नई दिल्ली. देश में एसिड अटैक पीड़ितों के अधिकारों, उनके पुनर्वास और न्यूनतम न्यायसंगत सहायता को लेकर सुप्रीम कोर्ट एक बार फिर गंभीरता से सक्रिय हुआ है. बुधवार को शीर्ष अदालत ने उन चिंताजनक हालातों पर स्वतः संज्ञान लिया जिनके तहत एसिड अटैक से बची महिलाएं—जो अधिकतर युवा और आर्थिक रूप से कमजोर पृष्ठभूमि की होती हैं—ना तो सरकार द्वारा तय न्यूनतम तीन लाख रुपये का संपूर्ण मुआवजा पा सकी हैं और ना ही निजी अस्पतालों से वह मुफ्त और अनिवार्य ‘क्रिटिकल केयर’ चिकित्सा, जिसकी गारंटी अदालत स्वयं वर्षों पहले दे चुकी है.
न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस मुद्दे को चिंताजनक बताते हुए राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) से विस्तृत आंकड़े और अद्यतन स्थिति रिपोर्ट मांगी है. अदालत ने पूछा है कि आखिर बार-बार के निर्देशों और कठोर आदेशों के बावजूद मुआवज़े का भुगतान अधूरा क्यों रह जाता है, और क्यों पीड़िताएं निजी अस्पतालों के दरवाज़े पर ठोकरें खाने को मजबूर होती हैं.
अदालत के समक्ष दाखिल याचिका में कहा गया है कि देश के कई राज्यों में एसिड अटैक पीड़ितों को सालों गुजर जाने के बाद भी पूरा मुआवज़ा नहीं दिया गया. कहीं केवल पहली किस्त दी गई, कहीं दूसरी किस्त गायब है और कई मामलों में तीसरी किस्त का कोई पता ही नहीं चलता. राज्यों ने मुआवज़ा योजनाएं तो बना रखी हैं, लेकिन भुगतान के लिए या तो फाइलें अटकी पड़ती हैं या निधि का प्रावधान समय पर नहीं होता. अदालत ने स्पष्ट किया कि तीन लाख रुपये की राशि न्यूनतम है, और यदि पीड़िता की चिकित्सा स्थिति अधिक जटिल हो या सर्जरी की आवश्यकता हो, तो राशि बढ़ाने के आदेश पहले से मौजूद हैं. इसके बावजूद पीड़िताओं को आर्थिक सहायता के लिए लंबी जद्दोजहद करनी पड़ रही है.
पीठ ने यह भी सवाल उठाया कि निजी अस्पताल अदालत के निर्देशों के खिलाफ कैसे जा सकते हैं. 2013 और 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट आदेश दिया था कि देश के सभी निजी अस्पतालों को एसिड अटैक पीड़ितों को प्राथमिक उपचार, आपातकालीन सेवाएं और आवश्यक क्रिटिकल केयर बिना किसी शुल्क के उपलब्ध करानी होगी. ये सेवाएं न सिर्फ मुफ्त होंगी, बल्कि अस्पताल पीड़िता का प्रवेश, उपचार और सर्जरी बिना किसी बहाने के करेंगे. इसके बदले अस्पतालों को निर्धारित सरकारी योजनाओं के तहत प्रतिपूर्ति प्राप्त करनी है.
लेकिन याचिका में दावा किया गया है कि व्यवहारिक स्तर पर हालात इसके उलट हैं. कई निजी अस्पतालों ने भारी-भरकम जमा रकम मांगी, कई ने ऑपरेशन से साफ इनकार कर दिया और कई मामलों में पीड़िताओं को आपातकाल में घंटों इंतज़ार कराया गया. इससे न केवल पीड़िताएं मानसिक और शारीरिक तौर पर त्रस्त हुईं, बल्कि प्रमुख सर्जरी या त्वचा प्रत्यारोपण में देरी ने उनके घावों को और गंभीर कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने इस पर कड़ी नाराज़गी जताते हुए कहा कि अदालत के स्पष्ट आदेश के बाद भी यदि निजी अस्पतालों का व्यवहार ऐसा ही बना हुआ है तो यह न्यायिक आदेशों की अवहेलना है और एक “गंभीर संवैधानिक चिंता” भी.
