संत कबीर दास जन्मोत्सव

संत कबीर दास जन्मोत्सव

प्रेषित समय :20:56:08 PM / Mon, Jun 13th, 2022

संत कबीर दास जन्मोत्सव - ज्येष्ठ पूर्णिमा 14 जून  मंगलवार 
जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान ! 
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान !! 
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ ! 
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ !! 
साईं इतना दीजिए जा मे कुटुम समाय.! 
मैं भी भूखा न रहूं साधु ना भूखा जाय !! 
चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोय ! 
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय.!! 
आए है तो जाएगे राजा रंक फाकिर ! 
एक सिंहासन चढी चले एक बाधे जंजिर !! 
कबीरदास जी  ने गुरु की महिमा में ऐसे ही कुछ अनेकों दोहों लिखे हैं, 

कबीर दोहा 1.
गुरु सो ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजये दान.
बहुतक भोंदू बहि गये, सखि जीव अभिमान॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है किअपने सिर की भेंट देकर गुरु से ज्ञान प्राप्त करो | परन्तु यह सीख न मानकर और तन, धनादि का अभिमान धारण कर कितने ही मूर्ख संसार से बह गये, गुरुपद – पोत में न लगे.
कबीर दोहा 2.
गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय.
कहैं कबीर सो संत हैं, आवागमन नशाय॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि व्यवहार में भी साधु को गुरु की आज्ञानुसार ही आना जाना चाहिए | सद् गुरु कहते हैं कि संत वही है जो जन्म – मरण से पार होने के लिए साधना करता है |
कबीर दोहा 3.
गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त.
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि गुरु में और पारस – पत्थर में अन्तर है, यह सब सन्त जानते हैं. पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है, परन्तु गुरु शिष्य को अपने समान महान बना लेता है.
कबीर दोहा 4.
कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय.
जनम – जनम का मोरचा, पल में डारे धोया॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि कुबुद्धि रूपी कीचड़ से शिष्य भरा है, उसे धोने के लिए गुरु का ज्ञान जल है. जन्म – जन्मान्तरो की बुराई गुरुदेव क्षण ही में नष्ट कर देते हैं.
कबीर दोहा 5.
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि – गढ़ि काढ़ै खोट.
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़ा है, भीतर से हाथ का सहार देकर, बाहर से चोट मार – मारकर और गढ़ – गढ़ कर शिष्य की बुराई को निकलते हैं.
कबीर दोहा 6.
गुरु समान दाता नहीं, याचक शीष समान.
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि गुरु के समान कोई दाता नहीं, और शिष्य के सदृश याचक नहीं. त्रिलोक की सम्पत्ति से भी बढकर ज्ञान – दान गुरु ने दे दिया 
कबीर दोहा 7.
जो गुरु बसै बनारसी, शीष समुन्दर तीर.
एक पलक बिखरे नहीं, जो गुण होय शारीर॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि यदि गुरु वाराणसी में निवास करे और शिष्य समुद्र के निकट हो, परन्तु शिष्ये के शारीर में गुरु का गुण होगा, जो गुरु लो एक क्षड भी नहीं भूलेगा.
कबीर दोहा 8
गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं.
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोकों भय नाहिं॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है किगुरु को अपना सिर मुकुट मानकर, उसकी आज्ञा मैं चलो | कबीर साहिब कहते हैं, ऐसे शिष्य – सेवक को तनों लोकों से भय नहीं है |
कबीर दोहा 9.
गुरु सो प्रीतिनिवाहिये, जेहि तत निबहै संत.
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कंत॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि जैसे बने वैसे गुरु – सन्तो को प्रेम का निर्वाह करो. निकट होते हुआ भी प्रेम बिना वो दूर हैं, और यदि प्रेम है, तो गुरु – स्वामी पास ही हैं.
कबीर दोहा 10.
गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर.
आठ पहर निरखत रहे, गुरु मूरति की ओर॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि गुरु की मूरति चन्द्रमा के समान है और सेवक के नेत्र चकोर के तुल्य हैं. अतः आठो पहर गुरु – मूरति की ओर ही देखते रहो 
कबीर दोहा 11.
गुरु मूरति आगे खड़ी, दुतिया भेद कुछ नाहिं.
