युवा पीढ़ी का ‘डिलीट डे’ आंदोलन सोशल मीडिया से मुक्ति की ओर बढ़ता कदम

युवा पीढ़ी का ‘डिलीट डे’ आंदोलन सोशल मीडिया से मुक्ति की ओर बढ़ता कदम

प्रेषित समय :20:43:10 PM / Tue, Oct 28th, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

न्यूयॉर्क. डिजिटल युग में पले-बढ़े युवाओं के लिए सोशल मीडिया जीवन का एक अहम हिस्सा बन चुका है, लेकिन अब वही पीढ़ी इससे दूरी बनाने की मुहिम छेड़ रही है. अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में शुरू हुआ ‘डिलीट डे’ आंदोलन तेजी से वैश्विक चर्चा का विषय बन गया है. इस अनोखी पहल में हजारों युवाओं ने एक तय दिन पर अपने फोन से सभी सोशल मीडिया एप्लिकेशन — जैसे इंस्टाग्राम, स्नैपचैट, एक्स (ट्विटर), टिकटॉक और फेसबुक — को हटाने का सामूहिक निर्णय लिया. उद्देश्य था डिजिटल निर्भरता से मुक्ति और वास्तविक मानवीय संबंधों की पुनर्स्थापना.

‘डिलीट डे’ की शुरुआत कुछ कॉलेज छात्रों ने की थी, जिन्होंने महसूस किया कि उनकी जिंदगी का बड़ा हिस्सा लगातार ऑनलाइन मौजूद रहने में बीत जाता है. हर पल नोटिफिकेशन, लाइक्स और कमेंट्स की दौड़ ने उनकी मानसिक शांति को छीन लिया था. इस अभियान के मुख्य आयोजकों में शामिल 22 वर्षीय जेसिका मॉरिस ने कहा, “हमारा पूरा दिन दूसरों की जिंदगी देखने और खुद को साबित करने में निकल जाता है. अब वक्त है असली रिश्तों और सच्चे अनुभवों की ओर लौटने का.” यह बयान इस आंदोलन के सार को उजागर करता है — तकनीक के अति-प्रयोग से उपजी थकान के खिलाफ युवा वर्ग की प्रतिक्रिया.

‘डिलीट डे’ के पीछे मनोवैज्ञानिक आधार भी है. अमेरिकी सामाजिक मनोवैज्ञानिक जोनाथन हाइट, जिन्होंने हाल ही में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट “द एनकनेक्टेड जेनरेशन” में युवाओं में बढ़ते डिजिटल तनाव का उल्लेख किया था, का कहना है कि सोशल मीडिया का अत्यधिक उपयोग चिंता, अवसाद और आत्मसम्मान की कमी जैसी समस्याओं को जन्म दे रहा है. हाइट के अनुसार, “Gen Z वह पीढ़ी है जो इंटरनेट के साथ बड़ी हुई है, लेकिन अब वही यह महसूस कर रही है कि वास्तविक जीवन स्क्रीन के पार है.”

इस आंदोलन की खास बात यह रही कि इसे किसी संगठन या राजनीतिक विचारधारा ने नहीं, बल्कि युवाओं ने स्वयं शुरू किया. विश्वविद्यालय परिसरों में छात्रों ने अपने मोबाइल से एप हटाते हुए वीडियो साझा किए, जिनमें वे कहते दिखे, “अब हम असली दुनिया में मिलेंगे.” कई कॉलेजों ने इस पहल को ‘डिजिटल डिटॉक्स वीक’ के रूप में मनाया. छात्रों ने पार्कों में समूह गतिविधियाँ, ऑफलाइन गेम्स, म्यूजिक सेशन और ओपन-डिस्कशन आयोजित किए.

सोशल मीडिया कंपनियों ने इस ट्रेंड पर कोई औपचारिक प्रतिक्रिया नहीं दी है, लेकिन डिजिटल विश्लेषकों का मानना है कि यह आंदोलन तकनीकी उद्योग के लिए चेतावनी संकेत है. पिछले कुछ वर्षों से इंस्टाग्राम और टिकटॉक जैसी एप्लिकेशन युवाओं को लंबे समय तक स्क्रीन पर बांधे रखने के लिए एल्गोरिद्म आधारित सामग्री दिखाती रही हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि अब यह मॉडल चुनौती के दौर में है क्योंकि उपयोगकर्ता ‘डिजिटल बर्नआउट’ का अनुभव कर रहे हैं.

