतीय राजनीति के बदलते परिदृश्य को लेकर दूरगामी संकेत भी देती है. प्रशांत किशोर का यह कथन महज़ आलोचना नहीं बल्कि एक चेतावनी के रूप में देखा जा रहा है कि भारतीय राजनीति में विचारधाराओं की दिशा आने वाले समय में किस प्रकार बदल सकती है.
किशोर के इस बयान का सबसे बड़ा असर सोशल मीडिया पर दिखाई दिया. ट्विटर (एक्स), फेसबुक, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर #PrashantKishor और #HindutvaFuture जैसे हैशटैग ट्रेंड करने लगे. एक ओर भाजपा समर्थक इसे मोदी विरोधी एजेंडा करार दे रहे थे, वहीं विपक्ष और उदारवादी धड़ा इसे एक गंभीर भविष्यवाणी मानकर प्रचारित कर रहा था. खासकर युवाओं में इस बात पर तीखी बहस छिड़ गई कि क्या वास्तव में भारतीय राजनीति आने वाले दशक में ऐसी राह पकड़ सकती है जिसमें मोदी का हिन्दुत्व भी “नरम” मान लिया जाए.
प्रशांत किशोर का राजनीतिक सफर बेहद दिलचस्प रहा है. कभी कांग्रेस से लेकर जेडीयू और तृणमूल कांग्रेस तक, कई दलों के लिए चुनावी रणनीति तैयार करने वाले किशोर ने राजनीति को जमीनी हकीकत से जोड़कर देखने का तरीका विकसित किया. उनका यह दावा कि मोदी का हिन्दुत्व भी भविष्य में हल्का लगेगा, दरअसल इस बात की ओर इशारा करता है कि समाज और राजनीति दोनों में विचारधाराओं की प्रतिस्पर्धा और आक्रामकता नई ऊँचाइयों पर पहुँच सकती है. अगर आज मोदी को कठोर हिन्दुत्व की छवि वाला नेता माना जाता है, तो किशोर का यह कथन संकेत देता है कि दस साल बाद उससे भी ज्यादा तीव्र और कठोर विचारधारात्मक प्रवाह राजनीति में सक्रिय हो सकते हैं.
राजनीति विश्लेषकों ने इस बयान की कई परतें खोलने की कोशिश की. कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि किशोर यह संकेत दे रहे हैं कि भारतीय समाज लगातार ध्रुवीकरण की ओर बढ़ रहा है और भविष्य में कोई ऐसी राजनीतिक ताकत उभर सकती है जो मोदी के हिन्दुत्व को भी अपर्याप्त मान ले. वहीं कुछ लोगों का कहना है कि किशोर भाजपा और मोदी की राजनीति की सीमा रेखा खींच रहे हैं—कि आने वाले समय में हिन्दुत्व का एक और उग्र रूप राजनीति पर हावी हो सकता है, जिससे मोदी का हिन्दुत्व अपेक्षाकृत उदार दिखाई देगा.
सोशल मीडिया पर इस पर तीखे प्रतिक्रियाएँ सामने आईं. भाजपा समर्थक यूज़र्स ने लिखा कि किशोर का यह कथन मोदी की लोकप्रियता से डर को दर्शाता है. उन्होंने कहा कि मोदी ने हिन्दुत्व को सांस्कृतिक गौरव और विकास के साथ जोड़ा है, और इसे उग्र राजनीति कहना गलत है. वहीं विपक्षी धड़े ने कहा कि किशोर की बात इस ओर इशारा करती है कि भाजपा का वर्तमान स्वरूप भी स्थायी नहीं है और भारत का लोकतंत्र विचारधारा के स्तर पर और भी जटिल मोड़ लेने वाला है.
युवाओं में खासकर यह बहस छिड़ गई कि क्या वास्तव में समाज में धार्मिक कट्टरता का विस्तार इतना हो सकता है कि आज की आक्रामक राजनीति भी कल को नरम प्रतीत होने लगे. कुछ लोग इसे चेतावनी मानते हुए लिख रहे थे कि यह समाज और लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है, जबकि कुछ अन्य कह रहे थे कि यह भारतीय राजनीति का स्वाभाविक विकास है जहाँ विचारधाराएँ लगातार बदलती रहती हैं.
