त्रिपुर सुंदरी की साधना तथा मंत्र जाप जिस स्थान पर होता, वह सभी दृष्टियों से पूर्ण होता

त्रिपुर सुंदरी की साधना तथा मंत्र जाप जिस स्थान पर होता, वह सभी दृष्टियों से पूर्ण होता

प्रेषित समय :21:26:20 PM / Sun, Jul 3rd, 2022

माहेश्वरी शक्ति स्वरुपिणी षोडशी सबसे मनोहर श्रीविग्रह वाली सिद्ध देवी हैं. महाविद्याओं में भगवती षोडशी का चौथा स्थान है. षोडशी महाविद्या को श्रीविद्या भी कहा जाता है. षोडशी महाविद्या के ललिता, त्रिपुरा, राज राजेश्वरी, महात्रिपुरसुन्दरी, बालापञ्चदशी आदि अनेक नाम हैं. लक्ष्मी सरस्वती, ब्रह्माणी - तीनों लोकों की सम्पत्ति एवं शोभा का ही नाम श्री है. 'त्रिपुरा' शब्द का अर्थ बताते हुए-'शक्तिमहिम्न स्तोत्र' में कहा गया है
श्री माँ महाविद्या
'तिसृभ्यो मूर्तिभ्यः पुरातनत्वात् त्रिपुरा. अर्थात् जो ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश- इन तीनों से पुरातन हो वही त्रिपुरा हैं. 'त्रिपुरार्णव' ग्रन्थ में कहा गया है
नाडीत्रयं तु त्रिपुरा सुषुम्ना पिङ्गला विडा. मनो बुद्धिस्तथा चित्तं पुरत्रयमुदाहृतम्. तत्र तत्र वसत्येषा तस्मात् तु त्रिपुरा मता.. अर्थात् 'सुषुम्ना, पिंगला और इडा - ये तीनों नाडियां हैं और मन, बुद्धि एवं चित्त - ये तीन पुर हैं. इनमें रहने के कारण इनका नाम त्रिपुरा है.'
सोलह अक्षरों के मन्त्रवाली ललिता देवी की अङ्गकान्ति उदीयमान सूर्यमण्डल की आभा की भांति है. षोडशी माता की चार भुजाएं तीन नेत्र हैं. ये शान्तमुद्रा में लेटे हुए सदाशिव पर स्थित कमल के आसन पर आसीन हैं. भगवती षोडशी के चारों हाथों में क्रमश: पाश, अङ्कुश, धनुष और बाण सुशोभित हैं. वर देने के लिये सदा-सर्वदा तत्पर भगवती षोडशी का श्रीविग्रह सौम्य और हृदय दया से आपूरित है.
प्रशान्त हिरण्यगर्भ ही शिव हैं और उन्हीं की शक्ति षोडशी जी हैं. तन्त्रशास्त्रों में महाविद्या षोडशी देवी को पञ्चवक्त्रा अर्थात् पाँच मुखों वाली बताया गया है. चारों दिशाओं में चार मुख और एक ऊपर की ओर मुख होने से इन्हें पञ्चवक्त्रा कहा जाता है. देवी के पाँचों मुख तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव अघोर और ईशान शिव के पाँचों रूपों के प्रतीक हैं. पाँचों दिशाओं के रंग क्रमशः हरित, रक्त, धूम्र, नील और पीत होने से ये मुख भी इन्हीं रंगों के हैं . देवी षोडशी के दस हाथों में क्रमश: अभय, टंक, शूल, वज्र, पाश, खड्ग, अंकुश, 1. घण्टा, नाग और अग्नि हैं. षोडश कलाएँ पूर्णरूप से विकसित होने के कारण ये महाविद्या षोडशी कहलाती हैं.
भैरवयामल तथा शक्तिलहरी में षोडशी मां की उपासना का विस्तृत परिचय मिलता है. दुर्वासा ऋषि श्रीविद्याके परमाराधक हुए हैं. षोडशी महाविद्या की उपासना श्रीचक्र में होती है. श्रीयन्त्र को यन्त्रराज की संज्ञा दी गई है इसमें दसों महाविद्याओं का अर्चन सम्पन्न हो जाता है. यदि पूजा के लिए कोई विग्रह उपलब्ध न हो तो मान्यता है कि शालग्राम, पारद शिवलिंग और श्रीयन्त्र इन तीनों में से कोई एक विग्रह भी उपलब्ध हो तो उसमें ही समस्त देवी-देवताओं की आराधना सम्पन्न की जा सकती है.
