भारतीय सिनेमा में युवा पीढ़ी को समझने और उनकी भावनाओं को पर्दे पर उतारने की कोशिशें हमेशा से होती रही हैं. लेकिन निर्देशक मैनक भौमिक ने इस बार कोलकाता की जेन जेड की कहानियों को केंद्र में रखकर जो प्रयोग किया है, उसने दर्शकों और समीक्षकों दोनों का ध्यान अपनी ओर खींच लिया है. उनकी नई फ़िल्म केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं है, बल्कि यह समाज की गहरी परतों को खोलने वाली रचना है. इसमें पहचान की तलाश, रिश्तों की उलझनें, मानसिक स्वास्थ्य की चुनौतियां और बदलते सामाजिक ढांचे की गूंज एक साथ सुनाई देती है.
फ़िल्म का सबसे बड़ा आकर्षण यह है कि इसमें युवा पीढ़ी को किसी सतही छवि के तौर पर नहीं, बल्कि उनकी पूरी जटिलताओं के साथ चित्रित किया गया है. कोलकाता जैसे शहर में, जहां परंपरा और आधुनिकता का मेल एक खास किस्म का सामाजिक माहौल रचता है, वहां की जेन जेड की जिंदगी कई विरोधाभासों से भरी है. भौमिक की कैमरा आंख इन विरोधाभासों को संवेदनशील ढंग से पकड़ती है.
कहानी कुछ युवा किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती है, जो एक ओर स्वतंत्रता की तलाश में हैं और दूसरी ओर समाज और परिवार की अपेक्षाओं के दबाव से जूझ रहे हैं. उनमें कोई अपनी लैंगिक पहचान को लेकर संघर्ष कर रहा है, तो कोई रिश्तों में स्थायित्व और असुरक्षा के बीच फंसा हुआ है. मानसिक स्वास्थ्य की समस्या, जैसे डिप्रेशन और एंग्जाइटी, को भी बिना किसी बनावटीपन के दिखाया गया है. दर्शक इन किरदारों के साथ हंसते, रोते और सोचते हैं.
फ़िल्म में रिश्तों का चित्रण बेहद यथार्थवादी है. जेन जेड के लिए रिश्ते सिर्फ पारंपरिक रूपरेखाओं में बंधे नहीं रहते. वे दोस्ती और प्यार के बीच की सीमाओं को बार-बार पार करते हैं. किसी के लिए रिलेशनशिप स्थायित्व का प्रतीक है, तो किसी के लिए यह सिर्फ अनुभव साझा करने का ज़रिया. सोशल मीडिया और डेटिंग ऐप्स ने इस पीढ़ी के रिश्तों को और भी जटिल बना दिया है. भौमिक ने इस पहलू को बड़ी संवेदनशीलता से दिखाया है कि कैसे ऑनलाइन कनेक्शन और ऑफलाइन वास्तविकता के बीच संतुलन बनाना आज के युवाओं के लिए चुनौती बन गया है.
कोलकाता की पृष्ठभूमि फ़िल्म में सिर्फ एक शहर नहीं, बल्कि एक जीवित किरदार की तरह नजर आती है. शहर की गलियां, कॉफी हाउस, मेट्रो स्टेशन और आर्ट स्पेस—ये सब मिलकर उस वातावरण को गढ़ते हैं, जिसमें युवा अपने सपनों और संघर्षों को जी रहे हैं. भौमिक ने कोलकाता के उस चेहरे को भी सामने रखा है, जहां पुरानी सांस्कृतिक धरोहरें अब भी मौजूद हैं लेकिन नई पीढ़ी उनके बीच अपनी आधुनिकता तलाश रही है.
मानसिक स्वास्थ्य पर जो गहराई इस फ़िल्म में दिखाई गई है, वह खास उल्लेखनीय है. आमतौर पर भारतीय फिल्मों में इस मुद्दे को या तो नज़रअंदाज़ किया जाता है या सतही ढंग से पेश किया जाता है. लेकिन यहां डिप्रेशन, अकेलापन और अस्तित्व की चिंता को सीधे-सीधे संवाद और दृश्यों के ज़रिए दर्शकों तक पहुँचाया गया है. यह सिर्फ स्क्रीन पर चल रही कहानी नहीं लगती, बल्कि कई युवाओं की असल जिंदगी की झलक मालूम होती है.
फ़िल्म में संगीत और सिनेमैटोग्राफी भी खास भूमिका निभाते हैं. बैकग्राउंड स्कोर युवाओं की बेचैनी, उम्मीद और सपनों को और गहराई देता है. वहीं, कैमरे का इस्तेमाल ऐसा है कि दर्शक खुद को कोलकाता की गलियों में चलते हुए महसूस करते हैं. रियल लोकेशन पर शूटिंग ने इस यथार्थवाद को और भी सशक्त बनाया है.
समीक्षकों का मानना है कि मैनक भौमिक की यह फ़िल्म केवल कोलकाता की जेन जेड की कहानी नहीं है, बल्कि यह पूरे भारत की उस पीढ़ी की दास्तान है जो परंपरा और आधुनिकता के बीच पुल बनाने की कोशिश कर रही है. यह पीढ़ी स्वतंत्रता चाहती है लेकिन अकेलेपन से डरती भी है. यह रिश्तों में गहराई चाहती है लेकिन उन्हें बोझ नहीं मानती. यह अपनी पहचान को लेकर बेबाक है लेकिन समाज की नज़रों से घबराती भी है.
फ़िल्म ने युवा दर्शकों के बीच एक खास किस्म की आत्मीयता पैदा की है. सोशल मीडिया पर इस पर चर्चा तेज़ है. कई युवाओं ने लिखा है कि उन्हें पहली बार स्क्रीन पर अपनी सच्ची छवि दिखी है. किसी ने कहा कि यह फ़िल्म उसके अपने संघर्षों का आईना है. वहीं, कई अभिभावकों और शिक्षकों ने भी इसे युवाओं को समझने का एक जरिया माना है.
मैनक भौमिक ने पहले भी युवाओं पर आधारित फिल्में बनाई हैं, लेकिन इस बार उनकी दृष्टि और भी गहरी और संवेदनशील नजर आती है. उन्होंने यह साबित कर दिया है कि भारतीय सिनेमा सिर्फ बड़े सितारों और ग्लैमरस कहानियों तक सीमित नहीं है. यथार्थवादी सिनेमा भी दर्शकों को प्रभावित कर सकता है और सामाजिक संवाद को आगे बढ़ा सकता है.
कुल मिलाकर, यह फ़िल्म केवल एक सिनेमाई अनुभव नहीं है बल्कि एक सामाजिक दस्तावेज है. इसमें जेन जेड की चिंताओं, सपनों और संघर्षों की वह तस्वीर है जिसे समझे बिना आने वाले समाज की दिशा को नहीं समझा जा सकता. मैनक भौमिक ने कोलकाता के युवाओं के ज़रिए पूरे भारत की युवा आत्मा को आवाज दी है.
यह फ़िल्म इस बात का सबूत है कि भारतीय सिनेमा में अब ऐसी कहानियों के लिए जगह बन रही है जो सिर्फ मनोरंजन तक सीमित न रहकर समाज की जटिलताओं को भी सामने लाती हैं. शायद यही वजह है कि इस फ़िल्म को लेकर इतना उत्साह है. यह न सिर्फ युवाओं की पीढ़ी के लिए बल्कि समाज के हर तबके के लिए देखने लायक है क्योंकि यह हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि नई पीढ़ी वास्तव में किस दिशा में बढ़ रही है और उनकी चुनौतियों को हम कैसे समझ सकते हैं.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-



