ब्रॉन्को टेस्ट टीम इंडिया का नया फिटनेस मानक

ब्रॉन्को टेस्ट टीम इंडिया का नया फिटनेस मानक

प्रेषित समय :20:22:24 PM / Fri, Aug 29th, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

भारतीय क्रिकेट टीम के लिए फिटनेस हमेशा से एक अहम विषय रहा है, लेकिन बीते कुछ वर्षों में इसे टीम चयन और प्रदर्शन का सबसे बड़ा आधार बना दिया गया है. कभी खिलाड़ी अपनी प्रतिभा और कौशल से टीम में जगह बनाते थे, लेकिन अब वह दौर बीत चुका है. आधुनिक क्रिकेट में खिलाड़ी की शारीरिक और मानसिक क्षमता, धैर्य और सहनशक्ति ही उसके भविष्य का निर्धारण करती है. इसी क्रम में टीम इंडिया ने एक और बड़ा बदलाव किया है. अब यो-यो टेस्ट, जो लंबे समय तक भारतीय क्रिकेटरों के लिए फिटनेस का पैमाना था, की जगह नया मानक ‘ब्रॉन्को टेस्ट’ ले चुका है. यह टेस्ट रग्बी और फुटबॉल जैसे खेलों में लंबे समय से प्रयोग होता रहा है, लेकिन पहली बार भारतीय क्रिकेट ने इसे अपनाया है.

ब्रॉन्को टेस्ट को महज फिटनेस की एक औपचारिक प्रक्रिया नहीं कहा जा सकता. यह दरअसल खिलाड़ियों के शरीर की वास्तविक सहनशक्ति और स्टैमिना की परख का तरीका है. इस टेस्ट में खिलाड़ियों को 20, 40 और 60 मीटर की दूरी लगातार तेजी से तय करनी होती है. इसमें केवल स्पीड ही नहीं, बल्कि लगातार कई बार दौड़ने की क्षमता और थकान झेलने की ताकत भी जांची जाती है. यानी यह फिटनेस का एक ज्यादा कठोर और वैज्ञानिक स्वरूप है. यो-यो टेस्ट में जहां मुख्य रूप से खिलाड़ी की स्पीड और रिकवरी टाइम देखा जाता था, वहीं ब्रॉन्को टेस्ट में उनकी संपूर्ण एरोबिक क्षमता और शरीर का लोड झेलने का सामर्थ्य परखा जाता है.

यह बदलाव भारतीय क्रिकेट में कई मायनों में ऐतिहासिक माना जा रहा है. यो-यो टेस्ट ने जब पहली बार भारतीय क्रिकेट में कदम रखा था, तब भी खिलाड़ियों में चिंता और असहजता देखी गई थी. कई अनुभवी खिलाड़ी इस पैमाने पर खरे नहीं उतर पाए थे. यहां तक कि कुछ दिग्गजों को टीम से बाहर भी होना पड़ा था. ब्रॉन्को टेस्ट के साथ भी फिलहाल वही स्थिति बनती दिख रही है. युवा खिलाड़ी इसे चुनौती के रूप में ले रहे हैं, जबकि सीनियर खिलाड़ियों के सामने यह एक बड़ी कसौटी बनकर खड़ा है. फिटनेस विशेषज्ञों का मानना है कि यह टेस्ट क्रिकेटरों की वास्तविक क्षमता का पता लगाने में यो-यो टेस्ट से कहीं ज्यादा सक्षम है.

भारतीय क्रिकेट बोर्ड ने इस बदलाव का कारण भी साफ किया है. बोर्ड के मुताबिक, आधुनिक क्रिकेट में फिटनेस की मांग लगातार बढ़ रही है. एक खिलाड़ी को सालभर में तीनों प्रारूपों में खेलना पड़ता है. ऐसे में केवल स्पीड या त्वरित रिकवरी क्षमता देखना काफी नहीं है. खिलाड़ियों के शरीर को लंबे समय तक तेज रफ्तार और उच्च दबाव झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए. यही कारण है कि अब ब्रॉन्को टेस्ट को अपनाया गया है. इससे टीम प्रबंधन को खिलाड़ियों की वास्तविक सहनशक्ति और मानसिक मजबूती का अंदाजा बेहतर तरीके से मिलेगा.

हालांकि, इस फैसले पर क्रिकेट हलकों में मिश्रित प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं. कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि फिटनेस को लेकर भारतीय क्रिकेट बोर्ड की कठोरता खिलाड़ियों के लिए मानसिक दबाव भी बना सकती है. उनका मानना है कि टेस्ट, वनडे और टी20—तीनों फॉर्मेट की अलग-अलग जरूरतें होती हैं. ऐसे में हर खिलाड़ी को एक ही फिटनेस पैमाने पर परखना न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता. मसलन, एक तेज गेंदबाज और एक स्पिनर की शारीरिक मांगें अलग होती हैं. इसी तरह, बल्लेबाजों की फिटनेस प्राथमिकताएं भी गेंदबाजों से भिन्न हो सकती हैं.

