डॉ. यूसुफ अख्तर. कोरोना वायरस द्वारा फैली ये महामारी जिसने स्वास्थ्य कर्मियों को पूर्ण रूप से अब तक थका दिया है और दुनिया की ज्यादातर अर्थव्यवस्थाओं को पहले से बहुत कमजोर बनाकर जैसे सारे संसार को अपने घुटनों पर ला दिया है, उसका खत्म होना दुर्भाग्य से अभी भी दूर दिख रहा है. लगभग मार्च के अंत में जैसे ही भारत में कोविड-19 की दूसरी लहर विकराल हुई और संक्रमितों का आंकड़ा बड़े शहरों में तेजी से ज्यामितीय प्रगति से बढ़ता गया., शुरुआत में तो भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने ये दावा किया कि भारत पिछले साल के मुकाबले इस साल आने वाली दूसरी लहर से निपटने के लिए बेहतर तौर पर तैयार है. उन्होंने यह भी दावा किया कि हमारे पास ऑक्सीजन समेत अन्य चिकित्सा संसाधनों की पर्याप्त आपूर्ति है.
इसी तरह के दावे भारत सरकार के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार प्रोफेसर के. विजयराघवन द्वारा भी किये गए हालांकि हम सभी ने देखा कि एक हफ्ता बीतते-बीतते सरकार की तरफ से किये गए सभी दावे औंधे मुंह गिर गए, और उत्तर भारत के सभी बड़े शहरों में त्राहि-त्राहि मच गयी. गंभीर रूप से बीमारों की संख्या मुख्य रूप से पहले दिल्ली, लखनऊ, वाराणसी में बढ़ी जो देखते-ही-देखते मध्य प्रदेश के इंदौर भोपाल समेत उत्तर प्रदेश के छोटे शहरों में भी देखी गयी. अप्रैल के दूसरे सप्ताह तक यह साफ हो गया था कि हमारा लोक चिकित्सा मंत्री पूरी तरह से विफल हो चुका था. सरकार द्वारा दिए गए हेल्पलाइन फोन नंबर काम नहीं कर रहे थे और न ही कोई और मदद आ रही थी. लोग ऑक्सीजन सिलिंडर, अस्पताल के बिस्तर, वेंटिलेटर और जीवन रक्षक इंजेक्शन के अभाव में सड़क पर ही दम तोड़ रहे थे.
कहते हैं आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है. ऐसे समय में लोगों ने सोशल मीडिया पर मदद की गुहार वाली पोस्ट लिखना और उन्हें फारवर्ड करना शुरू कर कर दिया. ट्विटर और फेसबुक की वाल ऐसे संदेशों से पट गयी. इनमें से बहुतों को मदद भी मिलती हुई दिखी. इसी प्रकार से ऐसी भी बहुत सी खबरें देखने को मिलीं जहाँ मृत व्यक्तियों के रिश्तेदार और संबधी उस शहर में नहीं थे, या कोरोना के संक्रमण के भयवश परिवार ने वहां होते हुए भी शव लेने से मना कर दिया. ऐसे मामलों में भी अन्य लोगों ने आगे बढ़ कर शवों का का अंतिम संस्कार किया. कई मामलों में तो मरने वाले व्यक्ति से अलग धर्म को मानने वालों ने ऐसा करके सामुदायिक प्रयासों की शानदार मिसाल पेश की. धार्मिक कटुता और उन्माद वाले इस युग में तो उनका ऐसा करना एक सुखद अनुभूति प्रदान करता है.
