विजया एकादशी व्रत कथा, महत्त्व एवं शुभ मुहूर्त

विजया एकादशी व्रत कथा, महत्त्व एवं शुभ मुहूर्त

प्रेषित समय :21:27:54 PM / Mon, Mar 8th, 2021

शुभ मुहूर्त

विजया एकादशी उदया तिथि 09 मार्च 2021, दिन मंगलवार

विजया एकादशी तिथि समापन: 9 मार्च 2021 को दोपहर बाद 03:02 बजे तत्पश्चात द्वादशी शुरु 

विजया एकादशी व्रत का पारण मुहूर्त: 10 मार्च 2021 को सुबह 06 बजकर 36 मिनट से सुबह 08 बजकर 58 मिनट तक.

*व्रत कथा एवं महत्त्व

धर्मराज युधिष्‍ठिर बोले: हे जनार्दन! आपने माघ के शुक्ल पक्ष की जया एकादशी का अत्यन्त सुंदर वर्णन करते हुए सुनाया. अब आप फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का क्या नाम है? तथा उसकी विधि क्या है? कृपा करके आप मुझे बताइए.

श्री भगवान बोले: हे राजन्, फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम विजया एकादशी है. 

इसके व्रत के प्रभाव से मनुष्‍य को विजय प्राप्त‍ होती है. यह सब व्रतों से उत्तम व्रत है. इस विजया एकादशी के महात्म्य के श्रवण व पठन से समस्त पाप नाश को प्राप्त हो जाते हैं. भयंकर शत्रुओं से जब आप घिरे हों और पराजय सामने खड़ी हो उस विकट स्थिति में विजया नामक एकादशी आपको विजय दिलाने की क्षमता रखता है.

विजया एकादशी व्रत कथा!

एक समय देवर्षि नारदजी ने जगत् पिता ब्रह्माजी से कहा महाराज! आप मुझसे फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी विधान कहिए. ब्रह्माजी कहने लगे कि हे नारद! विजया एकादशी का व्रत पुराने तथा नए पापों को नाश करने वाला है. इस विजया एकादशी की विधि मैंने आज तक किसी से भी नहीं कही. यह समस्त मनुष्यों को विजय प्रदान करती है.

त्रेता युग में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र जी जो विष्णु के अंशावतार थे, को जब चौदह वर्ष का वनवास हो गया, तब वे श्री लक्ष्मण तथा सीता जी ‍सहित पंचवटी में निवास करने लगे. वहाँ पर दुष्ट रावण ने जब सीता जी का हरण ‍किया तब इस समाचार से श्री रामचंद्र जी तथा लक्ष्मण अत्यंत व्याकुल हुए और सीता जी की खोज में चल दिए.

घूमते-घूमते जब वे मरणासन्न जटायु के पास पहुँचे तो जटायु उन्हें सीताजी का वृत्तांत सुनाकर स्वर्गलोक चला गया. कुछ आगे जाकर उनकी सुग्रीव से मित्रता हुई और बाली का वध किया. हनुमानजी ने लंका में जाकर सीताजी का पता लगाया और उनसे श्री रामचंद्र जी और सुग्रीव की‍ मित्रता का वर्णन किया. वहाँ से लौटकर हनुमान जी ने भगवान राम के पास आकर सब समाचार कहे.

श्री रामचंद्र जी ने वानर सेना सहित सुग्रीव की सम्पत्ति से लंका को प्रस्थान किया. जब श्री रामचंद्र जी समुद्र से किनारे पहुँचे तब उन्होंने मगरमच्छ आदि से युक्त उस अगाध समुद्र को देखकर लक्ष्मण जी से कहा कि इस समुद्र को हम किस प्रकार से पार करेंगे.

श्री लक्ष्मण ने कहा हे पुराण पुरुषोत्तम, आप आदिपुरुष हैं, सब कुछ जानते हैं. यहाँ से आधा योजन दूर पर कुमारी द्वीप में वकदाल्भ्य नाम के मुनि रहते हैं. उन्होंने अनेक ब्रह्मा देखे हैं, आप उनके पास जाकर इसका उपाय पूछिए. लक्ष्मण जी के इस प्रकार के वचन सुनकर श्री रामचंद्र जी वकदाल्भ्य ऋषि के पास गए और उनको प्रमाण करके बैठ गए.

मुनि ने भी उनको मनुष्य रूप धारण किए हुए पुराण पुरुषोत्तम समझकर उनसे पूछा कि हे राम! आपका आना कैसे हुआ? 

रामचंद्र जी कहने लगे कि हे ऋषे! मैं अपनी सेना ‍सहित यहाँ आया हूँ और राक्षसों को जीतने के लिए लंका जा रहा हूँ. आप कृपा करके समुद्र पार करने का कोई उपाय बतलाइए. मैं इसी कारण आपके पास आया हूँ.

वकदाल्भ्य ऋषि बोले कि हे राम! फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का उत्तम व्रत करने से निश्चय ही आपकी विजय होगी, साथ ही आप समुद्र भी अवश्य पार कर लेंगे. इस व्रत की विधि यह है कि दशमी के दिन स्वर्ण, चाँदी, ताँबा या मिट्‍टी का एक घड़ा बनाएँ. उस घड़े को जल से भरकर तथा पाँच पल्लव रख वेदिका पर स्थापित करें. उस घड़े के नीचे सतनजा और ऊपर जौ रखें. उस पर श्रीनारायण भगवान की स्वर्ण की मूर्ति स्थापित करें. एका‍दशी के दिन स्नानादि से निवृत्त होकर धूप, दीप, नैवेद्य, नारियल आदि से भगवान की पूजा करें.

तत्पश्चात घड़े के सामने बैठकर दिन व्यतीत करें ‍और रात्रि को भी उसी प्रकार बैठे रहकर जागरण करें. द्वादशी के दिन नित्य नियम से निवृत्त होकर उस घड़े को ब्राह्मण को दे दें. 

हे राम! यदि तुम भी इस व्रत को सेनापतियों सहित करोगे तो तुम्हारी विजय अवश्य होगी. 

श्री रामचंद्रजी ने ऋषि के कथनानुसार इस व्रत को किया और इसके प्रभाव से दैत्यों पर विजय पाई.

अत: हे राजन्! जो कोई मनुष्य विधिपूर्वक इस व्रत को करेगा, दोनों लोकों में उसकी अवश्य विजय होगी. श्री ब्रह्माजी ने नारदजी से कहा था कि हे पुत्र! जो कोई इस व्रत के महात्म्य को पढ़ता या सुनता है, उसको वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता है.

शास्त्रों में एकादशी के दिन चावल और जौ का सेवन वर्जित माना गया है. पौराणिक मान्यतानुसार, माता शक्ति के क्रोध से बचने के लिए महर्षि मेधा ने शरीर का त्याग कर दिया और उनका अंश पृथ्वी में समा गया. इस दिन एकादशी तिथि ही थी. चावल और जौ के रूप में मेधा ऋषि उत्त्पन्न हुए, इसलिए चावल और जौ को जीव माना गया है. मान्यता है कि एकादशी के दिन चावल खाना, महर्षि मेधा के मांस और रक्त का सेवन करने जैसा है. इस दिन खान-पान एवं व्यवहार में सात्विकता का पालन करके श्री हरि का स्मरण करना श्रेष्ठ होता है.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

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