दूसरी ओर, बोर्ड और टीम प्रबंधन का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा इतनी बढ़ गई है कि अब ढील की कोई गुंजाइश नहीं बची है. विदेशी टीमें पहले ही कठोर फिटनेस मानकों पर काम कर रही हैं. इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड की टीमें लंबे समय से ब्रॉन्को टेस्ट जैसे पैमानों पर खिलाड़ियों को परख रही हैं. ऐसे में भारतीय टीम के लिए यह कदम न केवल समय की मांग है, बल्कि फिटनेस के मामले में विश्व स्तर पर खुद को खड़ा करने का प्रयास भी है.

युवा खिलाड़ियों ने इस बदलाव को उत्साह से स्वीकार किया है. उनके लिए यह खुद को साबित करने का एक अवसर है. घरेलू क्रिकेट में खेलने वाले कई खिलाड़ियों का कहना है कि अगर वे इस टेस्ट में सफल हो जाते हैं, तो उन्हें यह भरोसा भी होगा कि उनका शरीर लंबे समय तक अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट का दबाव झेल सकता है. वहीं सीनियर खिलाड़ियों के सामने यह चुनौती है कि वे अपनी फिटनेस को बनाए रखें और नई पीढ़ी के खिलाड़ियों के सामने उदाहरण प्रस्तुत करें.

ब्रॉन्को टेस्ट के आने से भारतीय क्रिकेट में चयन प्रक्रिया भी और पारदर्शी हो सकती है. कई बार यह आरोप लगता रहा है कि खिलाड़ियों का चयन केवल उनके नाम और अनुभव के आधार पर हो जाता है, जबकि फिटनेस को नज़रअंदाज कर दिया जाता है. अब इस नए पैमाने के बाद टीम में जगह पाने के लिए सभी खिलाड़ियों को समान कसौटी से गुजरना होगा. इससे खिलाड़ियों में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और टीम में केवल वही शामिल होंगे जो वास्तव में फिट और सक्षम होंगे.

हालांकि, इस बदलाव के कुछ व्यावहारिक पहलू भी हैं. यह टेस्ट बेहद कठोर है और खिलाड़ियों को इसके लिए विशेष ट्रेनिंग की जरूरत होगी. कोचिंग स्टाफ पर यह जिम्मेदारी होगी कि वह खिलाड़ियों को इस टेस्ट के लिए न केवल शारीरिक रूप से तैयार करे, बल्कि मानसिक तौर पर भी मजबूत बनाए. चोटों का खतरा भी इस टेस्ट में बढ़ सकता है, क्योंकि इसमें खिलाड़ियों को लगातार उच्च तीव्रता पर दौड़ना पड़ता है. ऐसे में फिजियो और ट्रेनर की भूमिका और महत्वपूर्ण हो जाएगी.

कुल मिलाकर, ब्रॉन्को टेस्ट का आगमन भारतीय क्रिकेट में एक नए युग की शुरुआत है. यह खिलाड़ियों के लिए चुनौती भी है और अवसर भी. फिटनेस अब केवल एक औपचारिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि खेल का सबसे अहम हिस्सा बन चुकी है. भारतीय टीम अगर इस बदलाव को सही तरीके से लागू कर लेती है, तो न केवल खिलाड़ियों की व्यक्तिगत क्षमता बढ़ेगी, बल्कि टीम का सामूहिक प्रदर्शन भी विश्व स्तर पर और मजबूत हो सकता है. यो-यो टेस्ट से ब्रॉन्को टेस्ट तक का यह सफर भारतीय क्रिकेट की सोच में बदलाव का प्रतीक है, जहां कौशल के साथ-साथ फिटनेस को भी सर्वोच्च प्राथमिकता दी जा रही है.

इस बदलाव से यह संदेश साफ है कि भारतीय क्रिकेट अब किसी भी तरह की ढिलाई या समझौते के लिए तैयार नहीं है. खिलाड़ी चाहे कितना भी बड़ा नाम क्यों न हो, अगर वह फिटनेस की कसौटी पर खरा नहीं उतरता, तो टीम में उसकी जगह नहीं होगी. आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि यह कठोर मानक भारतीय क्रिकेट को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाता है या खिलाड़ियों के लिए अतिरिक्त दबाव का कारण बनता है. लेकिन इतना तय है कि ब्रॉन्को टेस्ट ने भारतीय क्रिकेट के फिटनेस इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया है, जो आने वाले वर्षों में टीम की दिशा और दशा तय करेगा.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-