भारतीय क्रिकेट में कुछ कहानियाँ समय के साथ फीकी नहीं पड़तीं, बल्कि हर गुजरते साल के साथ और गहरी चमकती हैं। नई दिल्ली से सामने आई एक ताजा याद ने यह फिर साबित कर दिया कि क्यों सचिन तेंदुलकर सिर्फ एक महान बल्लेबाज़ ही नहीं, बल्कि भारतीय खेल संस्कृति के नैतिक आदर्श भी माने जाते हैं। बारह साल हो चुके हैं जब ‘मास्टर ब्लास्टर’ ने क्रिकेट के सभी प्रारूपों को अलविदा कहा, फिर भी उनसे जुड़ी अनगिनत घटनाएँ आज भी देश के करोड़ों प्रशंसकों को भावुक कर देती हैं। ऐसी ही एक कहानी तेंदुलकर ने मुंबई में एक कार्यक्रम के दौरान साझा की—एक ऐसी कहानी जिसमें एक साथी खिलाड़ी की निस्वार्थता ने न सिर्फ युवा सचिन का रास्ता खोला, बल्कि दो क्रिकेटरों के बीच जीवनभर का संबंध भी रच दिया।
तेंदुलकर ने याद किया कि 1989 में टीम इंडिया में प्रवेश का उनका रास्ता लगभग तय था, लेकिन अंतिम परीक्षा अभी बाकी थी—ईरानी कप में ‘रेस्ट ऑफ इंडिया’ की तरफ से खेली गई पारी। वे 85 रनों पर थे, मैच का दबाव चरम पर था और भारतीय चयनकर्ताओं की नजरें इस पारी पर टिकी थीं। तभी टीम का नौवां विकेट गिर गया। ड्रेसिंग रूम में यह भी साफ था कि उप-कप्तान गुरशरण सिंह चोटिल हैं। उनकी उंगली पहली पारी में फ्रैक्चर हो चुकी थी और डॉक्टरों ने उन्हें बैटिंग से रोका था। फिर भी, राज सिंह डूंगरपुर—भारतीय क्रिकेट प्रशासन की एक अद्वितीय शख्सियत—ने उनसे पिच पर जाने के लिए कहा। गुरशरण जानते थे कि यह जोखिम भरा है, लेकिन उन्होंने एक पल भी नहीं सोचा। वे टीम के लिए, युवा सचिन के लिए, मैदान पर उतर आए।
सचिन ने कार्यक्रम में भावुक होकर कहा कि “वह मैच मेरे लिए भारतीय टीम का ट्रायल था। गुरशरण को बल्लेबाज़ी करने की जरूरत नहीं थी, लेकिन वे आए और उन्होंने मेरी मदद की कि मैं वह शतक पूरा कर सकूं। उसी वजह से मुझे भारत की ओर से खेलने का मौका मिला। उनके उस कदम ने मेरे दिल को छू लिया था।” यह उस दौर की घटना है जब तेंदुलकर मात्र 16 वर्ष के थे, अपनी प्रतिभा से दुनिया को चकित करने वाले थे, लेकिन भारतीय टीम का दरवाजा खोलने के लिए एक निर्णायक शतक आवश्यक था। गुरशरण के साहस और टीम भावना ने वह राह पूरी कर दी।
इस घटना के बाद दोनों ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में अपना-अपना रास्ता तय किया, लेकिन तेंदुलकर ने यह निश्चय कर लिया कि वे इस उपकार को कभी भूलेंगे नहीं। एक वादा भी उसी समय हुआ—एक साधारण-सा, लेकिन सचिन के लिए बहुत महत्वपूर्ण वादा। उन्होंने गुरशरण से कहा था कि जिस दिन वे रिटायर होंगे और उनके सम्मान में बेनिफिट मैच आयोजित होगा, वे स्वयं उसमें हिस्सा लेने आएंगे। यह बात 1990 में न्यूजीलैंड दौरे पर कही गई थी, जब दोनों एक साथ टीम में थे। कई बार वादे समय की धुंध में खो जाते हैं, लेकिन ऐसे वादे सचिन के लिए सिद्धांत बन जाते हैं।
समय बीतता गया। तेंदुलकर विश्व क्रिकेट का सूरज बन गए, और गुरशरण सिंह भी भारतीय क्रिकेट में अपना योगदान देकर धीरे-धीरे अंतरराष्ट्रीय दौड़ से बाहर हुए। 2005 में आखिरकार वह क्षण आया—गुरशरण के सम्मान में बेनिफिट मैच आयोजित किया गया। अनगिनत प्रतिबद्धताओं, व्यस्त कार्यक्रमों और वैश्विक दायित्वों के बावजूद सचिन तेंदुलकर ने अपनी बात निभाई। उन्होंने न सिर्फ मैच खेलने की हामी भरी, बल्कि उड़कर वहाँ पहुँचे, पूरी गरिमा के साथ गुरशरण के सम्मान में योगदान दिया और सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि वे यह सब एक कर्ज चुकाने के भाव से कर रहे हैं।
