जबलपुर. जबलपुर के समीप एक निजी अस्तबल में हुई घोड़ों की मौतों के मामले ने पूरे मध्यप्रदेश में हलचल मचा दी है। यह मामला न केवल पशु-संवेदना और प्रशासनिक लापरवाही का उदाहरण बन गया है, बल्कि न्यायपालिका के हस्तक्षेप और सोशल मीडिया की जन-प्रतिक्रिया के कारण यह अब राज्य-स्तरीय बहस का विषय बन चुका है। मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने इस घटना पर सख्त रुख अपनाते हुए प्रशासन से विस्तृत रिपोर्ट मांगी है। अदालत ने टिप्पणी की कि यह केवल जानवरों की मौत का मामला नहीं, बल्कि जिम्मेदारी और संवेदनशीलता की परीक्षा है।
यह घटना मई 2025 की बताई जा रही है, जब हैदराबाद के एक प्रसिद्ध रेस क्लब से 57 घोड़ों को जबलपुर जिले के पनागर क्षेत्र के भिटौनी गांव के पास स्थित एक निजी अस्तबल में लाया गया था। प्रारंभिक रिपोर्टों के अनुसार, इन घोड़ों की उचित देखभाल नहीं की गई। उन्हें पर्याप्त भोजन, स्वच्छ पानी और चिकित्सकीय निगरानी नहीं मिली। धीरे-धीरे कई घोड़े बीमार पड़ने लगे और कुछ ही सप्ताहों में मौत का सिलसिला शुरू हो गया। स्थानीय पशु चिकित्सकों ने शुरुआत में इसे हीट स्ट्रोक और कुपोषण से जुड़ा मामला बताया था, लेकिन बाद में यह स्पष्ट हुआ कि प्रशासनिक निगरानी की भारी कमी और अस्तबल मालिक की लापरवाही इसकी बड़ी वजह रही।
अभी तक करीब 19 घोड़ों की मौत की पुष्टि हो चुकी है, जबकि कई अन्य कमजोर स्थिति में पाए गए। इस घटना ने सोशल मीडिया पर गहरा असर डाला। इंस्टाग्राम, एक्स (पूर्व ट्विटर), फेसबुक और यूट्यूब पर #HorseDeathsJabalpur और #AnimalRightsMP जैसे हैशटैग ट्रेंड करने लगे। सैकड़ों यूज़र्स ने वीडियो, फोटो और पोस्ट के माध्यम से प्रशासनिक उदासीनता पर सवाल उठाए। कई लोगों ने लिखा कि यह केवल घोड़ों की नहीं, बल्कि इंसानियत की मौत है। कुछ ने सरकार और स्थानीय प्रशासन से यह भी पूछा कि बिना पर्याप्त व्यवस्था के इतने महंगे और संवेदनशील पशुओं को जबलपुर क्यों लाया गया।
सोशल मीडिया पर बढ़ते दबाव और एनजीओ “एनिमल केयर ट्रस्ट” की याचिका पर सुनवाई करते हुए मध्यप्रदेश हाईकोर्ट की जबलपुर खंडपीठ ने राज्य सरकार, जिला प्रशासन और पशु-चिकित्सा विभाग से सात दिनों में विस्तृत रिपोर्ट पेश करने को कहा है। अदालत ने स्पष्ट किया कि यदि किसी अधिकारी या कर्मचारी की लापरवाही सामने आती है, तो उसके खिलाफ विभागीय कार्रवाई की जाएगी। कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि अस्तबल में मौजूद सभी बचे हुए घोड़ों की नियमित जांच और देखभाल सुनिश्चित की जाए। इसके लिए एक स्वतंत्र पशु-चिकित्सक समिति गठित करने का आदेश भी दिया गया है, जो हर सप्ताह रिपोर्ट सौंपेगी।
प्रशासन ने इस घटना से संबंधित प्रारंभिक रिपोर्ट में माना है कि अस्तबल का संचालन एक निजी संस्था द्वारा किया जा रहा था और नगर निगम या किसी सरकारी विभाग का इससे प्रत्यक्ष संबंध नहीं था। हालांकि, यह सवाल अभी भी बना हुआ है कि इतनी बड़ी संख्या में घोड़ों को हैदराबाद से जबलपुर स्थानांतरित करते समय क्या राज्य सरकार या पशु-चिकित्सा विभाग की अनुमति ली गई थी या नहीं। यह बिंदु हाईकोर्ट द्वारा मांगी गई रिपोर्ट का हिस्सा है।