हालांकि इस तरह के सामुदायिक प्रयास सरकारों द्वारा उठाये गए ठोस कदमों की भरपाई बिलकुल नहीं कर सकते क्योंकि ऐसे प्रयास में भाग लेने वाले वालेंटियर्स के पास उतने संसाधन नहीं हो सकते जितने किसी राज्य के पास होते हैं. ऐसा देखने में आया कि लोगों के इन प्रयासों से बहुतों की जान बचाई जा सकी जिसने कुछ हद्द तक कोविड-19 से होने वाली मौतों के आंकड़ों को कुछ तो जरूर कम किया होगा. यहाँ से एक बात निकल निकल कर आती है कि ऐसी महामारी के समय संगठित सामुदायिक प्रयास भी बहुत हद तक कारगर साबित हो सकते हैं क्यूंकि भारत जैसे विशालकाय देश में पूरी तरह से सरकारों पर भी आश्रित रहना भी एक दम सही नहीं है हालांकि इस बात का निष्कर्ष ये भी नहीं है कि सरकार इस बहाने अपनी जिम्मेदारियों से मुंह चुराएं. अब प्रश्न यह है कि ऐसे संगठित सामुदायिक प्रयास किस प्रकार के हो सकते हैं और उनको कैसे सफल बनाया जा सकता है?
इस प्रकार और इतने विशालकाय पैमाने की एक महामारी को प्रबंधित करना भारत सहित दुनिया भर की सरकारों के लिए काफी कठिन कार्य रहा है जहां न केवल वायरस के प्रसार को कम करने पर ध्यान दिया जाना है बल्कि इसके बाद होने वाली सामाजिक-आर्थिक क्षति की भी भरपाई करनी है. जब इतनी तेजी से संक्रमण के मामले बढ़ रहे थे, ऐसे समय में आबादी की तुलना में बेहद सीमित स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे के होने की वजह से स्वास्थ्य सेवाओं पर भयंकर दबाव का आ जाना कोई हैरत की बात नहीं. इसीलिए कोविड -19 प्रबंधन में एक सहयोगी दृष्टिकोण लेने की जरूरत है जिसमें महामारी के प्रबंधन के लिए सरकार के प्रयासों का समर्थन करने के लिए सामान्य नागरिकों एवं नागरिक समाज संगठनों की भागीदारी जरूरी हो जाती है. महामारी की पिछली लहर के दौरान दक्षिण कोरियाई नागरिकों ने सरकार के महामारी के प्रबंधन का समर्थन एवं उत्साहवर्धन के लिए तालियां बजाई थीं जिससे प्रेरणा लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी भारत में ‘कोरोना वारियर्स’ को प्रोत्साहित करने के लिए जनता से थालियां पिटवायीं थीं हालांकि इस भयंकर विपत्ति के समय इस तरह के महज सांकेतिक कृत्य के लिए उनकी खूब आलोचना भी हुई.
अगर इतिहास पर गौर करें तो दुनिया के देशों में विपत्ति के समय नागरिक समाज के संगठनों ने स्थिति की बारीकी से निगरानी करके, सरकार की सहायता करने और सबसे कमजोर सामाजिक समूहों तक पहुँचने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. इस मामले में, नागरिक समाज के संगठनों ने सहयोग देकर सामुदायिक लामबंदी करके पोलियो, खसरा-रूबेला और चेचक जैसी बीमारियों के प्रबंधन और उन्मूलन में सरकारों की सहायता की और उन अंतरालों को भरने में मदद की जहां सरकारें नहीं पहुंच सकती थीं. सबसे ताजा उदाहरण हम उद्धृत कर सकते हैं दक्षिण पूर्व एशियाई देशों का जहां नागरिक समाज संगठन कोविड-19 से लड़ने और सबसे कमजोर वर्गों तक पहुंचने के लिए अभिनव समाधानों के साथ आगे आए हैं. थाईलैंड के नागरिक समाज संगठन ने महामारी से जुड़ी फर्जी खबरों जिनको विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ‘इनफोडेमिक‘ का नाम दिया है, उनके खिलाफ एक जंग छेड़ रखी है. इस तरह से वे एक साथ दो लड़ाइयां लड़ रहे हैं, एक ऐसे समय में फैलने वाली अफवाहों और फर्जी खबरों से दूसरा इस निर्मम महामारी से. इस प्रोजेक्ट को उन्होंने ‘सबाइडी प्रोजेक्ट‘ का नाम दिया था.
