चंडीगढ़ की पंजाब यूनिवर्सिटी में इस वर्ष छात्र राजनीति के चुनाव परिणामों ने एक ऐतिहासिक मोड़ ले लिया. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने पहली बार पिछले 48 वर्षों में विश्वविद्यालय छात्र परिषद के अध्यक्ष पद पर कब्जा जमाया है. यह जीत महज़ एक चुनावी परिणाम नहीं, बल्कि विश्वविद्यालय परिसर के बदलते छात्रीय दृष्टिकोण और राष्ट्रीय राजनीति की परछाइयों का भी संकेत मानी जा रही है.
27 वर्षीय गौरव वीर सोहल ने 3,148 मतों के बड़े अंतर से जीत दर्ज की और अध्यक्ष पद हासिल किया. यह आंकड़ा अपने आप में दर्शाता है कि लंबे समय से वामपंथी और क्षेत्रीय छात्र संगठनों के प्रभाव वाले इस कैंपस में अब विचारधाराओं का समीकरण धीरे–धीरे बदल रहा है.
चुनाव परिणाम के बाद से ही सोशल मीडिया पर #ABVPWinsPU, #GauravVeerSohal और #PunjabUniversity जैसे हैशटैग ट्रेंड करने लगे. समर्थक इसे एबीवीपी की वैचारिक पकड़ और संगठनात्मक ताक़त का प्रमाण मान रहे हैं, वहीं विरोधी पक्ष इसे विश्वविद्यालय की पारंपरिक छात्र राजनीति के लिए ‘चुनौतीपूर्ण दौर’ बता रहे हैं.
पंजाब यूनिवर्सिटी की छात्र राजनीति देशभर में एक मिसाल मानी जाती रही है. यहां से कई दिग्गज नेता निकले हैं, जिन्होंने बाद में राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पहचान बनाई. लेकिन पिछले 48 वर्षों में कभी भी एबीवीपी को अध्यक्ष पद हासिल नहीं हो पाया था. वामपंथी गुटों, क्षेत्रीय संगठनों और स्वतंत्र पैनलों का दबदबा रहा. इस बार के चुनाव परिणाम ने इस लंबे दौर को पलट कर रख दिया है.
गौरव वीर सोहल ने जीत के बाद कहा कि यह सिर्फ़ व्यक्तिगत विजय नहीं है, बल्कि एक विचारधारा और छात्र हितों के संघर्ष की जीत है. उन्होंने भरोसा दिलाया कि विश्वविद्यालय में शैक्षणिक सुधार, छात्र कल्याण योजनाएँ और रोजगारोन्मुख गतिविधियाँ उनकी प्राथमिकता रहेंगी.
सोशल मीडिया पर कई छात्रों ने इस परिवर्तन को ‘नई पीढ़ी की आवाज़’ करार दिया. उनका कहना है कि अब विश्वविद्यालयों के छात्र भी मुख्यधारा की राष्ट्रीय राजनीति से प्रभावित होकर अपने प्रतिनिधि चुन रहे हैं. वहीं, कुछ अन्य छात्र इसे ‘संगठन आधारित राजनीति की घुसपैठ’ कह रहे हैं और मानते हैं कि विश्वविद्यालय परिसर में केवल शैक्षणिक और छात्र मुद्दों पर ही राजनीति होनी चाहिए.
पंजाब जैसे राज्य में, जहां क्षेत्रीय और धार्मिक पहचान लंबे समय से राजनीतिक विमर्श को प्रभावित करती रही है, वहां एबीवीपी की यह जीत और भी अहम मानी जा रही है. विश्लेषक मानते हैं कि यह बदलाव राज्य के युवा मतदाताओं की सोच में आए परिवर्तन को दर्शाता है. खासकर राष्ट्रीय स्तर की नीतियों और छात्र–हितैषी योजनाओं ने एबीवीपी को छात्रों तक पहुंच बनाने में मदद की है.
इस जीत के साथ ही विपक्षी छात्र संगठनों को बड़ा झटका लगा है. विशेषकर वामपंथी और स्थानीय पैनलों को अपने आधार पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है. छात्र राजनीति विशेषज्ञ मानते हैं कि यह जीत महज़ एक चुनावी उपलब्धि नहीं, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में एबीवीपी के लिए एक मनोवैज्ञानिक जीत भी है, क्योंकि विश्वविद्यालय परिसरों को हमेशा वैचारिक प्रयोगशाला माना जाता है.
इस चुनाव ने यह भी साबित किया कि सोशल मीडिया की भूमिका अब विश्वविद्यालय स्तर के चुनावों में निर्णायक होती जा रही है. एबीवीपी के कैंपेन में डिजिटल माध्यमों का सशक्त प्रयोग किया गया था. फेसबुक लाइव, इंस्टाग्राम रील्स और व्हाट्सएप ग्रुप्स के जरिए छात्रों तक लगातार संदेश पहुँचाए गए. वहीं दूसरी तरफ विरोधी पैनल इस मामले में कुछ पीछे रह गए.
पंजाब यूनिवर्सिटी की गलियों और कैंपस में अब इस ऐतिहासिक जीत की चर्चा है. छात्र–छात्राएँ इस नतीजे को लंबे समय तक याद रखेंगे क्योंकि इसने एक यथास्थिति को तोड़ा है और छात्र राजनीति के नए दौर की शुरुआत की है.
कुल मिलाकर, एबीवीपी की यह जीत केवल एक संगठन की विजय नहीं बल्कि एक व्यापक संदेश है—कि छात्र राजनीति अब बदल रही है, उसके मुद्दे बदल रहे हैं और राष्ट्रीय राजनीति की धारा विश्वविद्यालय परिसरों में अधिक गहराई से प्रवेश कर चुकी है. यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले वर्षों में यह परिवर्तन किस तरह राज्य और राष्ट्रीय स्तर की राजनीति को प्रभावित करता है.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

