डिजिटल युग में जब इंसान का दिन स्मार्टफोन की स्क्रीन से शुरू होकर उसी स्क्रीन पर खत्म होता है, तब अगर कोई ट्रेंड अचानक सोशल मीडिया पर छा जाए और उसमें सोशल मीडिया से दूर रहने की बात हो, तो यह अपने आप में एक दिलचस्प विरोधाभास है. हाल ही में दुनिया भर में #DigitalDetoxChallenge तेजी से वायरल हो रहा है. इस चैलेंज के तहत युवा पीढ़ी 7 दिन तक पूरी तरह से सोशल मीडिया से दूरी बनाकर जीने की कोशिश कर रही है. फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर (X), टिकटॉक और स्नैपचैट जैसी प्लेटफॉर्म्स से सात दिनों तक दूर रहना आज के दौर में एक असंभव सा काम लगता है, लेकिन हैरत की बात यह है कि हजारों लोग इसमें शामिल हो रहे हैं और अपने अनुभव साझा कर रहे हैं.
सोशल मीडिया के युग में लगातार बढ़ते स्क्रीन टाइम ने मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर गहरा असर डाला है. नींद की कमी, तनाव, अवसाद, और ध्यान की कमी जैसी समस्याएँ अब रिसर्च में भी साबित हो चुकी हैं. इसी पृष्ठभूमि में डिजिटल डिटॉक्स की जरूरत पहले से ज्यादा महसूस की जाने लगी है. इस ट्रेंड को खास तौर पर जेनरेशन Z और मिलेनियल्स उठा रहे हैं. इन दोनों पीढ़ियों को डिजिटल नेटिव कहा जाता है, क्योंकि इनका बचपन और जवानी इंटरनेट और मोबाइल फोन के साथ ही बीता है. ऐसे में जब वही पीढ़ी सोशल मीडिया से ब्रेक लेने की पहल करती है, तो यह एक सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव का संकेत भी देता है.
इस चैलेंज में हिस्सा लेने वाले लोग सात दिनों तक कोई भी सोशल मीडिया ऐप नहीं खोलते. कुछ तो अपने फोन से ऐप्स डिलीट कर देते हैं, जबकि कुछ नोटिफिकेशन पूरी तरह बंद कर देते हैं. इन सात दिनों के दौरान लोग किताबें पढ़ते हैं, परिवार और दोस्तों से आमने-सामने बातचीत करते हैं, आउटडोर गतिविधियों में शामिल होते हैं, और कुछ तो मेडिटेशन और योग तक अपनाते हैं. सात दिन पूरे होने के बाद लोग सोशल मीडिया पर वापस आकर अपने अनुभव साझा करते हैं और बताते हैं कि इस डिटॉक्स ने उनकी जिंदगी पर क्या असर डाला.
कई यूज़र्स ने लिखा कि उन्होंने महसूस किया कि बिना सोशल मीडिया के उनके पास दिन में बहुत ज्यादा समय बच जाता है. कुछ ने कहा कि उनकी नींद बेहतर हो गई और चिंता का स्तर कम हुआ. एक उपयोगकर्ता ने ट्विटर पर लिखा – "सात दिन तक बिना इंस्टाग्राम के रहने के बाद मैंने महसूस किया कि मैं ज्यादा प्रोडक्टिव हो गया हूँ. मुझे नींद पूरी मिल रही है और किताबें पढ़ने का समय भी." वहीं, एक और प्रतिभागी ने कहा – "सोशल मीडिया से दूर रहकर समझ आया कि हम अनजाने में खुद की तुलना दूसरों से करके कितने दबाव में जी रहे हैं. सात दिन की दूरी ने मुझे अपनी जिंदगी के प्रति ज्यादा आभारी बना दिया."
मनोवैज्ञानिक भी इस ट्रेंड को सकारात्मक मानते हैं. उनका कहना है कि सोशल मीडिया पर लगातार बने रहने से लोगों के दिमाग में डोपामीन रिलीज होता है, जिससे हर नोटिफिकेशन और लाइक एक इनाम जैसा लगता है. यह दिमाग को लत की तरह बांध देता है. डिजिटल डिटॉक्स करने से इस लत का असर कम होता है और इंसान अपने वास्तविक रिश्तों और गतिविधियों पर ज्यादा ध्यान दे पाता है. अमेरिका की एक मनोवैज्ञानिक डॉ. लिंडा ग्रे ने कहा – "सोशल मीडिया से अस्थायी दूरी दिमाग को रिचार्ज करने का मौका देती है. यह वैसे ही है जैसे शरीर को आराम देने के लिए छुट्टियाँ जरूरी होती हैं."
