अजय कुमार.
बिहार की राजनीति हमेशा देश की सबसे दिलचस्प प्रयोगशाला रही है, जहाँ सत्ता, जाति, संघर्ष और गठबंधन की कहानी हर चुनाव के साथ नया रंग लेती है. लेकिन इस बार खेल सिर्फ चुनाव मैदान में नहीं, बल्कि ओटीटी प्लेटफॉर्म पर भी दिख रहा है. 7 नवंबर को सोनी लिव पर रिलीज हुई “महारानी सीजन 4” को देखिए कहानी बिहार की है, पर निशाने पर दिल्ली है. यह वही समय है जब बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के पहले चरण का मतदान 6 नवंबर को हुआ था और दूसरा चरण 11 नवंबर को होने वाला है. आंकड़े बताते हैं कि पहले चरण में रिकॉर्ड 64.66% वोटिंग हुई, जो राज्य के इतिहास में अब तक की सबसे ऊँची है. ऐसे में मतदान के बीच इस सीरीज का रिलीज होना महज़ संयोग नहीं लगता. इसमें दिखाया गया कथानक आम दर्शक के मन में एक राजनीतिक सन्देश छोड़ता है कि बिहार की दुर्दशा की जड़ें दिल्ली की सत्ता में हैं, केंद्र की नीतियाँ ही राज्य को पीछे रखती हैं, और जो नेता बिहार की “इज्जत” के लिए लड़े, वही असली नायक हैं. यही परत “महारानी 4” को सिर्फ मनोरंजन भर नहीं रहने देती, बल्कि उसे एक सधी हुई राजनीतिक कथा में बदल देती है, जो जनमानस की धारणा को प्रभावित करने वाला औजार साबित हो सकती है.
महारानी 4 में कहानी रानी भारती (हुमा कुरैशी) की है, जो बिहार की मुख्यमंत्री हैं. वह एक बार फिर अपने राज्य को विकास की राह पर लाने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन केंद्र की राजनीति उनके रास्ते में दीवार बन जाती है. प्रधानमंत्री सुधाकर श्रीनिवास जोशी (विपिन शर्मा) दिल्ली में बैठे वह ताकतवर किरदार हैं, जिनके पास सत्ता, संसाधन और एजेंसियों की पूरी मशीनरी है. जोशी का चरित्र एक सशक्त, पर अत्यंत चालाक प्रधानमंत्री का है, जो राज्य की राजनीति को अपनी मुट्ठी में रखने के लिए सीबीआई और ईडी जैसी संस्थाओं का इस्तेमाल करता है. जब रानी बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग करती हैं और प्रधानमंत्री के गठबंधन प्रस्ताव को लाइव टेलीविज़न पर ठुकरा देती हैं, तो कहानी में राजनीतिक युद्ध शुरू हो जाता है. सीरीज में दिखाया गया है कि केंद्र सरकार बिहार के विकास फंड रोक देती है और राज्य एक-एक रुपये के लिए तरसता है. यही दृश्य आम दर्शक के मन में यह सवाल पैदा करता है क्या बिहार वाकई केंद्र की नीतियों का शिकार है? यही वह भावनात्मक बिंदु है जिस पर यह शो अपने दर्शक को बाँध लेता है. बिहार की राजनीति को करीब से देखने वाले जानते हैं कि विशेष राज्य का दर्जा लंबे समय से राज्य की मांग रही है, लेकिन अब तक किसी सरकार ने इसे मंजूरी नहीं दी. ऐसे में सीरीज उस भावनात्मक घाव को कुरेदती है जो हर बिहारी के भीतर है “हमारे हिस्से का विकास हमें नहीं मिला.” यही वह हिस्सा है जहाँ यह राजनीतिक समानांतर और भी स्पष्ट हो जाता है. पीएम जोशी के नेतृत्व में उन्हें 232 सीटें मिलती दिखाया गया है. गौरतलब है कि एनडीए को 2024 लोकसभा चुनावों में 234 सीटें प्राप्त हुई थीं. जिस तरह एनडीए का साथ देने के लिए बिहार के सीएम नीतीश कुमार और आंध्र के सीएम चंद्रबाबू सामने आते हैं, उसी तरह महारानी सीरीज में बंगाल और तमिलनाडु के सीएम सपोर्ट में आते हैं. पीएम जोशी को अपने स्किन पर विशेष ध्यान रखने वाला और कपड़ों को लेकर बेहद सजग दिखाया गया है. सोशल मीडिया पर लिखा जा रहा है कि ऐसा सब पीएम मोदी को टारगेट करने के लिए किया गया है.
