कीर्ति राणा. पिछले कई वर्षों से जब भी उनसे मोबाइल पर मेरी बात होती, मैं इधर से कहता भ्राता कमल दीक्षित जी ओम शांति, उधर से उनके ठहाके की आवाज गूंजती फिर संयत होते कहने लगते कीर्ति तुम व्यंग्य क्यों नहीं लिखते....अब किससे ओम शांति कहूंगा और कहां सुनाई देगी ठहाके की आवाज.
वाटसएप पर उनके निधन और मित्रों द्वारा उनके साथ की यादों वाले संस्मरण देखने के बाद भी मन नहीं माना. अवधेश (बजाज) को फोन लगाया, मुझे कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी. ‘मैं छह बजे से वहीं था....मेरे सिर से तो एक तरह पिता का साया उठ गया है....गीत से पूछता रहा क्या करना है, मुझे बता देना, पता नहीं वह किस धुन में था.....कहता रहा सब हो जाएगा भाई साब, आप चिंता मत करो.... अवधेश बोले जा रहे थे और उनकी भर्राई आवाज उनका दर्द बयां कर रही थी.
दीक्षित जी जब तक इंदौर में रहे उन्हें पंडितजी कह कर पुकारता था. (स्व) जयकृष्ण गौड़ साहब और मैं वर्षों पहले उन्हीं के साथ माउंट आबू प्रपिब्रईविवि के मुख्यालय में आयोजित मीडिया सम्मेलन में गए थे. अभी कुछ दिनों पहले रायपुर से प्रियंका कौशल स्टेट प्रेस क्लब के तीन दिनी भाषाई पत्रकारिता महोत्सव में आईं थी.तब हमने प्लानिंग की थी कि इंदौर के पत्रकारों को माउंटआबू ले चलेंगे. बाद में मैंने दीक्षित जी से इस संबंध में बात की तो कहने लगे मुझे पता है तुम आ सकते हो लेकिन बाकी कितने पत्रकार आएंगे भरोसा नहीं. बात समाप्त होने को ही थी, मैंने कहा भ्राता कमल दीक्षितजी ओम शांति, उधर से फिर ठहाका गूंजा.
कमल दीक्षित अपने आप में पत्रकारिता का चलित विश्वविद्यालय थे.किसी भी शहर में चले जाइए, वहां के पत्रकारों में दो-चार तो ऐसे मिल ही जाएंगे जो कमल दीक्षित से काम सीखने का कोई ना कोई रोचक किस्सा सुनाए बिना नहीं रहते. आज की पत्रकारिता जैसी दंदी-फंदी होती जा रही है वो दीक्षित जी के सिद्धांतों को कभी रास नहीं आई. वो बोलने वक्त जितने मितभाषी लगते थे उनकी पत्रकारिता भी उतनी ही निरपेक्ष रही.
उनकी पाठशाला का मैं तो विद्यार्थी कभी रहा नहीं लेकिन उनसे पांच दशक से अधिक के संबंध रहे.मूल्यानुगत मीडिया को लेकर भी चर्चा होती रही, एक बार उन्होंने ही विषय सुझाया कि तुमने इतने संपादकों के साथ काम किया है सब के किस्से लिखो, हम अपनी पत्रिका में छापेंगे.मुझ से एकाधिक बार बाल पत्रिका की जिम्मेदारी संभालने का आग्रह भी करते रहे, मैं ही कहता रहा कि पंडित जी घोड़ा घांस से दोस्ती कर लेगा तो खाएगा क्या, कुछ मानदेय तो मिलना चाहिए. तुम पत्रिका संभालो तो सही, उसी के खर्चे में तुम अपनी घांस का इंतजाम भी कर लेना यह कहते हुए वो हंस देते थे.
गीत को लेकर चिंतित रहने वाले दीक्षित जी उन दिनों बॉंबे हॉस्पिटल में दाखिल थे. मैं मिलने गया, न तबीयत पूछी न इलाज-डॉक्टर की जानकारी ली. दो घंटे से अधिक समय बैठने के बाद जब कहां चलता हूं पंडित जी, वो बोलने लगे, जब से यहां भर्ती हूं, आज पहली बार इतना हंसा हूं. तुम व्यंग्य लिखा करो यार. बहुत अच्छा लगा, बीमारी भूल गया मैं तो. फुर्सत रहे तो आ जाया करो.
उन्हें कैंसर है यह जानकारी लगने के बाद अकसर फोन कर के तबीयत पूछ लेता या कभी गीत से जानकारी लेता तो वह बता देता काका, वो अभी सो रहे हैं, तबीयत ठीक है.....
कैंसर और उस के बाद कोरोना...! पंडित जी आखिर जरूरत क्या थी इतनी यात्रा की? कैंसर वाले भी वर्षों जी लेते है, पर ये कोरोना क्या जाने कि हम सब के लिए आप के जिंदा रहने, आप की मौजूदगी का क्या मतलब है.आप का इस तरह जाना खलता रहेगा.आप थे तो स्वस्थ/सकारात्मक पत्रकारिता की मशाल जलती रहती थी.इस कोरोना की भयावहता ने उस मशाल की रोशनी फीकी कर दी है. पंडित जी इंदौर, भोपाल ही क्यों देश भर में फैले और पत्रकारिता की राह पर आप की अंगुली पकड़ कर चलना सीखे सैकड़ों पत्रकार आप को इतनी आसानी से भुला नहीं पाएंगे.
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