श्रीविद्या की विस्तृत पूजा के विधि-विधान बहुत समयसाध्य हैं, अतः खड्गमाला, अष्टोत्तरशत नाम, सहस्रनाम आदि स्तोत्रों के द्वारा भी श्री ललिता महाविद्या की आराधना की जाती है. तन्त्र ग्रन्थों में षोडशी महाविद्या के प्रातः स्मरण, शतनाम, सहस्रनाम, मानस पूजन, कवच, हृदय, खड्गमाला आदि बहुत से उत्तम स्तोत्र मिलते हैं जिनके माध्यम से भगवती षोडशी की स्तोत्रात्मक स्तुति उत्तम प्रकार से की जाती है. आद्य शंकराचार्य जी द्वारा रचित 'सौंदर्य लहरी' नामक स्तोत्र सौ श्लोकों का है.
श्रीविद्या के सामान्य आराधकों को भगवती के विविध स्तोत्रों का सहारा ले लेना चाहिये. धर्मग्रन्थों में भगवती महात्रिपुरसुन्दरी के विविध स्तोत्रों का विशाल संग्रह प्राप्त होता है. यहां भगवती ललिताम्बा का प्रातः स्मरण स्तोत्र प्रस्तुत है, शङ्कराचार्यजी के द्वारा रचित इस स्तोत्र को ललितापंचक स्तोत्र अथवा ललिता पञ्चरत्न स्तोत्र भी कहा जाता है.
भगवान् आद्य शङ्कराचार्य ने सौन्दर्यलहरी में ललिताम्बा षोडशी श्रीविद्या की स्तुति करते हुए कहा है कि "अमृत के समुद्र में एक मणि का द्वीप है, जिसमें कल्पवृक्षों की बारी है, नवरत्नों के नौ परकोटे हैं उस वन में चिन्तामणि से निर्मित महल में ब्रह्ममय सिंहासन है जिसमें पञ्चकृत्य के देवता ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और ईश्वर आसन के पाये हैं और सदाशिव फलक हैं. सदाशिव की नाभि से निर्गत कमल पर विराजमान भगवती षोडशी त्रिपुरसुन्दरी का जो ध्यान करते हैं वे धन्य हैं. भगवती ललिता के प्रभाव से उन्हें भोग और मोक्ष दोनों सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं." जो षोडशी माता का आश्रय ग्रहण कर लेते हैं उनमें और ईश्वर में कोई भेद नहीं रह जाता है. वस्तुत: ललिताम्बा भगवती षोडशी की महिमा अवर्णनीय है. श्रीचक्रवासिनी षोडशी महाविद्या सर्वत्र व्याप्त हैं. संसार के समस्त मन्त्र-तन्त्र इनकी ही आराधना किया करते हैं. वेद भी इन महात्रिपुरसुन्दरी मां का वर्णन कर सकने में असमर्थ हैं. भक्तों को ललिता महाविद्या प्रसन्न होकर सब कुछ दे देती हैं अभीष्ट तो सीमित अर्थवाच्य है.
श्री विद्या साधना
इस साधना का साधक भोग तथा मोक्ष दोनों प्राप्त करने में समर्थ होता है. तंत्र में इस साधना कि पूर्णता को सर्वोच्च स्थिति माना गया है. इसकी पूर्ण सिद्धि प्राप्त साधक फिर पुरुष न रह कर युगपुरुष हो जाता है. इस साधना के द्वारा निम्नलिखित लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं. :-
1. विवाह बाधा का निवारण. 
2. गृहस्थ सुख में पूर्णता. 
3. पूर्ण पौरुष प्राप्ति. 
4. संतान प्राप्ति. 
5. पूर्ण ऐश्वर्य. 
6. विद्वत्व, कवित्व तथा कला निपुणता. 
7. पूर्ण कुण्डलिनी जागरण. 