NALSA की ओर से प्रारंभिक आंकड़े पेश करते हुए बताया गया कि कुछ राज्यों में मुआवज़ा भुगतान की प्रक्रिया में सुधार आया है, लेकिन देशव्यापी तस्वीर अभी भी चिंताजनक है. कई राज्यों ने मुआवज़ा राशि के बजट में कटौती की, कुछ ने पीड़िताओं की फाइलें सत्यापन के नाम पर महीनों तक रोकी रखीं और कई प्रशासनिक इकाइयों ने पीड़िताओं की उम्र, पृष्ठभूमि या कथित ‘दस्तावेज़ों की त्रुटियों’ को आधार बनाकर भुगतान टाल दिया. अदालत ने स्पष्ट कहा कि इस तरह के अवरोध “अस्वीकार्य और अमानवीय” हैं.
पीठ ने यह भी ज्ञात किया कि एसिड अटैक मामलों में पुलिस की भूमिका अनेक बार ढीली पड़ जाती है. कई मामलों में एफआईआर दर्ज होने में देरी, केस डायरी का समय पर न भेजा जाना, चिकित्सकीय रिपोर्टों की कमी और चार्जशीट दाखिल करने में अनावश्यक विलंब जैसी त्रुटियाँ अक्सर पीड़िताओं की न्याय यात्रा को बाधित करती हैं. सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों और केंद्र से पूछा कि इन मामलों में पुलिस, प्रशासन, अस्पताल और कानूनी सेवा प्राधिकरणों के बीच समन्वय को मजबूत करने के लिए अब तक कौन-से ठोस कदम उठाए गए हैं.
पीठ के समक्ष रखे गए एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे में यह चिंता भी शामिल थी कि कई पीड़िताएं समाजिक बहिष्कार, रोजगार के छिनने और आजीविका के साधनों के टूटने से दोहरी मार झेलती हैं. अदालत ने कहा कि सरकार का कर्तव्य केवल मुआवज़ा देना भर नहीं बल्कि पुनर्वास, मनोवैज्ञानिक परामर्श, व्यावसायिक प्रशिक्षण और दीर्घकालिक आजीविका समर्थन सुनिश्चित करना भी है. अदालत ने यह सवाल उठाया कि राज्य सरकारें पीड़िताओं के लिए रोजगार या आत्मनिर्भरता कार्यक्रमों में कितनी सक्रिय हैं और क्या उनकी निगरानी होती है.
पीठ ने सुनवाई के दौरान यह भी गौर किया कि एसिड की बिक्री पर पहले से ही कड़े दिशानिर्देश लागू हैं, लेकिन कई जगह इनका पालन ढीला पड़ा हुआ है. कोर्ट ने केंद्र और राज्यों से पूछा है कि खुले में एसिड बेचने, बिना रजिस्टर के बिक्री और ऑनलाइन उपलब्धता पर रोक के लिए क्या नई निगरानी प्रणाली बनाई गई है.
अदालत ने NALSA से कहा कि वह सभी राज्यों से विस्तृत रिपोर्ट मंगवाकर यह बताए कि मुआवज़ा वितरण में सबसे अधिक देरी किन राज्यों में हो रही है, उसका कारण क्या है और निजी अस्पतालों ने मुफ्त उपचार देने से इनकार करने के कितने मामले सामने आए हैं. अदालत ने आदेश दिया कि अगली सुनवाई से पहले इस पर “विस्तृत, पारदर्शी और तथ्यपरक” रिपोर्ट दाखिल की जाए.
एसिड अटैक पीड़िताओं की लड़ाई केवल न्यायिक आदेशों की नहीं बल्कि समाजिक संवेदनशीलता, प्रशासनिक जिम्मेदारी और चिकित्सा सेवाओं की मानवता की भी कसौटी है. सुप्रीम कोर्ट की इस पहल से यह उम्मीद की जा रही है कि वर्षों से उपेक्षित इस मुद्दे पर अब नई सख्ती आएगी, मुआवज़ा वितरण की प्रक्रिया तेज होगी और निजी अस्पतालों की जवाबदेही तय करने की दिशा में ठोस परिवर्तन होंगे.
सुनवाई आगे बढ़ने के साथ यह मामला अब राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बना हुआ है, और पीड़िताओं सहित समाज का एक बड़ा वर्ग इस उम्मीद में है कि अदालत की यह कड़ी निगरानी उनके संघर्षों को कम करेगी और उन्हें वह न्याय, सम्मान और उपचार मिलेगा जिसके वे लंबे समय से इंतजार कर रही थीं.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

