फेक न्यूज और दुष्प्रचार भारतीय समाज में नई चुनौतियां

फेक न्यूज को झूठी या भ्रामक जानकारी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जिसे समाचार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है और अक्सर इसका उद्देश्य किसी व्यक्ति या संस्था की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचाना या विज्ञापन राजस्व के माध्यम से पैसा बनाना होता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों से पता चलता है कि 2019 की तुलना में 2020 में फेक न्यूज और अफवाह के प्रसार की घटनाओं में लगभग तीन गुना वृद्धि देखी गई। 2020 में फेक न्यूज के कुल 1,527 मामले दर्ज किए गए, जबकि 2019 में 486 मामले और 2018 में 280 मामले दर्ज किए गए थे। स्पष्ट रूप से, फेक न्यूज और गलत सूचना भारत में एक बढ़ता हुआ खतरा है। भारत में लगातार फैल रही झूठी खबरें और दुष्प्रचार देश के लिये एक गंभीर सामाजिक चुनौती बनती जा रही है। भारत जैसे देश में यह समस्या और भी गंभीर रूप धारण करती जा रही है तथा इसके कारण अक्सर सड़क पर दंगे और मॉब लिंचिंग की घटनाएं देखने को मिलती हैं। भारत जहाँ 75 करोड़ से भी अधिक इंटरनेट उपयोगकर्त्ता हैं, में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म जैसे- फेसबुक और व्हाट्सएप आदि ‘फेक न्यूज़’ प्रसारण के प्रमुख स्रोत बन गए हैं। भारत में ऐसे कई उदाहरण देखे जा सकते हैं, जहाँ ‘फेक न्यूज़’ या झूठी खबर के कारण किसी निर्दोष व्यक्ति की जान चली गई हो। भारत में व्हाट्सएप को ‘फेक न्यूज़’ के लिये सबसे अधिक असुरक्षित माध्यम माना जाता है, क्योंकि इसका प्रयोग करने वाले लोग अक्सर खबर की सत्यता जाने बिना उसे कई लोगों को फॉरवर्ड कर देते हैं, जिसके कारण एक साथ कई सारे लोगों तक गलत सूचना पहुँच जाती है।

 प्रचार, गलत सूचना, और नकली समाचारों में हिंसक उग्रवाद और अभद्र भाषा को बढ़ावा देने के लिए जनमत का ध्रुवीकरण करने की क्षमता होती है। उदाहरण के लिए, हाल ही में तमिलनाडु में प्रवासियों का संकट फेक न्यूज प्रसार के कारण पैदा हुआ था। चुनावी हेरफेर करने के लिए लोगों की वास्तविकता की धारणाओं को हेरफेर करने के लिए जानबूझकर और सत्यापन योग्य रूप से फेक न्यूज लेख का उपयोग राजनीति को प्रभावित करने और विज्ञापन को बढ़ावा देने के लिए किया गया है। 2016 के चुनाव के दौरान और बाद में, रूसी एजेंटों ने फेक न्यूज फैलाने के लिए सोशल मीडिया अकाउंट बनाए, जिसने विरोध को उकसाया और उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन और उनके सहयोगियों को बदनाम करते हुए राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप का समर्थन किया। उच्च टीआरपी और दर्शकों की संख्या के लिए मीडिया कंपनियां सनसनीखेज समाचार और झूठी सुर्खियों को बढ़ावा देते हैं। उदाहरण के लिए: कश्मीर घाटी में सेना पर चौंकाने वाले हमले दिखाने वाले झूठे वीडियो का प्रसार। कई बार, फर्जी खबरों का इस्तेमाल उन लोगों को धोखा देने के लिए किया जाता है, जो डिजिटल रूप से साक्षर नहीं हैं। उदाहरण के लिए, नोटबंदी के बाद 2000 रुपये के नोटों में इलेक्ट्रॉनिक चिप की झूठी खबर ने लोगों में बहुत भ्रम पैदा किया। भारत में फेक न्यूज से निपटने में बहुभाषी आबादी एक समस्या है, यहां 22 आधिकारिक भाषाएं हैं और केवल 10.67% आबादी अंग्रेजी बोलती है। मौजूदा फेक न्यूज पहचान संबंधी उपाय अंग्रेजी के लिए सबसे प्रभावी हैं, जिससे अन्य भाषाओं में जानकारी को पहचानने और संसाधित करने में विफलता मिल सकती है।

