महाकाल ज्योतिर्लिंग, शिव जी का तीसरा ज्योतिर्लिंग कहलाता है !

महाकाल ज्योतिर्लिंग, शिव जी का तीसरा ज्योतिर्लिंग कहलाता है !

प्रेषित समय :21:24:41 PM / Sun, Jul 24th, 2022

महाकाल ज्योतिर्लिंग, शिव जी का तीसरा ज्योतिर्लिंग कहलाता है.  यह एक मात्र ज्योतिर्लिंग है जो दक्षिणमुखी है. इस ज्योतिर्लिंग से सम्बंधित दो कहानियां पुराणों में वर्णित है जो इस प्रकार है.

शिव पुराण की ‘कोटि-रुद्र संहिता’ के सोलहवें अध्याय में तृतीय ज्योतिर्लिंग भगवान महाकाल के संबंध में सूतजी द्वारा जिस कथा को वर्णित किया गया है, उसके अनुसार अवंती नगरी में एक वेद कर्मरत ब्राह्मण रहा करते थे. 

वे अपने घर में अग्नि की स्थापना कर प्रतिदिन अग्निहोत्र करते थे और वैदिक कर्मों के अनुष्ठान में लगे रहते थे. भगवान शंकर के परम भक्त वह ब्राह्मण प्रतिदिन पार्थिव लिंग का निर्माण कर शास्त्र विधि से उसकी पूजा करते थे.

 हमेशा उत्तम ज्ञान को प्राप्त करने में तत्पर उस ब्राह्मण देवता का नाम ‘वेदप्रिय’ था. वेदप्रिय स्वयं ही शिव जी के अनन्य भक्त थे, जिसके संस्कार के फलस्वरूप उनके शिव पूजा-परायण ही चार पुत्र हुए. वे तेजस्वी तथा माता-पिता के सद्गुणों के अनुरूप थे. उन चारों पुत्रों के नाम ‘देवप्रिय’, ‘प्रियमेधा’, ‘संस्कृत’ और ‘सुवृत’ थे.

उन दिनों रत्नमाल पर्वत पर ‘दूषण’ नाम वाले धर्म विरोधी एक असुर ने वेद, धर्म तथा धर्मात्माओं पर आक्रमण कर दिया. उस असुर को ब्रह्मा से अजेयता का वर मिला था. सबको सताने के बाद अन्त में उस असुर ने भारी सेना लेकर अवन्ति (उज्जैन) के उन पवित्र और कर्मनिष्ठ ब्राह्मणों पर भी चढ़ाई कर दी. 

उस असुर की आज्ञा से चार भयानक दैत्य चारों दिशाओं में प्रलयकाल की आग के समान प्रकट हो गये. उनके भयंकर उपद्रव से भी शिव

जी पर विश्वास करने वाले वे ब्राह्मणबन्धु भयभीत नहीं हुए. 

अवन्ति नगर के निवासी सभी ब्राह्मण जब उस संकट में घबराने लगे, तब उन चारों शिवभक्त भाइयों ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा- ‘आप लोग भक्तों के हितकारी भगवान शिव पर भरोसा रखें.’ उसके बाद वे चारों ब्राह्मण-बन्धु शिव जी का पूजन कर उनके ही ध्यान में तल्लीन हो गये.

सेना सहित दूषण ध्यान मग्न उन ब्राह्मणों के पास पहुँच गया. उन ब्राह्मणों को देखते ही ललकारते हुए बोल उठा कि इन्हें बाँधकर मार डालो. वेदप्रिय के उन ब्राह्मण पुत्रों ने उस दैत्य के द्वारा कही गई बातों पर कान नहीं दिया और भगवान शिव के ध्यान में मग्न रहे. जब उस दुष्ट दैत्य ने यह समझ लिया कि हमारे डाँट-डपट से कुछ भी परिणाम निकलने वाला नहीं है, तब उसने ब्राह्मणों को मार डालने का निश्चय किया.