8. आध्यात्मिक पूर्णता. 
षोडशी त्रिपुर सुंदरी मंत्र.
"ह्रीं क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं स क ल ह्रीं. "
यदि यह मंत्र न कर सकें तो निम्नलिखित बीज मंत्र का जाप भी कर सकते हैं. 
षोडशी त्रिपुर सुंदरी बीज मंत्र 
!ह्रीं!  
1. साधना के रूप में इसका पुरश्चरण सवा लाख मन्त्रों का होगा. 
2. रात्रि 9 से 1 बजे तक का समय श्रेस्ठ माना जाता है. 
3. प्रतिदिन षोडशी स्तोत्र या श्री सूक्त का पाठ आर्थिक लाभ देगा. 
4. अपनी क्षमता के अनुसार ताम्बा, चांदी या सोने से निर्मित श्री यन्त्र के सामने जाप करना लाभप्रद होगा. अभाव में जगदम्बा के चित्र, मूर्ति, यन्त्र या मंदिर में जाप करना लाभप्रद होगा. 
5. यह जाप यदि यन्त्र के सामने कर रहे हों तो जाप के बाद यन्त्र को गुलाबी रंग के रेशमी कपडे में लपेट कर रखें. प्रयास करें कि इस यन्त्र को कोई देख  या स्पर्श न कर सके. 
6. यन्त्र देवता तथा आपके बीच का एक माध्यम है, इसे यथा सम्भव गोपनीय तथा सात्विकता के साथ रखें. 
7. मंत्र या स्तोत्र का पाठ पूरे मन से करें. विश्वास तथा श्रद्धा के साथ किया गया जाप सदैव जापकर्ता के लिए लाभदायक होता है. 
8. साधना काल में प्रत्येक स्त्री को सम्मान दें, क्यूंकि प्रत्येक स्त्री जगदम्बा का ही प्रतिरूप है. 
9. साधना काल में सामने दीपक जलाएं. माघ पूर्णिमा या किसी पूर्णिमा से जाप प्रारम्भ करें. 
10. सात्विक भोजन करें. साधना काल में क्रोध न करें. 
11. यदि चाहें तो साधना के स्थान पर प्रतिदिन पूजन के साथ कुछ समय के लिए उपरोक्त मंत्र का जाप कर सकते हैं. 
त्रिपुर सुंदरी की साधना तथा मंत्र जाप जिस घर में होता है वह घर सभी दृष्टियों से पूर्ण होता है. ऐसे घर में स्वयं माँ अपने साधकों कि भौतिक तथा आध्यात्मिक इच्छाओं की पूर्ती के लिए तत्पर रहती हैं.
श्रीविद्या के लीलाविग्रह तो अनन्त हैं. श्रीमत्रिपुरसुन्दरी ललिता महाविद्या के विषय में कुछ भी लिखना सूर्यदेव को दीप दिखाने जैसा हैं क्योंकि अनंत का जितना भी वर्णन करें कम ही है. परंतु ऐसा होने पर भी ललिताम्बा की जो महिमा वर्णित हुई है ब्रह्माण्डपुराण, त्रिपुरारहस्य आदि पुराणेतिहासों में, उसके माध्यम से इन महात्रिपुरसुन्दरी मां की भक्ति में हम लग जाएं तो निश्चय ही जीवन सफल है. ललिता मां के प्रादुर्भाव के सन्दर्भ में ब्रह्माण्डपुराण के उत्तरखण्ड में जो मुख्य कथा वर्णित की गई है यहां प्रस्तुत है.
पूर्वकाल में शिवजी की क्रोधाग्नि द्वारा दग्ध काम की उस भस्म से गणेशजी के साथ खेलने के लिये भगवती पार्वती जी ने एक पुतला बनाया और उसको प्राणयुक्त कर दिया. तब उस तमोगुणी पिण्ड में भगवती रमा के द्वारा शापित माणिक्यशेखर के जीवन का प्रवेश होने से पिण्ड ने भयंकर रूप धारण कर लिया. यही भण्डासुर की उत्पत्ति का निमित्त बना.