कार्यक्रम में तेंदुलकर ने मुस्कुराते हुए कहा, “मैंने उनसे न्यूजीलैंड में कहा था कि जिस दिन वे रिटायर होंगे, मैं उनके बेनिफिट मैच में ज़रूर खेलूंगा। और 15 साल बाद, जब उन्होंने कहा कि अब मैच होने वाला है, तो मैंने कहा—गुशी, मैं आऊंगा। यह मेरा वादा था, और मैं खुश हूँ कि मैं उसे पूरा कर पाया।” सचिन की इस सरल, लेकिन गहरी बात ने दर्शकों को एक बार फिर उनके मानवीय पक्ष से रूबरू कराया।
तेंदुलकर ने इस याद को साझा करते समय यह भी कहा कि क्रिकेट सिर्फ रन, रिकॉर्ड और जीत का खेल नहीं है; यह आपसी सम्मान, भरोसे और रिश्तों पर भी टिका होता है। मैदान पर साथ खड़े खिलाड़ियों के बीच जो निस्वार्थता होती है, वही खेल को ‘खेल’ से ऊपर उठाकर एक जीवन मूल्यों की पाठशाला बना देती है। गुरशरण सिंह का उस दिन टूटी उंगली के साथ मैदान पर उतरना सिर्फ एक तकनीकी योगदान नहीं था, बल्कि एक युवा खिलाड़ी के करियर को नई दिशा देने वाली अनमोल प्रेरणा थी।
भारतीय क्रिकेट इतिहास में कई बार ऐसे क्षण आए हैं जहाँ खिलाड़ियों ने एक दूसरे के लिए छोटे-छोटे त्याग किए, लेकिन यह कहानी विशेष है क्योंकि इसका प्रभाव विराट करियर की शुरुआत पर पड़ा। अगर गुरशरण उस दिन बल्लेबाज़ी करने से इनकार कर देते, तो संभव है कि सचिन को चयन का मौका कुछ महीने या शायद एक वर्ष और इंतजार करवाता। परंतु किस्मत ने एक साथी खिलाड़ी की बहादुरी और एक उभरते प्रतिभाशाली बल्लेबाज़ की लगन को एक साथ जोड़कर भारतीय क्रिकेट की तस्वीर हमेशा के लिए बदल दी।
यह घटना आज, 35 साल बाद भी उसी ताजगी और भावनात्मक गहराई से महसूस होती है। यह केवल एक शतक, एक मैच, या एक चयन की कहानी नहीं है—यह इस बात की मिसाल है कि कैसे खेल में मनुष्यता, आदर और रिश्तों की मजबूत नींव सबसे ऊपर रहती है। इन पलों को याद करके तेंदुलकर ने न केवल गुरशरण के प्रति अपना सम्मान जताया, बल्कि उन सभी अनसुने खिलाड़ियों को भी सम्मान दिया जो किसी न किसी रूप में किसी क्रिकेटर की यात्रा में चुपचाप योगदान दे जाते हैं।
सचिन तेंदुलकर के करियर में अनगिनत महान उपलब्धियाँ हैं—100 अंतरराष्ट्रीय शतक, 34,000 से अधिक रन, विश्व कप जीत, और दुनिया भर की मान्यता। लेकिन उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि शायद यह है कि वह अपने रिश्तों, अपने वादों और अपने मूल्यों के प्रति उतने ही दृढ़ रहे, जितने अपने खेल के प्रति। यही कारण है कि उनके बारे में कहा जाता है—“सचिन सिर्फ बनाए नहीं जाते, वे जन्म लेते हैं।”
इस कहानी का असर आज भी उतना ही है, क्योंकि यह बताती है कि विजय सिर्फ मैदान पर नहीं मिलती, बल्कि वफादारी और कृतज्ञता के सहारे जीवन में भी अर्जित होती है। और सचिन तेंदुलकर ने यह प्रमाणित किया है कि महानता सिर्फ रिकॉर्डों में नहीं, इंसानियत में भी होती है।
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