महाकालेश्वर की वाणी सुनकर भक्ति भाव से पूर्ण उन ब्राह्मणों ने हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक कहा- ‘दुष्टों को दण्ड देने वाले महाकाल! शम्भो! आप हम सबको इस संसार-सागर से मुक्त कर दें. हे भगवान शिव! आप आम जनता के कल्याण तथा उनकी रक्षा करने के लिए यहीं हमेशा के लिए विराजिए. प्रभो! आप अपने दर्शनार्थी मनुष्यों का सदा उद्धार करते रहें.’

भगवान शंकर ने उन ब्राह्माणों को सद्गति प्रदान की और अपने भक्तों की सुरक्षा के लिए उस गड्ढे में स्थित हो गये. उस गड्ढे के चारों ओर की लगभग तीन-तीन किलोमीटर भूमि लिंग रूपी भगवान शिव की स्थली बन गई. ऐसे भगवान शिव इस पृथ्वी पर महाकालेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए.

शिवभक्त राजा चंद्रसेन और बालक की कथा

उज्जयिनी नगरी में महान शिवभक्त तथा जितेन्द्रिय चन्द्रसेन नामक एक राजा थे. उन्होंने शास्त्रों का गम्भीर अध्ययन कर उनके रहस्यों का ज्ञान प्राप्त किया था. उनके सदाचरण से प्रभावित होकर शिवजी के पार्षदों (गणों) में अग्रणी (मुख्य) मणिभद्र जी राजा चन्द्रसेन के मित्र बन गये. 

मणिभद्र जी ने एक बार राजा पर अतिशय प्रसन्न होकर राजा चन्द्रसेन को चिन्तामणि नामक एक महामणि प्रदान की. वह महामणि कौस्तुभ मणि और सूर्य के समान देदीप्यमान (चमकदार) थी. वह महा मणि देखने, सुनने तथा ध्यान करने पर भी, वह मनुष्यों को निश्चित ही मंगल प्रदान करती थी.

राजा चनद्रसेन के गले में अमूल्य चिन्तामणि शोभा पा रही है, यह जानकार सभी राजाओं में उस मणि के प्रति लोभ बढ़ गया. चिन्तामणि के लोभ से सभी राजा क्षुभित होने लगे. उन राजाओं ने अपनी चतुरंगिणी सेना तैयार की और उस चिन्तामणि के लोभ में वहाँ आ धमके. 

चन्द्रसेन के विरुद्ध वे सभी राजा एक साथ मिलकर एकत्रित हुए थे और उनके साथ भारी सैन्यबल भी था. उन सभी राजाओं ने आपस में परामर्श करके रणनीति तैयार की और राजा चन्द्रसेन पर आक्रमण कर दिया. सैनिकों सहित उन राजाओं ने चारों ओर से उज्जयिनी के चारों द्वारों को घेर लिया. .

माँ ने देखा कि उसका बालक एक पत्थर के सामने आँखें बन्द करके बैठा है. वह उसका हाथ पकड़कर बार-बार खींचने लगी पर इस पर भी वह बालक वहाँ से नहीं उठा, जिससे उसकी माँ को क्रोध आया और उसने उसे ख़ूब पीटा. इस प्रकार खींचने और मारने-पीटने पर भी जब वह बालक वहाँ से नहीं हटा, तो माँ ने उस पत्थर को उठाकर दूर फेंक दिया. 
बालक द्वारा उस शिवलिंग पर चढ़ाई गई सामग्री को भी उसने नष्ट कर दिया. शिव जी का अनादर देखकर बालक ‘हाय-हाय’ करके रो पड़ा. क्रोध में आगबबूला हुई वह ग्वालिन अपने बेटे को डाँट-फटकार कर पुनः अपने घर में चली गई. जब उस बालक ने देखा कि भगवान शिव जी की पूजा को उसकी माता ने नष्ट कर दिया, तब वह बिलख-बिलख कर रोने लगा. 
देव! देव! महादेव! ऐसा पुकारता हुआ वह सहसा बेहोश होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा. उसकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई. कुछ देर बाद जब उसे चेतना आयी, तो उसने अपनी बन्द आँखें खोल दीं.

