शिव महिम्न स्त्रोत का पाठ करने से सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती

शिव महिम्न स्त्रोत का पाठ करने से सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती

प्रेषित समय :20:34:21 PM / Sun, Jun 12th, 2022

शिव की बड़ी सुंदर स्तुति का वर्णन आया है। इसे शिव महिम्न स्त्रोत के नाम से जाना जाता है। शिव महिम्न स्त्रोत का पाठ करने से सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है। पापों का नाश होता है। मन निर्मल हो जाता है।
यह स्त्रोत शिव भक्तों का प्रिय मंत्र हैै। 43 छंदों के इस स्तोत्र में शिव के दिव्य स्वरूप एवं उनकी सादगी का वर्णन ह। इस स्तुति को गाकर पुष्पदंत ने शिव जी को प्रसन्न किया था। और अपनी खोई हुई दिव्य शक्तियों को प्राप्त किया था।
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः।
अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावध
ि गृणन्
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः।।1।।
हे हर! आप प्राणी मात्र के कष्टों को हराने वाले हैं। मैं इस स्तोत्र द्वारा आपकी वंदना करा रहा हूं। जो कदाचित आपके वंदना के योग्य न भी हो। पर हे महादेव! स्वयं ब्रह्मा और अन्य देवगण भी आपके चरित्र की पूर्ण गुणगान करने में सक्षम नहीं हैं। जिस प्रकार एक पक्षी अपनी क्षमता के अनुसार ही आसमान में उड़ान भर सकता है। उसी प्रकार मैं यथा शक्ति आपकी आराधना करता हूं।
अतीतः पंथानं तव च महिमा वाङ्मनसयोः
अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि .
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः।। 2।।
हे शिव! आपकी व्याख्या न तो मन ना ही वचन द्वारा ही संभव है। आपके सन्दर्भ में वेद भी अचंभित हैं। तथा नेति नेति का प्रयोग करते हैं। अर्थात ये भी नहीं और वो भी नहीं। आपका संपूर्ण गुणगान भला कौन करा सकता है? ये जानते हुए भी की आप आदि अंत रहित परमात्मा का गुणगान कठिन है। मैं आपका वंदना करता हूं।
मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः
तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम्।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसित
ा।। 3।।
हे वेद और भाषा के सृजक जब स्वयं देवगुरु बृहस्पति भी आपके स्वरूप की व्याख्या करने में असमर्थ हैं तो फिर मेरा कहना ही क्या? हे त्रिपुरारी! अपने सीमित क्षमता का बोध होते हुए भी मैं इस विश्वास से इस स्तोत्र की रचना करा रहा हूं। कि इससे मेरे वाने शुद्ध होगी तथा मेरे बुद्धि का विकास होगा।
तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्
त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः।।4।।
हे देव! आप ही इस संसार के सृजक, पालनकर्ता एवं विलयकर्ता हैं। तीनों वेद आपके ही सहिंता गाते हैं। तीनों गुण (सत-रज-तम) आपसेे प्रकाशित हैं। आपकी ही शक्ति त्रिदेवों में निहित है। इसके बाद भी कुछ मूढ़ प्राणी आपका उपहास करते हैं तथा आपके बारे भ्रम फैलाने का प्रयास करते हैं जो की सर्वथा अनुचित है।
किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभु
वनं
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च।
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः
कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः।।5।।
हे महादेव! वो मूढ़ प्राणी जो स्वयं ही भ्रमित हैं। इस प्रकार से तर्क-वितर्क द्वारा आपके अस्तित्व को चुनौती देने की कोशिश करते हैं। वो कहते हैं कि अगर कोई परं पुरुष है तो उसके क्या गुण हैं? वो कैसा दिखता है? उसके क्या साधन हैं? वो इस श्रृष्टि को किस प्रकार धारण करता है? ये प्रश्न वास्तव में भ्रामक मात्र हैं। वेद ने भी स्पष्ट किया है कि तर्क द्वारा आपको नहीं जाना जा सकता।
अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां
अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति।
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे।।6।।
