शास्त्रों में देवताओं के कार्य की अपेक्षा पितरों के कार्य को विशिष्ट माना गया है; इसलिए देवताओं की पूजा से पहले पितरों का कार्य करना चाहिए .
पितरों के कार्य को ही ‘श्राद्ध कर्म’, ‘पितृ कर्म’, ‘पितृ पूजा’ या ‘पितर पूजा’ कहते हैं . पितरों के निमित्त तर्पण और श्राद्ध आदि करना ‘पितृ यज्ञ’ कहलाता है .
यह ध्रुव सत्य है कि जीवन की समाप्ति मृत्यु से ही होती है . जीवात्मा इतना सूक्ष्म होता है कि जब वह शरीर से निकलता है, उस समय कोई भी मनुष्य अपने खुले नेत्रों से उसे देख नहीं सकता है . मनुष्य की मृत्यु के बाद उस प्राणी के उद्धार की जिम्मेदारी उसके पुत्र और पौत्रों की होती है . इसीलिए कहा गया है—‘पुं नाम नरकात् त्रायते इति पुत्र: ’ अर्थात् ‘नरक से जो रक्षा करता है, वही पुत्र है .’ यदि पिता नरक में पहुंच गया है तो नरकों से उसका उद्धार (श्राद्ध तर्पण आदि द्वारा) करके पिता को सद्गति प्राप्त करा देना, पुत्र का कर्तव्य है; इसीलिए उसे ‘पुत्र’ कहा जाता है .
पितृ पूजा या पितृ कर्म क्यों करने चाहिए ?
भारतीय संस्कृति में पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए अपने माता-पिता तथा परिवार के अन्य मृत प्राणियों के निमित्त श्राद्ध करना अनिवार्य माना गया है . इसका कारण यह माना गया है कि
सामान्य प्राणी से जीवन में पाप और पुण्य दोनों होते हैं . पुण्य का फल स्वर्ग और पाप का फल नरक माना गया है . स्वर्ग-नरक भोगने के बाद जीव पुन: संसार की भवाटवी अर्थात् चौरासी लाख योनियों में भटकने लगता है . उस समय पुण्यात्मा लोगों को मनुष्य योनि या देवयोनि मिलती है और पापात्मा जीव पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े आदि तिर्यक योनि प्राप्त करते हैं . मनुष्य की मृत्यु के बाद उस प्राणी के उद्धार के लिए पुत्र-पौत्रों का कर्तव्य होता है कि वे शास्त्रों में बताए गए कुछ ऐसे कर्म करें जिससे प्राणी को परलोक में या अन्य योनियों में भी सुख की प्राप्ति हो सके.
शास्त्रों में मनुष्य का मरणकाल निकट आने पर उसके कल्याण के लिए विभिन्न प्रकार के दान आदि किए जाने वाले कर्मों का वर्णन मिलता है . साथ ही मृत्यु के बाद और्ध्वदैहिक संस्कार, पिण्ड दान, एकादशाह, सपिण्डीकरण, तर्पण, श्राद्ध आदि करने का विधान है .
प्रश्न यह है कि मरे हुए जीव तो अपने कर्मानुसार शुभ-अशुभ गति को प्राप्त होते हैं; फिर श्राद्धकाल में वे अपने पुत्र के घर कैसे पहुंच जाते हैं—
इसका उत्तर यह है कि जो लोग यहां मरते हैं, उनमें से कितने ही इस लोक में जन्म ग्रहण करते हैं, कितने ही पुण्यात्मा स्वर्गलोक में निवास करते हैं और पापात्मा जीव यमलोक के निवासी हो जाते हैं . यमलोक या स्वर्गलोक में रहने वाले पितरों को भी तब तक भूख-प्यास अधिक होती है, जब तक कि वे माता या पिता से तीन पीढ़ी के अंतर्गत रहते हैं—जब तक वे श्राद्धकर्ता पुरुष के मातामह, प्रमातामह या वृद्धप्रमातामह और पिता, पितामह या प्रपितामह पद पर रहते हैं . तब तक श्राद्धभाग ग्रहण करने के लिए उनमें भूख-प्यास की अधिकता होती है.
जो पितर स्वर्गलोक में निवास करते हैं, वे भी वहां भूख-प्यास का अत्यंत कष्ट उठाते हैं; क्योंकि स्वर्ग में देवताओं को भूख-प्यास का कष्ट नहीं होता है . वहां कोई खाता-पीता नहीं दिखाई देता है . देवता तो अनेक प्रकार के भोगों से संपन्न होकर प्रसन्नचित्त रहते हैं . जब स्वर्गलोकवासी पितरों को भूख-प्यास का कष्ट सताता है तो वे नंदनवन के वृक्षों से फलों को तोड़ते हैं; परंतु फल वृक्ष की डाली से अलग ही नहीं होते हैं . प्यास से पीड़ित होकर जब वे देवनदी का जल हाथ में उठाते हैं तो उस जल का हाथ से स्पर्श ही नहीं होता है . इस प्रकार जिनके वंशज उनके लिए तर्पण या श्राद्ध नहीं करते, वे पितर चाहें स्वर्ग में रहें या यमलोक में; वे भूख-प्यास से व्याकुल रहते हैं .
अमावस्या के दिन वंशजों से श्राद्ध और पिण्ड पाकर पितरों को एक मास तक तृप्ति बनी रहती है . पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितरों को एक वर्ष तक तृप्ति रहती है और जो मनुष्य गया में जाकर एक बार भी श्राद्ध कर दे तो उसके सभी पितर सदा के लिए तृप्त हो जाते हैं.
श्राद्ध से केवल मनुष्य की और पितरों की ही संतुष्टि नहीं होती है; वरन् श्राद्ध करने वाला ब्रह्मा से लेकर तृण (घास-फूंस) तक समस्त सृष्टि को संतुष्ट कर देता है . श्राद्ध द्वारा तृप्त हुए पितर मनुष्य को मनोवांछित भोग प्रदान करते हैं . पितरों की पूजा से मनुष्य को पुष्टि, आयु, वीर्य, और लक्ष्मी की प्राप्ति होती है.
यही कारण है कि पितृ कर्म को अत्यंत कल्याणकारी मानते हुए देवताओं की पूजा से भी पहले करना चाहिए .
ध्यान रखने वाली बात यह है कि पितृ कार्य करते समय शुद्धता बहुत आव्श्यक है . चाहे वह वाणी की हो या कर्म की अर्थात् श्राद्ध करते समय न तो किसी से बुरा बोलें और न ही अपवित्र रहे . श्राद्ध की क्रियाएं अत्यंत सूक्ष्म होती हैं; अत: इन्हें करते समय अत्यंत सावधानी रखनी चाहिए.
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