पटना: आगामी बिहार विधानसभा चुनाव की उलटी गिनती के बीच, पटना की चुनावी हवा एक विरोधाभास दिखा रही है: यहाँ के मतदाता बदलाव की बात कर रहे हैं, अधिक विकास की मांग कर रहे हैं, लेकिन इस बदलाव को लाने वाले मुख्य एजेंट के रूप में वे चुनौती देने वाले प्रतिद्वंद्वियों के बजाय निवर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को ही देख रहे हैं। यह एक ऐसी राजनीतिक स्थिति है जहाँ किसी भी प्रतिद्वंद्वी के पास "पुराने को बाहर करने" या "नए को अंदर लाने" वाला कोई प्रबल भावनात्मक तर्क या राजनीतिक शून्य मौजूद नहीं है।
पटना: विकास का एक अपूर्ण द्वीप
गरीब शहरीकरण वाले राज्य में, पटना पिछले कुछ वर्षों में दृश्यमान विकास के एक द्वीप के रूप में उभरा है। शहर ने शॉपिंग मॉल, विशाल संग्रहालय, देर रात तक खुले रहने वाले कैफे और रिवर फ्रंट पर "मरीन ड्राइव" जैसे शहरी सार्वजनिक स्थान देखे हैं।बावजूद इसके, मतदाताओं से बातचीत में "विकास की अपूर्णता" का बोध हावी रहता है। सबसे बड़ा सवाल यही है कि बिहार के युवाओं को बेहतर शिक्षा और नौकरियों के लिए क्यों बेंगलुरु, नोएडा या चेन्नई जाना पड़ता है? राज्य की जर्जर शिक्षा प्रणाली अभी भी युवाओं की आकांक्षाओं के आड़े क्यों आ रही है?
यह महत्वपूर्ण है कि ये सवाल न केवल विपक्ष के समर्थकों द्वारा, बल्कि नीतीश कुमार पर भरोसा जताने वालों द्वारा भी पूछे जा रहे हैं। 20 वर्षों के कार्यकाल के बावजूद, अगर "बदलाव का सवाल" अभी भी नीतीश कुमार को ही संबोधित है, न कि उनके विरोधियों को, तो यह इस चुनाव में उनकी सबसे बड़ी उम्मीद है।
नीतीश की तीन सफलता की कहानियाँ
नीतीश कुमार इस चुनाव में तीन व्यापक सफलता की कहानियों के स्वामित्व पर निर्भर हैं:
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कानून-व्यवस्था में सुधार: "जंगल राज" की धारणा से राज्य को बाहर निकालने का श्रेय।
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दृश्यमान बुनियादी ढांचा: बिजली, सड़कें, पुल और फ्लाईओवर का व्यापक निर्माण।
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महिला सशक्तिकरण: महिलाओं पर केंद्रित सब्सिडी और योजनाओं (जैसे नवीनतम महिला रोजगार योजना) के माध्यम से एक मजबूत महिला वोट बैंक बनाना।
हालाँकि, इस स्वीकारोक्ति में जातिगत विभाजन है। यादवों के बीच यह समर्थन लगभग अनुपस्थित है, और मुसलमानों के बीच प्रतिक्रिया मिश्रित है। साथ ही, सरकारी योजनाओं की डिलीवरी में कमियाँ और रिसाव (patchy and leaky delivery) भी उनके रिकॉर्ड पर एक दाग है।
विरोधियों का बोझ: पुरानापन और नयापन
नीतीश के प्रतिद्वंद्वियों के पास अपने-अपने बोझ हैं:
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तेजस्वी यादव (पुरानापन): उन्हें अभी भी "यादव राज" और संस्थाओं के पतन के दिनों की विरासत से जूझना पड़ रहा है, जिसमें गैर-यादव जातियों को एकजुट करने की क्षमता है।
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प्रशांत किशोर (नयापन): जन सुराज के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के बावजूद, कई मतदाताओं (विशेषकर काम के लिए पलायन कर चुके युवाओं) द्वारा उन्हें बहुत नया, आजमाया हुआ नहीं और जटिल राज्य की चुनौतियों के लिए अनुभवहीन माना जाता है।
किशोर की पार्टी को एक विशेष चुनौती का सामना करना पड़ रहा है: बदलाव की सबसे मजबूत मांग युवाओं में है, लेकिन बड़ी संख्या में युवाओं के पलायन के कारण, वे इस चुनावी मौसम में वोट डालने के लिए राज्य में मौजूद नहीं हो सकते हैं।
राजनीतिक शून्य का अभाव
पटना के दृष्टिकोण से, विपक्षी दलों के लिए सर्वश्रेष्ठ परिदृश्य अभी दूर है। यहाँ कोई भी ऐसी लहर नहीं दिखती जो पुराने को पूरी तरह से साफ कर दे, या कोई राजनीतिक शून्य नहीं है जो नए को स्थापित कर सके।
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प्रशांत किशोर के तीन साल के जमीनी लामबंदी ने दिल्ली के अन्ना आंदोलन जैसी चिंगारी नहीं छोड़ी है।
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राजद, कांग्रेस की तरह ढहने की स्थिति में नहीं दिखती, क्योंकि उसका मुस्लिम-यादव आधार अभी भी मजबूत है।
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भले ही नीतीश कुमार अपनी ही राजनीतिक उठापटक से घिरे हों, लेकिन उनके प्रति कोई दृश्यमान जन-आक्रोश (Rage) नहीं है।
महत्वपूर्ण रूप से, नीतीश कुमार को उनके बड़े और शक्तिशाली सहयोगी, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा से समर्थन मिल रहा है, जो केंद्र में सत्ता में है और बिहार को आवश्यक संसाधन प्रदान करती है। यह गठबंधन नीतीश की स्थिति को और मजबूत करता है, जिससे बदलाव चाहने वाले मतदाता भी अंततः उन्हें ही बदलाव का एकमात्र व्यावहारिक एजेंट मानते हैं।
जातीय समीकरण और महागठबंधन की स्थिति
निश्चित रूप से। बिहार चुनाव में जातीय समीकरण और महागठबंधन (या विरोधी गठबंधन) की वर्तमान स्थिति हमेशा ही निर्णायक होती है। पटना के राजनीतिक माहौल के आधार पर इन पहलुओं का विस्तृत विश्लेषण यहाँ दिया गया है:
जातीय समीकरण: किसका आधार मज़बूत?