इसी प्रोजेक्ट के तत्वावधान में उन्होंने एक सर्वर बनाया था जो स्मार्टफोन के माध्यम से उपयोगकर्ता से जुड़ जाता था. इसके लिए उन्हें एक ऐप इनस्टाल करना होता था जो उनसे उनके स्वास्थ्य की स्थिति और संभावित लक्षणों को संग्रहीत करवाता था और फिर थाई रोग नियंत्रण प्राधिकरण को गुमनाम रूप से ये सारा डाटा भेज देता था. जब पर्याप्त डेटा एकत्र हो जाता है तो एक एल्गोरिथ्म उस का मूल्यांकन करता था जिसके फलस्वरूप ये कोरोना वायरस हॉटस्पॉट की जानकारी दे सकता था. भारत में इससे प्रेरित एप्प सरकार द्वारा बनाया गया जिसे ‘आरोग्यसेतु’ कहा गया. बांग्लादेश में लगभग 200 गैर-सरकारी संगठन सरकार के साथ मिलकर लोगों को चिकित्सा और भोजन सहायता के लिए आर्थिक सहायता प्रदान कर रहे हैं.वे बेहद गरीब और पिछड़े लोगों में जाकर उन्हें स्वच्छता किट वितरित कर रहे हैं, और महामारी के बारे में जागरूकता फैला रहे हैं.
1970 के दशक में भारत ने अपने नागरिक समाज संगठनों को चेचक के उन्मूलन के लिए तैयार किया था जहां डब्ल्यूएचओ द्वारा प्रशिक्षित हजारों स्वास्थ्य कार्यकर्ता और एक लाखसामुदायिक कार्यकर्ता देश में घर-घर गए. 10 करोड़ घरों, 575,721 गांवों और 2,641शहरों को कवर किया था. 1977 में जब भारत से ये घातक बीमारी समाप्त हो गयी, तब उनके अथक श्रम का फल प्राप्त हुआ. इसी तरह से कोरोना की महामारी के पूरी तरह से समाप्त हो जाने पर गैर सरकारी संगठनों के अथक प्रयासों को फिर से इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज किया जाएगा. इस महामारी के विकट समय में हाथ धोने, श्वसन शिष्टाचार सुनिश्चित करने, कांटेक्ट ट्रेसिंग और अनुरेखण, सकारात्मकता के प्रसार और संक्रमितों की पहचान करके उनका अलगाव, इस महामारी प्रबंधन की कुंजी और आधार है. इस समय गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से महामारी सम्बन्धी ज्ञान प्रसार, बीमार लोगों और उनके संबंधियों में आत्मविश्वास बढ़ाने और संक्रमण से होने वाली हीन भावना को कम करने के लिए परामर्श और मदद कर रहें है.
हम बचपन से ही अपने आस-पास के परिवेश में इसको सीखते हैं. पुराने समय में तो लोगों के घरों में होने वाले बड़े आयोजन जैसे शादी-विवाह, मुंडन, तेरहीं इत्यादि का आयोजन भी गाँव-मोहल्ले के लोगों के परस्पर सहयोग से हो पाता था. आधुनिकीकरण और व्यवसायीकरण हो जाने से शहरों में तो ये तेजी से बदल रहा हैं लेकिन गाँव-देहात में अभी भी ये आयोजन सामुदायिक प्रयास से ही आयोजित होते हैं हैं. इसी कड़ी में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्रा में रहने वाली अनगिनत सोसाइटियों से भी इस प्रकार की खबर आयी कि वहां की एक सोसाइटी के लोगों ने अपने सामूहिक प्रयासों से वहां के रहने वाले लोगों की आकस्मिक चिकित्सा के लिए एक सीमित बिस्तरों वाला इंटेंसिव केयर यूनिट बना लिया. ऐसे ही कुछ खबरों में आया कि इस विपत्ति के समय गुरुद्वारों द्वारा संचालित राहत कार्यों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया, उनकी संस्थाओं ने लंगर द्वारा लोगों के भोजन की व्यवस्था से लेकर ऑक्सीजन प्लांट,अस्थायी कोविड अस्पताल तक बना डाले. इसी प्रकार कुछ एक आध मंदिर और मस्जिद के बारे में भी इस तरह की खबरें आईं कि उनके प्रबंधकों ने उन्हें अस्थायी कोविड अस्पताल में बदल दिया. ये सारे प्रयास अच्छे हैं.