Business Insider की रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि ‘डिलीट डे’ केवल एक दिन का आयोजन नहीं, बल्कि एक सामाजिक प्रयोग है जो डिजिटल युग की दिशा बदल सकता है. रिपोर्ट के अनुसार, जिन युवाओं ने इस आंदोलन में भाग लिया, उनमें से 63% ने कहा कि उन्हें अगले ही दिन “मानसिक हल्कापन” महसूस हुआ. लगभग आधे प्रतिभागियों ने यह भी बताया कि उन्होंने नींद में सुधार और एकाग्रता में वृद्धि अनुभव की.

भारत सहित कई देशों के युवाओं ने भी इस आंदोलन में रुचि दिखाई. इंस्टाग्राम और एक्स (ट्विटर) पर #DeleteDay2025 हैशटैग ट्रेंड करने लगा, हालांकि इसमें विडंबना यह रही कि सोशल मीडिया से दूरी के आंदोलन को प्रचारित करने के लिए भी सोशल मीडिया का ही उपयोग हुआ. कई भारतीय यूज़र्स ने लिखा, “हम भी एक दिन सोशल मीडिया फ्री होकर देखना चाहते हैं कि असली जिंदगी कैसी लगती है.”

मनोचिकित्सकों के अनुसार, यह आंदोलन आधुनिक समाज के ‘डोपामाइन अर्थशास्त्र’ के खिलाफ एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है. लगातार मिलने वाले नोटिफिकेशन और फीडबैक दिमाग में डोपामाइन नामक रसायन का स्तर बढ़ाते हैं, जो अस्थायी सुख देता है, लेकिन लंबे समय में यह मानसिक थकान और असंतोष का कारण बनता है. विशेषज्ञ मानते हैं कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म युवाओं को इस सुख के चक्र में फंसा रहे हैं. जब Gen Z इस चक्र से बाहर निकलने का प्रयास करती है, तो यह मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक सकारात्मक संकेत है.

‘डिलीट डे’ की गूंज अब केवल अमेरिका तक सीमित नहीं है. यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और एशिया के कुछ हिस्सों में भी युवाओं ने इसे अपनाया है. भारत के कई विश्वविद्यालयों में छात्रों ने “नो सोशल मीडिया फ्राइडे” या “रियल कनेक्शन मंडे” जैसे अभियान शुरू किए हैं. नई दिल्ली स्थित एक मीडिया छात्रा ने कहा, “हमने महसूस किया कि सोशल मीडिया हमें जोड़ने के बजाय अलग-थलग कर रहा है. अब हम एक-दूसरे से सीधे मिलना और बातचीत करना ज्यादा पसंद करते हैं.”

डिजिटल विशेषज्ञों का कहना है कि यह आंदोलन अस्थायी नहीं बल्कि दीर्घकालिक सामाजिक बदलाव की शुरुआत हो सकता है. टेक कंपनियाँ अब ऐसे प्लेटफॉर्म विकसित करने की दिशा में सोच रही हैं जो उपयोगकर्ता के समय और मानसिक स्वास्थ्य का सम्मान करें. कुछ ऐप्स पहले ही “यूज़ टाइम लिमिट” और “माइंडफुल स्क्रॉलिंग” जैसे फीचर्स लॉन्च कर चुकी हैं.

हालाँकि आलोचकों का मानना है कि सोशल मीडिया पूरी तरह छोड़ देना यथार्थवादी समाधान नहीं है, क्योंकि यह अब सूचना, करियर, शिक्षा और संवाद का महत्वपूर्ण माध्यम बन चुका है. उनका तर्क है कि “डिलीट डे” जैसे अभियानों को पूरी तरह त्याग के बजाय “संतुलित उपयोग” की दिशा में ले जाना चाहिए.

फिर भी, यह undeniable तथ्य है कि दुनिया के करोड़ों युवाओं में यह आंदोलन एक चेतना जगाने में सफल रहा है. यह पहली बार है जब Gen Z जैसी तकनीकी रूप से सक्षम पीढ़ी ने खुलकर कहा है — “हम अब अपने फोन के गुलाम नहीं रहना चाहते.”

न्यूयॉर्क से शुरू हुआ यह संदेश अब वैश्विक स्तर पर फैल रहा है कि डिजिटल युग में भी मनुष्य का असली मूल्य उसके ऑफलाइन अस्तित्व में है. ‘डिलीट डे’ केवल एप हटाने का दिन नहीं, बल्कि आत्मचिंतन और आत्ममुक्ति का प्रतीक बन गया है — एक ऐसी पुकार जो शायद आने वाले वर्षों में डिजिटल संस्कृति की दिशा ही बदल दे.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-