स्मृति शेष. कालजयी रचनाकार पद्मश्री नरेन्द्र कोहली का जाना एक युग का अंत तो है ही, उस पीढ़ी की अंतिम कड़ी का टूट जाना भी है। प्रखर राष्ट्रवादी विचारधारा की प्रबल क्षति भी है। साहित्य की लगभग सभी विधाओं में रचना करने वाले कोहली जी उपन्यासकार और व्यंग्य लेखक के रूप में ज्यादा पहचाने गए। अपनी श्रेष्ठ रचनाओं के कारण देश के लगभग सभी प्रतिष्ठित साहित्यिक पुरस्कार पाने वाले कोहली जी बड़े सहज सरल स्वभाव के थे।
मेरी उनकी मुलाकात पिछले वर्ष मार्च में अयोध्या में अवध विश्वविद्यालय और संस्कार भारती द्वारा आयोजित- लोक में राम, विषयक तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में हुई थी। उसके बाद कोरोना, लॉकडाउन आदि के कारण मुलाकात नहीं हो सकी। उस संगोष्ठी में तीनों दिन हम साथ रहे। गोष्ठी के एक सत्र के बाद मेरी उनसे लोक बनाम शास्त्र पर लंबी चर्चा हुई। आज वह बातचीत कोहली जी की सरलता सहजता के साथ याद आ रही है।
मुझे याद है मैंने कोहली जी से सवाल किया था कि लोक ईश्वरत्व का साधारणीकृत करके अपने बराबर कर लेता है। इसके बावजूद मर्यादा कायम रखता है। यह अलग बात है कि मर्यादा का पर्दा बहुत झीना हो जाता है। ईश्वरत्व का यह सामान्यीकरण अनुचित कैसे कहा जा सकता है? लोक अगर भगवान श्रीराम को अपनी तरह किसान या अपना बेटा, मां सीता को अपनी बेटी या बहू और कृष्ण को अपना मित्र मानकर लोकगीत रचता, गाता और अपनी भावनाओं को व्यक्त करता है तो उसे गलत कैसे माना जा सकता है?
मेरे इस कथन पर कोहली जी बोले- हर बात मानी जा सकती है, लेकिन तर्कहीन अभिव्यक्ति को मान्यता कैसे दी जा सकती है। सामान्यीकरण गलत नहीं है, लेकिन मर्यादा बनी रहनी चाहिए। सामान्यीकरण की तर्कहीनता समाज में अंधविश्वास और भ्रमजाल उत्पन्न करती है। आज पौराणिक चरित्रों के बारे में तमाम असंगत बातें इसी कारण फैली हुई हैं। मेरा मानना है कि हमें मर्यादा तक पहुंचना चाहिए, ना कि मर्यादा को अपने पास खींच लेना चाहिए!
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-थाईलैंड में बीयर की बोतलों से बना है प्रसिद्ध बौद्ध मंदिर
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