कोविड-19 के प्रकोप के बाद इस महामारी द्वारा उत्पन्न चुनौतियों मूलतः दो प्रकार की हैं एक तो बेहद आकस्मिक है जहां लोगों की जान बचाने के लिए परस्पर सहयोग से जीवन-रक्षक चिकित्सा का सामान जैसे ऑक्सीजन सिलिंडर, दवाइयां-इंजेक्शन और अस्पताल के बिस्तर उपलब्ध करना. दूसरी तरह की समस्या ज्यादा आर्थिक व्यवस्था से जुड़ी है क्यूंकि महामारी के फैल जाने के उपरान्त समाज के ऐसे लोगों, जिनका प्रतिदिन की दिहाड़ी से शाम में चूल्हा जलता है, उनके लिए रोटी का प्रबंध करना. आधुनिक परिप्रेक्ष्य में इन प्रयासों को और संगठनात्मक तरीके से आधुनिक टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करके किया जा सकता है, जैसे कई शहरों में ऐसे डेटाबेस और वेबपोर्टल बनाये गए जो रियल टाइम में इस बात की जानकारी देते हैं कि कोविड-19 के इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवाई-इंजेक्शन या ऑक्सीजन किस जगह पर उपलब्ध है या कौन से अस्पताल में अभी बिस्तर उपलब्ध है. ऐसे वेबपोर्टल कुछ तो सरकारी एजेंसियों द्वारा बनाये गए थे लेकिन ज्यादातर ये लोगों के खुद के सामूहिक प्रयासों से ही बनाये गए.
ऐसे समय में जब इसी समाज में बैठे कुछ गिद्ध दवाइयों-इंजेक्शनों, ऑक्सीजन इत्यादि की कालाबाजारी और जमाखोरी कर रहे थे, ऐसी जानकारियों को एक जगह पर इकठ्ठा करना और उसे समय-समय पर सत्यापित करके अपडेट करना एक बेहतरीन मदद की कोशिश है. इसी प्रकार से राजस्थान के एक गाँव हमीरपाल जो उदयपुर के पास है, वहां की एक स्वयंसेवी संस्था, सेवा मंदिर का उदाहरण भी मिलता है जिसने पिछले साल लॉकडाउन लगने के बाद से विस्थापित होने वाले मजदूरों के परिवारों के लिए नियमित स्वास्थ्य जांच और उनको रोजमर्रा के लिए राशन किट पहुँचाने का काम किया है. कई सारे महिलाओं के स्वयंसेवी समूहों द्वारा अचार- पापड़ बनाने से लेकर अन्य सहकारी कुटीर उद्योगों की स्थापना की गयी है.
हालांकि इस भय और अनिश्चितता के समय भविष्य में हमारे सामान्य जीवन का लौटना जैसे मुश्किल दिख रहा है, लेकिन एक बात जो सच्चे विश्वास के साथ कही जा सकती है, वह यह है, कि हमारे समाज के सामूहिक प्रयास आशा की किरण हैं और अगर हम इस महामारी पर विजय प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें सरकारी प्रयासों के साथ-साथ इन्हें भी जारी रखना होगा और ये हमें वायरस को हराने के हमारे प्रयासों में तेजी लाने में शर्तिया मदद करेंगे.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-ICMR ने दी होम टेस्टिंग किट को मंजूरी, अब घर में खुद कर सकेंगे कोरोना टेस्ट
छींक के साथ 10 मीटर तक जाता है कोरोना, मास्क-पंखों को लेकर सरकार की नई गाइडलाइंस जारी
कोरोना से अनाथ हुए बच्चे अब राज्य संपत्ति घोषित, सरकार उठाएगी पूरा जिम्मा: CM योगी
राजस्थान: पूर्व सीएम जगन्नाथ पहाड़िया का कोरोना संक्रमण से निधन
वैक्सीनेशन में नहीं आई तेजी तो 6 से 8 महीने में दिखेगी कोरोना की तीसरी लहर: वैज्ञानिकों की चेतावनी
Leave a Reply