उन्हीं कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि गुरु की मूर्ति आगे खड़ी है, उसमें दूसरा भेद कुछ मत मानो. उन्हीं की सेवा बंदगी करो, फिर सब अंधकार मिट जायेगा.
कबीर दोहा 12.
ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास.
गुरु सेवा ते पाइए, सद् गुरु चरण निवास॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि ज्ञान, सन्त – समागम, सबके प्रति प्रेम, निर्वासनिक सुख, दया, भक्ति सत्य – स्वरुप और सद् गुरु की शरण में निवास – ये सब गुरु की सेवा से निलते हैं
कबीर दोहा 13.
सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय.
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि सब पृथ्वी को कागज, सब जंगल को कलम, सातों समुद्रों को स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते.
कबीर दोहा 14.
पंडित यदि पढि गुनि मुये, गुरु बिना मिलै न ज्ञान.
ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परमान॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि बड़े – बड़े विद्व.न शास्त्रों को पढ – गुनकर ज्ञानी होने का दम भरते हैं, परन्तु गुरु के बिना उन्हें ज्ञान नही मिलता. ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती.
कबीर दोहा 15.
कहै कबीर तजि भरत को, नन्हा है कर पीव.
तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि भ्रम को छोडो, छोटा बच्चा बनकर गुरु – वचनरूपी दूध को पियो. इस प्रकार अहंकार त्याग कर गुरु के चरणों की शरण ग्रहण करो, तभी जीव से बचेगा.
कबीर दोहा 16.
सोई सोई नाच नचाइये, जेहि निबहे गुरु प्रेम.
कहै कबीर गुरु प्रेम बिन, कितहुं कुशल नहिं क्षेम॥१६॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है किअपने मन – इन्द्रियों को उसी चाल में चलाओ, जिससे गुरु के प्रति प्रेम बढता जये. कबीर साहिब कहते हैं कि गुरु के प्रेम बिन, कहीं कुशलक्षेम नहीं है.
कबीर दोहा 17.
तबही गुरु प्रिय बैन कहि, शीष बढ़ी चित प्रीत.
ते कहिये गुरु सनमुखां, कबहूँ न दीजै पीठ॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि शिष्य के मन में बढ़ी हुई प्रीति देखकर ही गुरु मोक्षोपदेश करते हैं. अतः गुरु के समुख रहो, कभी विमुख मत बनो.
कबीर दोहा 18.
अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहिं करै प्रतिपाल.
अपनी ओर निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि मात – पिता निर्बुधि – बुद्धिमान सभी पुत्रों का प्रतिपाल करते हैं. पुत्र कि भांति ही शिष्य को गुरुदेव अपनी मर्यादा की चाल से मिभाते हैं.
कबीर दोहा 19.
करै दूरी अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदये.
बलिहारी वे गुरु की हँस उबारि जु लेय॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि ज्ञान का अंजन लगाकर शिष्य के अज्ञान दोष को दूर कर देते हैं. उन गुरुजनों की प्रशंसा है, जो जीवो को भव से बचा लेते हैं.
कबीर दोहा 20.
साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे वाखे मोय.
जल सो अरक्षा परस नहिं, क्यों कर ऊजल होय॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि साबुन बेचारा क्या करे,जब उसे गांठ में बांध रखा है. जल से स्पर्श करता ही नहीं फिर कपडा कैसे उज्जवल हो. भाव – ज्ञान की वाणी तो कंठ कर ली, परन्तु विचार नहीं करता, तो मन कैसे शुद्ध हो.
कबीर दोहा 21.
राजा की चोरी करे, रहै रंक की ओट.
कहै कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि कोई राजा के घर से चोरी करके दरिद्र की शरण लेकर बचना चाहे तो कैसे बचेगा| इसी प्रकार सद् गुरु से मुख छिपाकर, और कल्पित देवी -देवतओं की शरण लेकर कल्पना की कठिन चोट से जीव कैसे बचेगा|
कबीर दोहा 22.
सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड.
तीन लोक न पाइये, अरु इकइस ब्रह्मणड॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि सात द्वीप, नौ खण्ड, तीन लोक, इक्कीस ब्रह्मणडो में सद् गुरु के समान हितकारी आप किसी को नहीं पायेंगे|
कबीर दोहा 23.
सतगुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय.
धन्य शिष धन भाग तिहि, जो ऐसी सुधि पाय॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि सद् गुरु सत्ये – भाव का भेद बताने वाला है| वह शिष्य धन्य है तथा उसका भाग्य भी धन्य है जो गुरु के द्वारा अपने स्वरुप की सुधि पा गया है|
कबीर दोहा 24.
सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय.