बिहार की राजनीति में जातिगत पहचान एक मूलभूत कारक है, और वर्तमान चुनावी परिदृश्य में मुख्य रूप से तीन ध्रुव बने हुए हैं:
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राजद का मुस्लिम-यादव (M-Y) आधार:
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यादव और मुस्लिम मतदाता पारंपरिक रूप से राष्ट्रीय जनता दल (RJD) का मुख्य आधार रहे हैं।
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विश्लेषण से पता चलता है कि यह आधार अभी भी काफी हद तक बरकरार है, और RJD के कांग्रेस की तरह ढह जाने की कोई संभावना नहीं दिखती।
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यही कारण है कि तेजस्वी यादव के लिए चुनौती बाहरी नहीं, बल्कि अपने ही गठबंधन के बाहर शेष गैर-यादव मतदाताओं को आकर्षित करने की है।
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नीतीश-भाजपा गठबंधन (NDA) का व्यापक आधार:
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जनता दल यूनाइटेड (JDU) और भारतीय जनता पार्टी (BJP) का गठबंधन अत्यधिक सफल रहा है क्योंकि यह यादव और मुस्लिम वोटों को छोड़कर बाकी सभी जातियों में प्रवेश करता है।
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नीतीश कुमार का ध्यान अति-पिछड़ा वर्ग (EBC) और महिला मतदाताओं पर केंद्रित है, जिन्हें उन्होंने कल्याणकारी योजनाओं (जैसे महिला रोजगार योजना) के माध्यम से लामबंद किया है।
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BJP मुख्य रूप से उच्च जातियों (Upper Castes) और अन्य गैर-यादव ओबीसी (OBC) का समर्थन लाती है।
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यह व्यापक गठबंधन ही नीतीश को उस स्थिति में मज़बूती देता है, जहाँ उनकी व्यक्तिगत लोकप्रियता कम होने पर भी, गठबंधन की संयुक्त ताकत उन्हें प्रतिद्वंद्वियों से आगे रखती है।
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जातिगत ध्रुवीकरण का जोखिम:
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एक प्रमुख डर यह है कि RJD के नेतृत्व में कोई भी सरकार फिर से "यादव राज" के पुराने दिनों की याद दिला सकती है, जहाँ अन्य जातियों को हाशिए पर महसूस करना पड़ा था।
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यह डर गैर-यादव समुदाय को स्वचालित रूप से BJP-JDU गठबंधन के पक्ष में ध्रुवीकृत कर देता है, जिससे नीतीश कुमार की कमियों को नजरअंदाज करना आसान हो जाता है।
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महागठबंधन (विपक्ष) की वर्तमान स्थिति
वर्तमान में, विपक्षी दलों के महागठबंधन में कोई प्रबल भावनात्मक या वैचारिक तर्क दिखाई नहीं देता है जो मतदाताओं को पुरानी सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए प्रेरित कर सके।
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कमज़ोर सामूहिक आक्रमण: विपक्ष एकजुट होकर नीतीश कुमार के 20 साल के शासन के खिलाफ कोई निर्णायक और एकतरफा आक्रमण नहीं कर पाया है। वे विकास की अपूर्णता पर सवाल उठाते हैं, लेकिन नीतीश के कानून-व्यवस्था और महिला सशक्तिकरण के रिकॉर्ड को पूरी तरह से नकार नहीं पाते हैं।
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नेतृत्व पर संदेह: तेजस्वी यादव की नेतृत्व क्षमता और "जंगल राज" की पिछली विरासत मतदाताओं के एक बड़े हिस्से, खासकर उच्च जातियों और अति-पिछड़ा वर्ग में, अभी भी संदेह पैदा करती है। यह संदेह बदलाव की इच्छा को भी रूढ़िवाद (Playing it Safe) की ओर मोड़ देता है, जिससे मतदाता सुरक्षित विकल्प के तौर पर NDA को चुन सकते हैं।
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जन सुराज का प्रभाव: प्रशांत किशोर का जन सुराज चुनावी दौड़ में एक नया और अनिश्चित तत्व है। हालाँकि उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है, लेकिन वे अभी तक "राजनीतिक शून्य" पैदा करने में असमर्थ रहे हैं। उनकी नई पार्टी को मतदाताओं के बीच विश्वसनीयता बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है, खासकर तब जब RJD का आधार ढह नहीं रहा है (जैसा कि दिल्ली में कांग्रेस का हुआ था)। जन सुराज युवा मतदाताओं को आकर्षित कर सकता है, लेकिन उन युवाओं का बड़ा हिस्सा राज्य से बाहर होने के कारण, उनका वोट निर्णायक नहीं हो सकता है।
पटना से दिख रहे राजनीतिक माहौल के अनुसार, जातीय समीकरण NDA के पक्ष में हैं, क्योंकि यह गठबंधन यादवों और मुसलमानों को छोड़कर शेष मतदाताओं के बीच विश्वसनीयता और संसाधनों का मिश्रण पेश करता है, जबकि विपक्ष एक मजबूत एकजुट वैकल्पिक कथा पेश करने में विफल रहा है।
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