उस बालक ने आँखें खोलने के बाद जो दृश्य देखा, उससे वह आश्चर्य में पड़ गया. भगवान शिव की कृपा से उस स्थान पर महाकाल का दिव्य मन्दिर खड़ा हो गया था. मणियों के चमकीले खम्बे उस मन्दिर की शोभा बढा रहे थे. वहाँ के भूतल पर स्फटिक मणि जड़ दी गयी थी. 

तपाये गये दमकते हुए स्वर्ण-शिखर उस शिवालय को सुशोभित कर रहे थे. उस मन्दिर के विशाल द्वार, मुख्य द्वार तथा उनके कपाट सुवर्ण निर्मित थे. उस मन्दिर के सामने नीलमणि तथा हीरे जड़े बहुत से चबूतरे बने थे.

उसके बाद जब शाम हो गयी, तो सूर्यास्त होने पर वह बालक शिवालय से निकल कर बाहर आया और अपने निवास स्थल को देखने लगा. उसका निवास देवताओं के राजा इन्द्र के समान शोभा पा रहा था. वहाँ सब कुछ शीघ्र ही सुवर्णमय हो गया था, जिससे वहाँ की विचित्र शोभा हो गई थी. 

शिव के ही प्रतिनिधि वानरराज हनुमान जी ने समस्त राजाओं सहित राजा चन्द्रसेन को अपनी कृपादृष्टि से देखा. उसके बाद अतीव प्रसन्नता के साथ उन्होंने गोप बालक श्रीकर को शिव जी की उपासना के सम्बन्ध में बताया.

पूजा-अर्चना की जो विधि और आचार-व्यवहार भगवान शंकर को विशेष प्रिय है, उसे भी श्री हनुमान जी ने विस्तार से बताया. अपना कार्य पूरा करने के बाद वे समस्त भूपालों तथा राजा चन्द्रसेन से और गोप बालक श्रीकर से विदा लेकर वहीं पर तत्काल अर्न्तधान हो गये. राजा चन्द्रसेन की आज्ञा प्राप्त कर सभी नरेश भी अपनी राजधानियों को वापस हो गये.
कहा जाता है भगवान महाकाल तब ही से उज्जयिनी में स्वयं विराजमान है. हमारे प्राचीन ग्रंथों में महाकाल की असीम महिमा का वर्णन मिलता है. महाकाल साक्षात राजाधिराज देवता माने गए हैं.

महाकाल स्तोत्रं 

ॐ महाकाल महाकाय महाकाल जगत्पते 

महाकाल महायोगिन महाकाल नमोस्तुते 

महाकाल महादेव महाकाल महा प्रभो 

महाकाल महारुद्र महाकाल नमोस्तुते

महाकाल महाज्ञान महाकाल तमोपहन

महाकाल महाकाल महाकाल नमोस्तुते 

भवाय च नमस्तुभ्यं शर्वाय च नमो नमः 

रुद्राय च नमस्तुभ्यं पशुना पतये नमः 

उग्राय च नमस्तुभ्यं महादेवाय वै नमः 

भीमाय च नमस्तुभ्यं मिशानाया नमो नमः 

ईश्वराय नमस्तुभ्यं तत्पुरुषाय वै नमः 

 सघोजात नमस्तुभ्यं शुक्ल वर्ण नमो नमः 

अधः काल अग्नि रुद्राय रूद्र रूप आय वै नमः 

स्थितुपति लयानाम च हेतु रूपआय वै नमः 

सर्व रूप नमस्तुभ्यं विश्व रूप नमोस्तुते 

ब्रहम रूप नमस्तुभ्यं विष्णु रूप नमोस्तुते 

रूद्र रूप नमस्तुभ्यं महाकाल नमोस्तुते 

सचिदानंद रूपआय महाकालाय ते नमः 

प्रसीद में नमो नित्यं मेघ वर्ण नमोस्तुते 

प्रसीद में महेशान दिग्वासाया नमो नमः 

ॐ ह्रीं माया - स्वरूपाय सच्चिदानंद तेजसे 

स्वः सम्पूर्ण मन्त्राय सोऽहं हंसाय ते नमः 

फल श्रुति इत्येवं देव देवस्य मह्कालासय भैरवी

कीर्तितम पूजनं सम्यक सधाकानाम सुखावहम 

Koti Devi Devt

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

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