हे परमपिता! इस श्रृष्टि में सात लोक (भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्गलोक, सत्यलोक,महर्लोक, जनलोक, एवं तपलोक) हैं। इनका सृजन भला सृजक यानी कि आपके) बिना कैसे संभव हो सका? ये किस प्रकार से और किस साधन से निर्मित हुए? तात्पर्य है कि आप पर संशय का कोई तर्क भी नहीं हो सकता है।
त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।7।।
विवध प्राणी सत्य तक पहुचने के लिया विभिन्न वेद पद्धतियों का अनुसरण करते हैं। पर जिस प्रकार सभी नदी अंततः सागर में समाहित हो जाती है। ठीक उसी प्रकार हर मार्ग आप तक ही पहुंचता है।
महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां
न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति।।8।।
हे शिव! आपके भृकुटि के इशारे मात्र से सभी देवगण ऐश्वर्य एवं संपदाओं का भोग करते हैं। पर आपके स्वयं के लिए सिर्फ बैल (नंदी), कपाल, बाघम्बर, त्रिशुल, नागमाला एवं भस्म हैं। अगर कोई संशय करे कि अगर आप देवों के असीम ऐश्वर्य के श्रोत हैं तो आप स्वयं उन ऐश्वर्यों का भोग क्यों नहीं करते? तो इस प्रश्न का उत्तर सहज ही है। आप इच्छा रहित हो। स्वयं में ही स्थित रहते हो।
ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं
परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये।
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव
स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता।।9।।
हे त्रिपुरहंता। इस संसार के बारे में विभिन्न विचारकों के भिन्न-भिन्न मत हैं। कोई इसे नित्य जानता है। तो कोई इसे अनित्य समझता है। अन्य इसे नित्यानित्य बताते हैं। इन विभिन्न मतों के कारण मेरी बुध्दि भ्रमित होती है। पर मेरी भक्ति आप में और दृढ़ होती जा रही है।
तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः
परिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुष।
ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत्
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति।।10।।
एक समय आपके पूर्ण स्वरूप का भेद जानने हेतु ब्रह्मा एवं विष्णु क्रमशः ऊपर एवं नीचे की दिशा में गए। पर उनके सारे प्रयास विफल हुए। जब उन्होंने भक्ति मार्ग अपनाया तभी आपको जान पाएं। क्या आपकी भक्ति कभी विफल हो सकती है?
अयत्नादासाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं
दशास्यो यद्बाहूनभृत-रणकण्डू-परवशान्।
शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेः
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम्।।11।।
हे त्रिपुरान्तक! दशानन रावण किस प्रकार विश्व को शत्रु विहीन कर सका? उसके महाबाहू हर पल युद्ध के लिए व्यग्र रहे। हे प्रभु! रावण ने भक्तिवश अपने ही शीश को काट-काट कर आपके चरण कमलों में अर्पित कर दिया, ये उसी भक्ति का प्रभाव था।
अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं
बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः।
अलभ्यापातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः।।12।।
हे शिव। एक समय उसी रावण ने मद् में चूर आपके कैलाश को उठाने की धृष्टता करने की भूल की। हे महादेव। आपने अपने सहज पांव के अंगूठे मात्र से उसे दबा दिया। फिर क्या था रावण कष्ट में रूदन करा उठा। वेदना ने पटल लोक में भी उसका पीछा नहीं छोड़ा। अंततः आपकी शरणागति के बाद ही वह मुक्त हो सका।
यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं
अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः।
न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः
न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनत
िः।।13।।
हे शम्भो! आपकी कृपा मात्र से ही बाणासुर दानव इन्द्रादि देवों से भी अधिक ऐश्वर्यशाली बन सका।
तथा तीनो लोकों पर राज्य किया। हे ईश्वर ! आपकी भक्ति से क्या कुछ संभव नहीं हैं।
अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा
विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय-भङ्ग-व्
यसनिनः।।14।।
