महाराष्ट्र सरकार ने श्रम कानूनों में बड़ा संशोधन करते हुए निजी क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारियों के कार्य घंटों को बढ़ा दिया है. नए प्रावधानों के अनुसार अब निजी व्यवसायों में कर्मचारियों को प्रतिदिन 10 घंटे काम करना होगा, जबकि औद्योगिक इकाइयों में यह सीमा 12 घंटे तक कर दी गई है. सरकार का कहना है कि इस फैसले से उत्पादन क्षमता और औद्योगिक प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिलेगा, साथ ही कामगारों को ओवरटाइम और अन्य सुविधाएँ भी सुनिश्चित की जाएंगी.
लेकिन इस निर्णय के सामने आते ही सोशल मीडिया पर भारी विरोध शुरू हो गया. ट्विटर, फेसबुक और इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफॉर्म्स पर कर्मचारियों ने अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए इसे "शोषणपूर्ण" और "मानवाधिकारों के खिलाफ" बताया. कई युवाओं ने लिखा कि पहले से ही निजी कंपनियों में काम का दबाव और मानसिक तनाव काफी है, ऐसे में कार्य-दिन को बढ़ाना उनके लिए और मुश्किलें खड़ी करेगा.
सरकारी दलील यह है कि कार्य घंटों की बढ़ोतरी के साथ-साथ हल्का ब्रेक, सुरक्षित कार्य वातावरण और ओवरटाइम भुगतान का प्रावधान भी किया गया है. श्रम मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि नए कानून का उद्देश्य उद्योग जगत में लचीलापन लाना है, ताकि वैश्विक निवेशकों को आकर्षित किया जा सके और राज्य की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिले. उनका मानना है कि इससे रोजगार के अवसरों में भी वृद्धि होगी.
वहीं कर्मचारियों और श्रमिक संगठनों का कहना है कि यह संशोधन श्रमिकों की भलाई से अधिक कॉर्पोरेट कंपनियों को फायदा पहुँचाने वाला है. श्रमिक यूनियनों ने इसे "कॉरपोरेट-परस्त" कानून बताया और चेतावनी दी है कि यदि इसे वापस नहीं लिया गया तो राज्यव्यापी आंदोलन शुरू किया जाएगा.
सोशल मीडिया पर कई उपयोगकर्ताओं ने सरकारी और निजी क्षेत्र के कार्य घंटों की तुलना करते हुए कहा कि जहाँ सरकारी दफ्तरों में काम के घंटे पहले जैसे ही हैं, वहीं निजी कर्मचारियों पर अतिरिक्त बोझ डालना भेदभावपूर्ण है. कुछ लोगों ने तो सीधे सवाल उठाया कि क्या सरकार आम कर्मचारियों की समस्याओं को समझने में असफल हो गई है?
विशेषज्ञों का मानना है कि लंबे कार्य घंटे न केवल मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित करेंगे, बल्कि इससे उत्पादकता में भी गिरावट आ सकती है. भारत जैसे देशों में, जहाँ पहले से ही कार्य संस्कृति और ‘वर्क-लाइफ बैलेंस’ को लेकर सवाल उठते रहते हैं, वहाँ इस तरह के फैसले कर्मचारियों में असंतोष और पलायन को जन्म दे सकते हैं.
दूसरी ओर, उद्योग जगत के कुछ वर्ग इस कदम का स्वागत कर रहे हैं. उनका कहना है कि इससे उत्पादन और डिलीवरी के समय पर सकारात्मक असर पड़ेगा, साथ ही विदेशी निवेशक भी भारतीय उद्योगों में भरोसा जताएंगे. उनका तर्क है कि बढ़ते वैश्विक प्रतिस्पर्धा के दौर में लचीले श्रम कानून आवश्यक हैं.
लेकिन इस तर्क के बावजूद आम जनता का गुस्सा कम नहीं हो रहा. ट्विटर पर #WorkLifeBalance और #StopExploitation जैसे हैशटैग ट्रेंड कर रहे हैं. कई कर्मचारियों ने अपने व्यक्तिगत अनुभव साझा करते हुए बताया कि किस तरह वे पहले से ही तनावग्रस्त रहते हैं और अब अतिरिक्त कार्य समय उनकी जिंदगी और मुश्किल बना देगा.
कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी सरकार से अपील की है कि वह इस कानून पर पुनर्विचार करे और कर्मचारियों की स्थिति को ध्यान में रखते हुए कोई संतुलित समाधान निकाले. उनका कहना है कि उत्पादन और विकास तभी संभव है जब कामगार स्वस्थ और संतुष्ट हों.
स्थिति यहाँ तक पहुँच गई है कि राजनीतिक दलों ने भी इस मुद्दे को हाथों-हाथ लिया है. विपक्षी दलों ने सरकार पर आरोप लगाया है कि वह कॉर्पोरेट घरानों को खुश करने के लिए कर्मचारियों के अधिकारों से समझौता कर रही है. वहीं सरकार का कहना है कि इस फैसले पर सभी पक्षों से चर्चा की गई थी और आवश्यक सुरक्षा उपाय भी इसमें शामिल हैं.
कुल मिलाकर यह मुद्दा अब केवल एक प्रशासनिक निर्णय न रहकर एक सामाजिक-राजनीतिक बहस का रूप ले चुका है. एक ओर सरकार और उद्योगपति हैं, जो इसे विकास की दिशा में जरूरी कदम मानते हैं, तो दूसरी ओर कर्मचारी और श्रमिक संगठन हैं, जो इसे शोषण की पराकाष्ठा बता रहे हैं.
यह साफ है कि आने वाले दिनों में यह विवाद और गहराएगा. यदि सरकार कर्मचारियों की मांगों को नज़रअंदाज़ करती रही तो न केवल विरोध प्रदर्शन तेज होंगे बल्कि यह राजनीतिक मुद्दा भी बन सकता है. और यदि सरकार पीछे हटती है, तो उद्योग जगत में असंतोष पैदा होगा.
आख़िरकार, यह मामला उस संतुलन को तलाशने का है जिसमें उद्योग जगत को आवश्यक लचीलापन मिले और कामगारों का जीवन भी सुरक्षित और सम्मानजनक बना रहे. महाराष्ट्र सरकार के इस फैसले ने यह बहस ज़रूर छेड़ दी है कि विकास की दौड़ में इंसानियत और श्रमिक अधिकारों की जगह कहाँ है.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