हालाँकि, हर किसी के अनुभव इतने अच्छे नहीं रहे. कुछ यूज़र्स ने बताया कि शुरू के दो दिन उनके लिए बेहद कठिन थे. बिना नोटिफिकेशन और स्क्रॉलिंग के वे बेचैन और खालीपन महसूस कर रहे थे. कईयों ने कहा कि उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे वे किसी बड़े इवेंट या चर्चा से बाहर हो गए हैं. यही FOMO (Fear of Missing Out) कहलाता है. यह डर आज की डिजिटल संस्कृति का एक अहम हिस्सा है और यही वजह है कि कई लोग सोशल मीडिया से दूरी बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते. लेकिन जिन्होंने सात दिन पूरे किए, उन्होंने माना कि धीरे-धीरे यह डर कम हो गया और वे एक नई तरह की शांति और संतुलन महसूस करने लगे.
इस ट्रेंड का असर सिर्फ व्यक्तिगत जीवन तक सीमित नहीं है. कंपनियाँ भी अब इसे गंभीरता से ले रही हैं. कुछ टेक स्टार्टअप्स ने डिजिटल डिटॉक्स प्रोग्राम्स लॉन्च किए हैं, जिनमें यूज़र्स को गाइड किया जाता है कि वे अपने स्क्रीन टाइम को कैसे कम करें और स्वस्थ जीवनशैली कैसे अपनाएँ. यहाँ तक कि बड़े-बड़े वेलनेस रिजॉर्ट्स ने भी ‘डिजिटल डिटॉक्स कैंप्स’ शुरू कर दिए हैं, जहाँ लोग हफ्तेभर बिना इंटरनेट और मोबाइल के रहते हैं.
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर भी इसकी गूंज सुनाई दे रही है. इंस्टाग्राम पर #DigitalDetoxChallenge टैग के साथ लाखों पोस्ट किए जा चुके हैं. लोग अपने सात दिनों की डायरी साझा कर रहे हैं, फोटो डाल रहे हैं जिसमें वे किताबें पढ़ते या प्रकृति में घूमते दिख रहे हैं. टिकटॉक पर भी इसके शॉर्ट वीडियोज वायरल हो रहे हैं, जहाँ लोग अपने अनुभव क्रिएटिव तरीके से बता रहे हैं.
एक दिलचस्प पहलू यह है कि इस ट्रेंड ने सोशल मीडिया को ही अपना माध्यम बनाया है. जो लोग सात दिनों का चैलेंज पूरा करते हैं, वे सोशल मीडिया पर वापस आकर अपने अनुभव साझा करते हैं. यानी एक तरह से सोशल मीडिया का इस्तेमाल ही सोशल मीडिया से दूर रहने की कहानी को बताने के लिए किया जा रहा है. यह विरोधाभास इस ट्रेंड को और आकर्षक बनाता है.
अगर व्यापक सामाजिक प्रभाव की बात करें तो यह ट्रेंड बताता है कि धीरे-धीरे ही सही, लोग डिजिटल लत के खतरों को समझने लगे हैं. आज की दुनिया में सोशल मीडिया से पूरी तरह अलग होना भले ही संभव न हो, लेकिन ऐसे छोटे-छोटे ब्रेक लेना मानसिक स्वास्थ्य और जीवन की गुणवत्ता के लिए बेहद जरूरी है. खासकर युवा पीढ़ी के लिए, जो अक्सर स्क्रीन टाइम के कारण नींद की कमी, रिश्तों में खटास और करियर पर असर जैसी समस्याओं का सामना करती है.
विशेषज्ञ मानते हैं कि आने वाले समय में इस तरह के ट्रेंड्स और भी बढ़ सकते हैं. जैसे-जैसे डिजिटल ओवरलोड और मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएँ सामने आएँगी, वैसे-वैसे लोग संतुलन बनाने की ओर बढ़ेंगे. यह संतुलन ही भविष्य में डिजिटल युग की असली चुनौती और समाधान होगा.
आखिरकार, #DigitalDetoxChallenge सिर्फ एक ट्रेंड नहीं है, बल्कि यह एक सवाल है – क्या हम अपनी डिजिटल जिंदगी पर नियंत्रण रखते हैं, या डिजिटल दुनिया हम पर हावी हो चुकी है? यह सवाल हर उस इंसान से जुड़ा है जिसके हाथ में स्मार्टफोन है. सात दिन का डिटॉक्स इस सवाल का जवाब ढूँढने की एक छोटी सी कोशिश है, जो शायद हमें यह याद दिलाती है कि असली जिंदगी स्क्रीन के बाहर है.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