देवताओं एव असुरों ने अमृत प्राप्ति हेतु समुंद्र मंथन किया। समुद्र से अनेक मूल्यवान वस्तुएं प्राप्त हुईं जो देव तथा दानवों ने आपस में बांट लिया। पर जब समुंद्र से अत्यधिक भयावह कालकूट विष प्रगट हुआ तो असमय ही श्रृष्टि समाप्त होने का भय उत्पन्न हो गया। और सभी भयभीत हो गए। हे हर! तब आपने संसार रक्षार्थ विषपान कर लियाा। वह विष आपके कंठ में निष्क्रिय होकर पड़ा है। विष के प्रभाव से आपका कंठ नीला पड़ गया।
हे नीलकंठ! आश्चर्य है कि ये विकृति भी आपकी शोभा ही बढ़ाती है। कल्याण का कार्य सुन्दर ही होता है।
असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्
स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः।।15।।
हे प्रभु! कामदेव के वार से कभी कोई भी नहीं बच सका चाहे वो मनुष्य हों या देव या दानव हो। पर जब कामदेव ने आपकी शक्ति समझे बिना आप की ओर अपने पुष्प बाण को साधा तो आपने उसे तत्क्षण ही भस्म कर दिया। श्रेष्ठ जानो कि अपमान का परिणाम हितकर नहीं होता।
मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं
पदं विष्णोर्भ्राम्यद् भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह-गणम्।
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-
ताडित-तटा
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता।।16।।
हे नटराज! जब संसार कल्याण के हित के हेतू आप तांडव करने लगते हैं। तो आपके पाँव के नीचे धारा कंप उठती हैं। आपके हाथों के परिधि से टकराकर ग्रह नक्षत्र भयभीत हो उठते हैं। विष्णु लोक भी हिल जाता है। आपके जटा के स्पर्श मात्र से स्वर्गलोक व्याकुल हो उठता हैंं। हे महादेव! आश्चर्य है कि अनेकों बार कल्याणकारी कार्य भी भय उत्पन्न करते हैं।
वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते।
जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति
अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः।।17।।
आकाश गंगा से निकलती तारागणों के बीच से गुजरती गंगा जल अपनी धारा से धरती पर टापू तथा अपने वेग से चक्रवात उत्पन्न करती हैं। पर ये उफान से परिपूर्ण गंगा आपके मस्तक पर एक बूंद के सामन ही दृष्टिगोचर होती हैं। ये आपके दिव्य स्वरूप का ही परिचायक है।
रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो
रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः।।18।।
हे शिव! आपने त्रिपुरासुर का वध करने हेतु पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथी, सूर्य चन्द्र को पहिया एवं स्वयं इन्द्र को बाण बनाया। हे शम्भू ! इस वृहत प्रयोजन की क्या आवश्यकता थी ? आपके लिए तो संसार मात्र का विलय करना अत्यंत ही छोटी बात है। आपको किसी सहायता की क्या आवश्यकता?
हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः
यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम्।
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम्।।19।।
जब भगवान विष्णु ने आपकी सहश्र कमलों (एवं सहस्र नामों) द्वारा पूजा प्रारम्भ की तो उन्होंने एक कमल कम पाया। तब भक्ति भाव से हरि ने अपने एक आंख को कमल के स्थान पर अर्पित कर दिया। उनकी यही अदम्य भक्ति ने सुदर्शन चक्र का स्वरूप धारण कर लियाा । जिसे भगवान विष्णु संसार रक्षार्थ उपयोग करते हैं।
क्रतौ सुप्ते जाग्रत् त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवं
श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः।।20।।
हे देवाधिदेव! आपने ही कर्म -फल का विधान बनाया। आपके ही विधान से अच्छे कर्मों तथा यज्ञ कर्म का फल प्राप्त होता है। आपके वचनों में श्रद्धा रख कर सभी वेद कर्मों में आस्था बनाया रखते हैं तथा यज्ञ कर्म में संलग्न रहते हैं।
क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्त
नुभृतां
ऋषीणामार्ति्वज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः।
Koti Devi Devta

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

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