यहां तक तो कथा यथार्थ के करीब लगती है, लेकिन इसके बाद जो रंग भरे जाते हैं, वे स्पष्ट रूप से केंद्र सरकार को नकारात्मक रूप में पेश करते हैं. प्रधानमंत्री जोशी को ‘जुमलेबाज’, ‘तानाशाह’ और ‘एजेंसियों के दुरुपयोगकर्ता’ के रूप में दिखाया गया है. यहां तक कि उन्हें अपनी “स्किन केयर” और “कपड़ों” के प्रति सजग दिखाना भी एक व्यंग्यात्मक इशारा है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सार्वजनिक छवि पर तंज करता हुआ लगता है. सोशल मीडिया पर भी यही बहस चल रही है कि यह किरदार मोदी की छवि पर सीधा हमला है. ट्विटर (अब X) पर बीजेपी समर्थक यूजर @UpendraMPradhan ने लिखा, “यह सीरीज प्योर प्रोपगैंडा है, बिहार चुनावों के लिए बनी है, जिसमें पीएम को बिहार को नष्ट करने वाला दिखाया गया है.” विपक्ष समर्थक कई हैंडल्स ने उल्टा तर्क दिया कि यह सीरीज “यथार्थ की झलक” दिखाती है, जहाँ एजेंसियों के डर से राजनीतिक विरोधी दबाए जाते हैं. यही दो ध्रुवों के बीच की बहस इस सीरीज की सबसे बड़ी सफलता है उसने चर्चा छेड़ दी है, और उस चर्चा में चुनावी हवा शामिल हो गई है. रोशनी को तेजस्वी यादव जैसी युवा लीडरशिप के रूप में पेश किया गया है. नवीन कुमार का किरदार नीतीश कुमार या किसी ऐसे राइवल नेता से मेल खाता है जो पीएम से एलाइड हो जाता है. यह समानता कहानी को और भी यथार्थ के करीब लाती है, जहाँ सत्ता, गठबंधन और अवसरवाद की राजनीति का आईना दर्शक के सामने रखा गया है.
वंशवाद के पहलू पर भी कहानी दिलचस्प मोड़ लेती है. रानी भारती अपने पद से इस्तीफा देकर अपनी बेटी रोशनी को मुख्यमंत्री बनाती हैं. यह लालू-राबड़ी-तेजस्वी की राजनीति की याद दिलाता है. आम तौर पर जनता वंशवाद पर सवाल उठाती है, लेकिन सीरीज इसे एक “परिवार की जिम्मेदारी” के रूप में प्रस्तुत करती है. यानी दर्शक को यह समझाया जाता है कि जब नेता भ्रष्ट तंत्र से घिरे हों, तब अपने परिवार को आगे लाना गलत नहीं. यही वह सॉफ्ट पिच है जो दर्शक के अवचेतन में यह विचार रोपती है कि लालू-राबड़ी या परिवार आधारित राजनीति भी किसी सामाजिक “कर्तव्य” का रूप है. अब अगर आप चुनावी समय, कथा का भावनात्मक केंद्र और कथानक की दिशा इन तीनों को जोड़ें, तो यह कहानी केवल कल्पना नहीं बल्कि एक राजनीतिक उपकरण की तरह दिखने लगती है. ओटीटी के पास अब गाँव-गाँव तक पहुँच है. बिहार जैसे राज्य में, जहाँ मोबाइल इंटरनेट का इस्तेमाल तेज़ी से बढ़ा है, युवाओं की बड़ी संख्या ऐसी सीरीज देखती है. डेटा बताता है कि बिहार में इंटरनेट उपयोगकर्ता 2024 तक 6.3 करोड़ से अधिक हो चुके थे, और ग्रामीण हिस्से में 72% युवा स्मार्टफोन से कंटेंट देखते हैं. यानी एक सीरीज, जो बिहार की भावना से जुड़ी है, उसका असर ज़मीनी राजनीति तक जा सकता है.