उस भण्ड नाम के असुर ने श्रीशिवशंकर जी की आराधना की और उनसे अभय वर प्राप्त कर त्रिलोक आधिपत्य करते हुए देवताओं के हविर्भाग का भी स्वयमेव भोग करना आरम्भ किया. दुष्ट भण्डासुर जब इन्द्राणी का हरण करने की सोचने लगा तो इन्द्राणी उस असुर के डर से गौरी के निकट आश्रयार्थ गयीं. इधर भण्ड ने विशुक्र को पृथिवी का और विषङ्ग को पाताल का आधिपत्य दिया. उस दुष्ट ने स्वयं इन्द्रासन पर आरूढ़ होकर इन्द्रादि देवताओं को अपनी पालकी ढोने पर नियुक्त किया. दैत्यगुरु शुक्राचार्यजी ने दयावश होकर इन्द्रादिकों को इस दुर्गति से मुक्त किया.
असुरों की मूल राजधानी शोणितपुर को ही मयासुर के द्वारा स्वर्ग से भी सुन्दर बनवाकर उसका नया नाम शून्यकपुर रखकर वहीं पर भण्ड दैत्य राज्य करने लगा. स्वर्ग को उसने नष्ट कर डाला. दिक्पालों के स्थान में अपने बनाये हुए दैत्यों को ही उसने बैठाया. इस प्रकार एक सौ पाँच ब्रह्माण्डों पर उसने आक्रमण किया और उनको अपने अधिकार में कर लिया.
कोटि-कोटि सैनिकों के साथ आते हुए भण्ड दैत्य को देखकर देवों ने त्रिपुराम्बा की प्रार्थना करते हुए अपने शरीर अग्निकुण्ड में अर्पित कर दिये. भगवती त्रिपुराम्बा की आज्ञानुसार 'ज्वालामालिनी' शक्ति ने देवगणों के आसमन्तात्(चारों ओर) एक ज्वालामण्डल प्रकट किया. देवों को ज्वाला में भस्मीभूत समझकर भण्ड दैत्य सैन्य के साथ वापस चला गया. दैत्य के जाने के बाद देवतागण जब अपने अवशिष्टाङ्गों की पूर्णाहुति करने के लिये ज्यों ही उद्यत हुए त्यों ही ज्वाला के मध्य से तडित्पुञ्जनिभा 'त्रिपुराम्बा आविर्भूत हुईं. देव लोगों ने जयघोषपूर्वक पूजनादिद्वारा भगवती ललिता की स्तुति की. देवों को अपना दर्शन सुलभ हो इसलिये श्रीमाता ने विश्वकर्मा के द्वारा सुमेरु शिखर पर निर्मित श्रीनगर में सर्वदा निवास करना स्वीकार किया. उसके बाद श्रीमाता ललिताम्बा ने देवों की प्रार्थना के अनुसार श्रीचक्रात्मक रथ पर आरुढ़ होकर भण्ड दैत्य को मारने के लिये प्रस्थान किया. महाभयानक युद्ध प्रारम्भ हुआ. श्रीमाता के कुमार श्रीमहागणपति तथा कुमारी बालाम्बा ने भी युद्ध में बहुत पराक्रम दिखाया. श्रीमाता की मुख्य दो शक्तियों- 1- मन्त्रिणी - 'राजमातङ्गीश्वरी', 2- दण्डिनी - 'वाराही' और अन्य अनेक शक्तियों ने अपने प्रबल पराक्रम के द्वारा दैत्य-सैन्य में खलबली मचा दी.
वेद भी इन महात्रिपुरसुन्दरी मां का वर्णन कर सकने में असमर्थ हैं. भक्तों को ललिता महाविद्या प्रसन्न होकर सब कुछ दे देती हैं अभीष्ट तो सीमित अर्थवाच्य है. 'श्रीविद्या के विषय में अब भी बहुत वक्तव्य अवशिष्ट रह गया है, इस हेतु निश्चित रूप से आगे भी कई लेख प्रस्तुत किए जायेंगे. श्रीललिता जयंती पर 'श्रीमाता ललिताम्बा प्रीयताम् कहते हुए भगवती ललिता महात्रिपुरसुन्दरी के श्री चरणों में हमारा बारम्बार प्रणाम है.
Koti Devi Devta

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

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