इंस्टेंट मैसेजिंग प्लेटफॉर्म चूंकि इंटरनेट मैसेजिंग एप्लिकेशन एंड-टू-एंड एन्क्रिप्टेड हैं, इसलिए फेक न्यूज की पहचान करना और उन्हें खारिज करना केवल उपयोगकर्ताओं के समर्थन से ही संभव है। भारत में इंटरनेट की पहुंच 2012 में 137 मिलियन इंटरनेट उपयोगकर्ताओं से बढ़कर 2019 में 600 मिलियन से अधिक हो गई है। डिजिटल निरक्षरता के साथ इंटरनेट की पहुंच में वृद्धि के परिणामस्वरूप ऑनलाइन फेक न्यूज में वृद्धि हुई है। यूरोपीय संघ ने दुष्प्रचार पर आचार संहिता 2022 को लागू किया है और यूनाइटेड किंगडम ने एक ऑनलाइन सुरक्षा विधेयक को लागू करने का प्रस्ताव दिया है, जो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से विवादित सामग्री की सक्रिय रूप से निगरानी करने का प्रयास करेगा। भारत को भी गलत सूचनाओं के मूल कारणों से निपटने के लिए एक मजबूत रूपरेखा तैयार करनी चाहिए। जागरूकता और शिक्षा पैदा कर के आबादी के सभी वर्गों को फेक न्यूज और प्रचार की वास्तविकताओं से अवगत कराया जाना चाहिए। लक्षित विज्ञापनों के लिए प्रकटीकरण आवश्यकताओं को थोपकर मौजूदा सामाजिक विभाजन और पक्षपातपूर्ण संघर्ष को बढ़ाने के लिए ध्रुवीकरण के मुद्दों पर केंद्रित विज्ञापनों का उपयोग करके अक्सर फेक न्यूज प्रचारित किया जाता है। इसलिए, राजनीतिक उम्मीदवारों या अभियानों के लिए सभी मुद्दे-आधारित विज्ञापन और विज्ञापनों के लिए विज्ञापन प्रकटीकरण प्रावधानों को विस्तारित करने की आवश्यकता है।

 फेक न्यूज के प्रचार के लिए अप्रामाणिक खातों और पृष्ठों का मुद्दा एक महत्वपूर्ण प्रेरक हो सकता है। सत्यापन से इस समस्या से निपटने में मदद मिल सकती है। साइबर लोकपाल बने तो ये समाचार के स्रोतों की विश्वसनीयता से निपट सके और गलत सूचना से संबंधित शिकायतों को भी संभाल सकता है। टेक्नोलॉजी की मदद लेने के लिए प्रौद्योगिकी फर्मों को फर्जी खबरों को खोजने के लिए टेक्नोलॉजी में निवेश करना चाहिए और एल्गोरिदम और क्राउडसोर्सिंग के जरिए उपयोगकर्ताओं के लिए इसकी पहचान करनी चाहिए। आज हमारे आस पास हर दिन कई तरह के कंटेंट इंटरनेट पर अनेकों माध्यम से उपलब्ध कराये जा रहे हैं लेकिन इसकी सत्यता क्या है किसी को नहीं पता. इसकी गहराई में जाने से पहले यह कई लोगों तक पहुँच चुका होता है. सरकार को इस तरह की सूचनाएं फ़ैलाने को लेकर कड़े कानून बनाने चाहिए ताकि जनता तक सही खबर पहुँच सके.वहीँ आज भी हमारे देश का साइबर कानून काफी कमजोर है जिससे कोई भी आसानी से बच सकता है इस पर सरकार को सोचने की जरुरत है. इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हमें ऐसी गाइड लाइन की जरूरत है, जिससे ऑनलाइन अपराध करने वालों और सोशल मीडिया पर भ्रामक जानकारी पोस्ट करने वालों को ट्रैक किया जा सके। सरकार ये कहकर पल्ला नहीं झाड़ सकती कि उसके पास सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोकने की कोई तकनीक नहीं है.
 
फेक न्यूज का समाज के हर तबके पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसलिए, हर किसी की यह जिम्मेदारी है कि वह फेक न्यूज और गलत सूचना के संकट से लड़े। इसमें फेक न्यूज के लिए वित्तीय प्रोत्साहन को कम करने से लेकर आम जनता के बीच डिजिटल साक्षरता में सुधार तक सभी आयाम शामिल हैं। आज देश में कई एजेंसियों ने फेक न्यूज़ का सच लोगों तक लाने के लिए काम कर रही है लेकिन यह काफी नहीं है क्योंकि इनकी पहुँच अभी व्यापक नहीं है जिसके कारण फेक न्यूज़ पर लगाम लग सके या लोगों तक तुरंत सच पहुंचे. वहीँ बढ़ते फेक न्यूज़ के कारण सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स भी इस पर काम कर रहे हैं क्योंकि कई बार इनकी विश्वसनीयता पर भी सवाल उठे हैं जिस कारण व्हाट्सएप्प और फेसबुक ने फेक न्यूज़ को रोकने के लिए अपने फीचर में कई बदलाव भी किए हैं लेकिन इस पर अभी और काम करने की जरुरत है ताकि एक स्वच्छ वातावरण का निर्माण हो सके.

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