यह भी ध्यान देने योग्य है कि भारत में फिल्मों और वेब सीरीज की रिलीज टाइमिंग अक्सर रणनीतिक रही है. चुनावी सीजन में चाहे राजनीति , तांडव या द केरल स्टोर जैसी फिल्में हों, उनका विमोचन अक्सर किसी जन-भावना को दिशा देने के लिए किया जाता है. महारानी 4 की रिलीज 7 नवंबर को होना, जब दूसरे चरण के मतदान की तैयारी चल रही थी, निश्चित रूप से एक सोचा-समझा कदम लगता है. खुद सीरीज के निर्माताओं ने कहा कि यह “सबसे भावनात्मक और विवादास्पद सीजन” है, जो बिहार की जनता के दिल से जुड़ता है. अगर आप इसे निष्पक्ष नजरिए से देखें, तो कहानी में कला और राजनीति का घालमेल दोनों मौजूद हैं. एक ओर रानी भारती का संघर्ष, जो केंद्र की “तानाशाही” के खिलाफ आवाज़ उठाती है, दर्शकों को प्रेरक लग सकता है. दूसरी ओर, इसका प्रतीकात्मक संदेश यह भी देता है कि केंद्र सरकार एजेंसियों का इस्तेमाल विपक्ष को खत्म करने के लिए करती है. यही संदेश अगर बिहार चुनाव से कुछ दिन पहले फैलता है, तो वह चुनावी हवा को प्रभावित कर सकता है. फिल्म और सीरीज का प्रभाव सीधा वोट में नहीं बदलता, पर यह धारणा बनाता है. राजनीति में धारणा ही सबसे बड़ा हथियार होती है. अगर कोई दर्शक यह मान लेता है कि “केंद्र बिहार को नजरअंदाज कर रहा है,” तो वह वोट डालते समय अपने मन में वही पीड़ा रखता है. इसी कारण ऐसे कंटेंट की रिलीज टाइमिंग पर सवाल उठते हैं.
फिर सवाल यह भी उठता है कि क्या इस तरह की सीरीज पर कोई सेंसर या समीक्षा होनी चाहिए? क्या ओटीटी प्लेटफॉर्म पर राजनीतिक संतुलन की ज़रूरत है? सरकारों ने पहले भी इस पर चर्चा की है, लेकिन ओटीटी की आज़ादी का हवाला देकर यह मुद्दा हर बार ठंडा पड़ जाता है. महारानी 4 इस मायने में एक केस स्टडी है कैसे एक कहानी, जो सतह पर काल्पनिक है, असल में सियासी माहौल को बदलने की ताकत रखती है. इस सीरीज ने बिहार के विकास, विशेष राज्य दर्जे और केंद्र-राज्य रिश्तों को फिर चर्चा में ला दिया है. यह अच्छी बात है कि जनता इन विषयों पर बात कर रही है, लेकिन चिंता यह भी है कि क्या यह बातचीत तथ्यों पर आधारित है या भावनाओं पर. कला को राजनीति से अलग रखना हमेशा आसान नहीं होता, लेकिन जब कला राजनीति का औजार बन जाए, तब लोकतंत्र को सोचना पड़ता है हम कहानी देख रहे हैं या सियासत की पटकथा पढ़ रहे हैं.