घटना के बाद पशु-कल्याण संगठनों और नागरिक समूहों ने भी विरोध जताया। जबलपुर, भोपाल और इंदौर में कई जगह “Justice for Horses” के बैनर तले प्रदर्शन हुए। कार्यकर्ताओं ने मांग की कि दोषियों के खिलाफ पशु क्रूरता अधिनियम 1960 की धारा 11 और 12 के तहत कड़ी कार्रवाई की जाए। कुछ संगठनों ने यह भी कहा कि घोड़ा-पालन या रेसिंग इंडस्ट्री से जुड़े फार्मों के लिए अलग नियामक व्यवस्था बनाई जानी चाहिए ताकि भविष्य में ऐसी घटनाएँ दोबारा न हों।
इस घटना का सामाजिक प्रभाव गहरा रहा। सोशल मीडिया पर नागरिकों ने सवाल उठाए कि क्या हम अपने समाज में पशुओं को केवल मनोरंजन या दिखावे का साधन समझते हैं? क्या हमारी संवेदना सिर्फ तब जागती है जब मामला अदालत तक पहुंचता है? अनेक लेखकों और शिक्षाविदों ने इसे सामाजिक उदासीनता की मिसाल बताते हुए लिखा कि जब कोई समाज अपने मूक प्राणियों की पीड़ा को नहीं समझता, तो वह धीरे-धीरे अपने मानवीय मूल्यों को खो देता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि यह घटना राज्य में पशु कल्याण नीतियों की कमजोरियों को उजागर करती है। पशु संरक्षण अधिनियम के प्रावधानों के बावजूद अक्सर निजी अस्तबल, डेयरी या रेसिंग क्लब बिना उचित अनुमति और सुविधाओं के जानवरों को रखते हैं। न तो इनके लिए नियमित निरीक्षण की व्यवस्था होती है, न किसी जवाबदेही का ढांचा मौजूद है। यही कारण है कि ऐसी घटनाएं समय-समय पर सामने आती रहती हैं।
प्रभाव के रूप में यह मामला राज्य की शासन व्यवस्था और नीति-निर्माण पर भी असर डाल सकता है। हाईकोर्ट के हस्तक्षेप के बाद संभावना है कि सरकार एक नई “पशु कल्याण नीति” तैयार करे, जिसमें विशेष रूप से विदेशी नस्लों, रेस-ब्रीड या शो एनिमल्स के पालन, परिवहन और चिकित्सा निगरानी के स्पष्ट प्रावधान हों। साथ ही पशु चिकित्सकों की नियुक्ति, प्रशिक्षण और क्षेत्रीय निगरानी की व्यवस्था को भी सुदृढ़ किया जा सकता है।
प्रशासनिक स्तर पर यह अपेक्षा की जा रही है कि एक तीन सदस्यीय जांच समिति गठित की जाए, जिसमें पशु-चिकित्सक, न्यायिक अधिकारी और पशु अधिकार संगठन के प्रतिनिधि शामिल हों। यह समिति न केवल घोड़ों की मौत के वास्तविक कारणों का पता लगाए, बल्कि ऐसी घटनाओं की रोकथाम के लिए दीर्घकालिक उपाय भी सुझाए।
मामले के फॉरेंसिक और मेडिकल रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की भी मांग उठ रही है ताकि अफवाहों पर रोक लग सके और जनता के बीच पारदर्शिता बनी रहे। कई पशु अधिकार कार्यकर्ताओं ने कहा है कि यदि रिपोर्टें सार्वजनिक होंगी तो इससे न केवल प्रशासन की जवाबदेही तय होगी, बल्कि यह एक मिसाल भी बनेगी कि पशु जीवन की भी कीमत होती है।
यह घटना एक बार फिर यह याद दिलाती है कि किसी समाज की संवेदनशीलता का पैमाना इस बात से तय होता है कि वह अपने मूक प्राणियों के साथ कैसा व्यवहार करता है। हाईकोर्ट की सख्ती, मीडिया की सक्रियता और नागरिकों की आवाज़ ने इस घटना को केवल एक पशु-क्रूरता प्रकरण नहीं रहने दिया, बल्कि इसे व्यवस्था और जवाबदेही के प्रतीक के रूप में स्थापित कर दिया।
अब नजरें प्रशासन और न्यायालय की आगे की कार्रवाई पर टिकी हैं। क्या दोषियों को सजा मिलेगी? क्या घोड़ों की देखभाल के लिए स्थायी ढांचा बनेगा? और क्या सरकार इस घटना से सबक लेकर राज्य की पशु नीति को मजबूत करेगी? आने वाले दिनों में इन सवालों के जवाब यह तय करेंगे कि जबलपुर की यह त्रासदी केवल एक खबर बनकर रह जाएगी या बदलाव की शुरुआत साबित होगी।
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

