डा. अरविंद मिश्रा. कोरोना एक्सप्रेस ने एक बार फिर से रफ्तार पकड़ ली है। ऐसा नहीं है कि यह अप्रत्याशित है। वैज्ञानिकों की मानें तो यह वायरस विश्व भर के तमाम देशों में अपना स्थायी अड्डा बना चुका है और बिना हर्ड इम्यूनिटी के हासिल हुये इसका प्रकोप जाने वाला नहीं है जैसा मीजल्स, चेचक और इनफ्लुएंजा और कितने ही दूसरे वायरस का बर्ताव रहा है। चेचक (बड़ी माता) से तो दशकों के लगातार उन्मूलन के प्रयासों के बाद ही निजात मिली या यह खुद ब खुद प्रभावहीन हो गया।
वैज्ञानिक कह रहे हैं कि हर्ड इम्यूनिटी का स्तर हासिल कर पाना मुश्किल है। लम्बा समय लग जायेगा। फिर किया क्या जाय? इस महामारी का कोई गारंटी का उपचार आज भी नहीं है। जिन दवाओं का बड़ा आसरा था धीरे-धीरे वैज्ञानिक अध्ययन उनसे किनारा कर रहे हैं। वे अपेक्षानुसार कारगर नहीं पाई गईं। हाईड्रोक्सीक्लोरोक्विन बिल्कुल बेअसर निकली। डेक्सामेथाजोन भी ज्यादा प्रभावी नहीं। कई वायरल रोधी दवायें भी कोरोना पर बहुत प्रभावी नहीं हुई हैं। बस केवल व्यक्ति की निजी रोग निरोधक क्षमता (इम्यूनिटी) का ही भरोसा है।
मगर मुश्किल यह है कि हर किसी की इम्यूनिटी इस विषाणु को लेकर कितनी मजबूत है, इसका न तो कोई टेस्ट है और न ही यह जानकारी प्राप्त करने का कोई और तरीका, इसलिये जोखिम उठाना बिल्कुल उचित नहीं है। केवल दो गज की दूरी, मास्क और फिजिकल डिस्टैंसिंग ही एकमात्रा भरोसेमंद तरीका है जिसे पूरी सावधानी और ध्यान से आजमाते हुए हम संक्रमण से बच सकते हैं।
और हां, अपने मन का एक और संशय आपसे अगर मैं साझा नहीं करता तो यह मेरी नैतिक ईमानदारी नहीं होगी। हालांकि वैज्ञानिक समुदाय का होकर मुझे शायद यह बात आपसे नहीं करनी चाहिए मगर विज्ञान की पीठिका ही संशय पर टिकी हुई है। इस समय एक दो नहीं, दर्जनों कोरोना वैक्सीन तमाम देशों में लांच हो चुकी हैं जिनके निर्माण की अलग अलग विधियां हैं। कोई समूचे वायरस के तनुकृत (एटेनुयेटेड) यानी मृतप्राय अवशेष की समय परीक्षित विधि से निर्मित है जैसे आईसीएमआर और बायोटेक की कोवैक्सीन तो दूसरी कम हानिकर वायरस के जरिये इस नवीन वायरस के स्पाईक प्रोटीन को मानव शरीर में दाखिल करने के तरीके वाली एस्ट्राजेनेका की कोविशील्ड। फाइजर की आरएनए वैक्सीन अमेरिका में काफी इस्तेमाल हो रही है। कोविशील्ड को लेकर यूरोपीय देशों में अनेक आरोप भी लगने आरंभ हो गये हैं। चीन की साइनोवैक का खुद चीन में ज्यादा इस्तेमाल न होकर पाकिस्तान और अरब देशों के लोगों को जैसे गुयेना पिग बनाकर परीक्षण किया जा रहा है।
इस तरह तमाम टीके अभी ट्रायल स्तर पर ही हैं तो सबसे बड़ा सवाल है कि क्या ये तमाम टीके सचमुच इस नयी कोरोना महामारी के लिये क्या शर्तिया कारगर हैं? कई टीके तो ईमानदारी से यह सूचना प्रदर्शित करते भी हैं कि उनका प्रभाव कमोबेश साठ फीसदी ही है। फिर इन टीकों का ही क्या और कितना भरोसा? बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के अपने व्यावसायिक होड़ में विज्ञान और वैज्ञानिकों की भी क्या बिसात?
मगर बावजूद इन सब संशय के वैक्सीन मुझे भी लेनी है एक रुटीन गतिविधि की तरह और आपसे भी सिफारिश है कि साठ साल के ऊपर के लोग या कोमार्बिड - गंभीर बीमारियों से ग्रस्त लोग टीके लगवा ही लें मगर लगवाकर निश्चिंत न हो जांय। मास्क, सैनिटाइजर, साबुन और सोशल डिस्टैंसिंग का प्रयोग करें।
कोई आश्चर्य नहीं कि आगामी माहों में खबरों की ये सुर्खियाँ हमारे सामने आयें कि फलां फलां को वैक्सीन लगने के बाद भी कोरोना हो गया जैसा कि एक समय यह खबरों की यह हेडलाइंस होती थी कि नसबंदी के बाद भी बच्चा हो गया।
इसलिये कोरोना के फिर से बढ़ते प्रकोप में सावधान हो जाइये। अभी इस महामारी से हमारा पिंड नहीं छूटने वाला।
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-दुल्हन… जिसने हक़ मेहर में मांगीं एक लाख रुपए मूल्य की किताबें
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