प्रशांत किशोर का यह बयान क्षेत्रीय राजनीति में भी गूँज पैदा कर रहा है. बिहार, उत्तर प्रदेश और बंगाल जैसे राज्यों में किशोर की बातों को गहराई से सुना जा रहा है क्योंकि इन राज्यों में धार्मिक और जातीय राजनीति की जटिलताएँ हमेशा से बड़ी भूमिका निभाती रही हैं. कई राजनीतिक टिप्पणीकारों का मानना है कि किशोर दरअसल यह कह रहे हैं कि आने वाले समय में धार्मिक ध्रुवीकरण इतना तेज़ हो सकता है कि वर्तमान भाजपा को भी अपनी रणनीति बदलनी पड़ सकती है.
मीडिया रिपोर्ट्स में यह भी सामने आया कि किशोर का यह कथन भाजपा के लिए दोहरी चुनौती खड़ी करता है. पहला—वह अपनी मौजूदा विचारधारा को जनता तक लगातार कैसे पहुँचाए, और दूसरा—अगर भविष्य में इससे भी ज्यादा उग्र ताकतें राजनीति में आती हैं तो भाजपा अपनी पहचान कैसे बनाए रखे. इस बयान को भाजपा की राजनीतिक सीमाओं और उसके दीर्घकालिक अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न की तरह देखा जा रहा है.
सोशल मीडिया पर एक और बहस यह भी उठी कि क्या प्रशांत किशोर भविष्य की राजनीति में किसी नए प्रयोग का आधार तैयार कर रहे हैं. उनके बयान को कुछ लोग उनकी पार्टी जन सुराज के लिए प्रचार की रणनीति बता रहे हैं, जिससे वे खुद को भविष्य के “विचारधारा विश्लेषक” के रूप में स्थापित कर सकें. विपक्षी दलों के समर्थक किशोर की इस टिप्पणी को भाजपा के खिलाफ एक वैचारिक हथियार मानकर साझा कर रहे थे, जबकि भाजपा समर्थक उन्हें “फेल रणनीतिकार” और “सिर्फ चर्चा में रहने वाला नेता” कह रहे थे.
इस विवाद के बीच आम नागरिकों ने भी अपनी राय रखी. कई लोगों ने कहा कि राजनीति में उग्र विचारधाराओं की प्रतिस्पर्धा से आम जनता का जीवन कठिन होता है क्योंकि इससे विकास और रोज़मर्रा के मुद्दे पीछे छूट जाते हैं. वहीं कुछ लोगों का मानना था कि विचारधारा का संघर्ष ही लोकतंत्र को गतिशील बनाए रखता है.
भारतीय राजनीति की धारा हमेशा समय के साथ बदलती रही है. कभी कांग्रेस का समाजवाद, कभी भाजपा का हिन्दुत्व और कभी क्षेत्रीय दलों का जातीय समीकरण—ये सभी समय-समय पर राजनीतिक केंद्र बने हैं. प्रशांत किशोर का बयान इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए. अगर वे कह रहे हैं कि मोदी का हिन्दुत्व भी आने वाले दस वर्षों में नरम लगेगा, तो यह इस बात का संकेत है कि भारत का लोकतंत्र और समाज दोनों निरंतर परिवर्तनशील हैं और आने वाला दशक वैचारिक दृष्टि से और भी उथल-पुथल से भरा हो सकता है.
इस पूरे विवाद का निष्कर्ष यही है कि प्रशांत किशोर ने केवल भाजपा या मोदी पर सवाल नहीं उठाया, बल्कि भारतीय राजनीति के भविष्य की दिशा को लेकर एक गहरी बहस छेड़ दी है. उनका यह कथन आने वाले वर्षों में राजनीतिक विमर्श का हिस्सा बना रहेगा और संभवतः राजनीति की नई धाराएँ इसी बहस से जन्म लेंगी.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