भ्रम का भाँडा तोड़ी करि, रहै निराला होय॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि सद् गुरु मिल गये – यह बात तब जाने जानो, जब तुम्हारे हिर्दे में ज्ञान का प्रकाश हो जाये, भ्रम का भंडा फोडकर निराले स्वरूपज्ञान को प्राप्त हो जाये|
कबीर दोहा 25.
जेही खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव.
कहैं कबीर सुन साधवा, करू सतगुरु की सेवा॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि जिस मुक्ति को खोजते ब्रह्मा, सुर – नर मुनि और देवता सब थक गये| ऐ सन्तो, उसकी प्राप्ति के लिए सद् गुरु की सेवा करो
कबीर दोहा 26.
जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान.
तामें निपट अनूप है, सतगुरु लगा कान॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि दुखों से छूटने के लिए संसार में उपमारहित युक्ति संतों की संगत और गुरु का ज्ञान है| उसमे अत्यंत उत्तम बात यह है कि सतगुरु के वचनों पार कान दो 
कबीर दोहा 27.
डूबा औधर न तरै, मोहिं अंदेशा होय.
लोभ नदी की धार में, कहा पड़ा नर सोय॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि कुधर में डूबा हुआ मनुष्य बचता नहीं| मुझे तो यह अंदेशा है कि लोभ की नदी – धारा में ऐ मनुष्यों – तुम कहां पड़े सोते हो|
कबीर दोहा 28.
केते पढी गुनि पचि मुए, योग यज्ञ तप लाय.
बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपाय॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि कितने लोग शास्त्रों को पढ – गुन और योग व्रत करके ज्ञानी बनने का ढोंग करते हैं, परन्तु बिना सतगुरु के ज्ञान एवं शांति नहीं मिलती, चाहे कोई करोडों उपाय करे|
कबीर दोहा 29.
सतगुरु खोजे संत, जीव काज को चाहहु.
मेटो भव के अंक, आवा गवन निवारहु॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि ऐ संतों – यदि अपने जीवन का कल्याण चाहो, तो सतगुरु की खोज करो और भव के अंक अर्थात छाप, दाग या पाप मिटाकर, जन्म – मरण से रहित हो जाओ|
कबीर दोहा 30.
यह सतगुरु उपदेश है, जो माने परतीत.
करम भरम सब त्यागि के, चलै सो भव जलजीत॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि यही सतगुरु का यथार्थ उपदेश है, यदि मन विश्वास करे, सतगुरु उपदेशानुसार चलने वाला करम भ्रम त्याग कर, संसार सागर से तर जाता है| 
कबीर दोहा 31.
जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरंध.
अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फन्द॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि जिसका गुरु ही अविवेकी है उसका शिष्य स्वय महा अविवेकी होगा| अविवेकी शिष्य को अविवेकी गुरु मिल गया, फलतः दोनों कल्पना के हाथ में पड़ गये|
कबीर दोहा 32.
जनीता बुझा नहीं बुझि, लिया नहीं गौन.
अंधे को अंधा मिला, राह बतावे कौन॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि विवेकी गुरु से जान – बुझ – समझकर परमार्थ – पथ पर नहीं चला| अंधे को अंधा मिल गया तो मार्ग बताये कौन 
कबीर दोहा 33.
मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर.
अब देवे को क्या रहा, यो कथि कहहिं कबीर॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि यदि अपना मन तूने गुरु को दे दिया तो जानो सब दे दिया, क्योंकि मन के साथ ही शरीर है, वह अपने आप समर्पित हो गया| अब देने को रहा ही क्या है

कबीरदास : जीवन परिचय
काशी के इस अक्खड़, निडर एवं संत कवि का जन्म लहरतारा के पास सन् 1398 में ज्येष्ठ पूर्णिमा को हुआ. जुलाहा परिवार में पालन पोषण हुआ, संत रामानंद के शिष्य बने और अलख जगाने लगे. कबीर सधुक्कड़ी भाषा में किसी भी सम्प्रदाय और रुढियों की परवाह किये बिना खरी बात कहते थे. हिंदू- सभी समाज में व्याप्त रुढिवाद तथा कट्टपरंथ का खुलकर विरोध किया. कबीर की वाणी उनके मुखर उपदेश उनकी साखी, रमैनी, बीजक, बावन- अक्षरी, उलटबासी में देखें 
जा सकते हैं.

गुरु ग्रंथ साहब में उनके 200 
पद और 250 साखियां हैं. काशी में प्रचलित मान्यता है कि जो यहाँ मरता है उसे मोक्ष 
प्राप्त होता है. रुढि के विरोधी कबीर को यह कैसे मान्य होता. काशी छोड़ मगहर चले गये 
और सन् 1518 में वहीं देह त्याग किया. 
Koti Devi Devta

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

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मास अनुसार देवपूजन

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