अक्षय तृतीया के दिन लक्ष्मी नारायण की पूजा सफेद कमल- गुलाब या पीले गुलाब से करना चाहिए

अक्षय तृतीया के दिन लक्ष्मी नारायण की पूजा सफेद कमल- गुलाब या पीले गुलाब से करना चाहिए

प्रेषित समय :21:45:49 PM / Thu, Apr 20th, 2023

*22 अप्रैल 2023 शनिवार को अक्षय तृतीया है .
 *वैशाख शुक्ल तृतीया की महिमा मत्स्य, स्कंद, भविष्य, नारद पुराणों व महाभारत आदि ग्रंथो में है . इस दिन किये गये पुण्यकर्म अक्षय (जिसका  क्षय न हो) व अनंत फलदायी होते हैं, अत: इसे 'अक्षय तृतीया' कहते है . यह सर्व सौभाग्यप्रद है .
 *यह युगादि तिथि यानी सतयुग व त्रेतायुग की प्रारम्भ तिथि है . श्रीविष्णु का नर-नारायण, हयग्रीव और परशुरामजी के रूप में अवतरण व महाभारत युद्ध का अंत इसी तिथि को हुआ था ।*
*इस दिन बिना कोई शुभ मुहूर्त देखे कोई भी शुभ कार्य प्रारम्भ या सम्पन्न किया जा सकता है . जैसे - विवाह, गृह - प्रवेश या वस्त्र -आभूषण, घर, वाहन, भूखंड आदि की खरीददारी, कृषिकार्य का प्रारम्भ आदि सुख-समृद्धि प्रदायक है .
 *प्रात:स्नान, पूजन, हवन का महत्त्व 
 *इस दिन गंगा-स्नान करने से सारे तीर्थ करने का फल मिलता है . गंगाजी का सुमिरन एवं जल में आवाहन करके ब्राम्हमुहूर्त में पुण्यस्नान तो सभी कर सकते है . स्नान के पश्चात् प्रार्थना करें
 *माधवे मेषगे भानौं मुरारे मधुसुदन ।*
*प्रात: स्नानेन में नाथ फलद: पापहा भव ॥*
 *'हे मुरारे ! हे मधुसुदन ! वैशाख मास में मेष के सूर्य में हे नाथ ! इस प्रात: स्नान से मुझे फल देनेवाले हो जाओ और पापों का नाश करों ।'*
*सप्तधान्य उबटन व गोझरण मिश्रित जल से स्नान पुण्यदायी है . पुष्प, धूप-दीप, चंदनम अक्षत (साबुत चावल) आदि से लक्ष्मी-नारायण का पूजन व अक्षत से हवन अक्षय फलदायी है ।*

अक्षय तृतीया पूजा मुहूर्त -
 07:49  से 12:12 - अवधि - 04 घण्टे 24 मिनट्स
तृतीया तिथि प्रारम्भ - 22,अप्रैल  2023 को 07:49  बजे
तृतीया तिथि समाप्त -23, अप्रैल  2023 को 07:47  बजे

अक्षय तृतीया वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को ही अक्षय तृतीया कहते हैं.
ऐसी मान्यता है कि अक्षय तृतीया पर अगर किसी कार्य का शुभारंभ किया जाए तो वह कार्य कभी समाप्त नहीं होता. केवल कार्य ही नहीं, जो भौतिक संसाधन भी इस अवधि में जुटाए जाएं वे भी हमारे जीवन में चिर स्थाई हो जाते हैं. इस तिथि का कुछ लोगों यह भी सदुपयोग किया है कि वे इस दिन दान पुण्य करते हैं, ताकि उनके किए दान अक्षय हो जाएं.
ऐसे में अक्षय तृतीया के दिन नया काम शुरू करने, नए भौतिक संसाधन जैसे बरतन, सोना, चांदी और अन्य कीमती वस्तुएं, विवाह और दान पुण्य करने का रिवाज बन गया है.
आप सभी को अक्षय तृतीय की ढेरों शुभकामनाएं. नए वस्त्र खरीदिए, मांगलिक कार्य कीजिए, कीमती आभूषण खरीदिए और दान पुण्य कीजिए, सभी कुछ अक्षय रहे इस कामना के साथ.
प्रचलित मान्यताएं
पुराणों में लिखा है कि इस दिन पितरों को किया गया तर्पण तथा पिन्डदान अथवा किसी और प्रकार का दान, अक्षय फल प्रदान करता है. इस दिन गंगा स्नान करने से तथा भगवत पूजन से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं. यहाँ तक कि इस दिन किया गया जप, तप, हवन, स्वाध्याय और दान भी अक्षय हो जाता है. यह तिथि यदि सोमवार तथा रोहिणी नक्षत्र के दिन आए तो इस दिन किए गए दान, जप–तप का फल बहुत अधिक बढ़ जाता हैं. इसके अतिरिक्त यदि यह तृतीया मध्याह्न से पहले शुरू होकर प्रदोष काल तक रहे तो बहुत ही श्रेष्ठ मानी जाती है. यह भी माना जाता है कि आज के दिन मनुष्य अपने या स्वजनों द्वारा किए गए जाने–अनजाने अपराधों की सच्चे मन से ईश्वर से क्षमा प्रार्थना करे तो भगवान उसके अपराधों को क्षमा कर देते हैं और उसे सदगुण प्रदान करते हैं, अतः आज के दिन अपने दुर्गुणों को भगवान के चरणों में सदा के लिए अर्पित कर उनसे सदगुणों का वरदान माँगने की परंपरा भी है.
अक्षय तृतीया के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर समुद्र या गंगा स्नान करने के बाद भगवान विष्णु की शांत चित्त होकर विधि विधान से पूजा करने का प्रावधान है. नैवेद्य में जौ या गेहूँ का सत्तू, ककड़ी और चने की दाल अर्पित किया जाता है. तत्पश्चात फल, फूल, बरतन, तथा वस्त्र आदि दान करके ब्राह्मणों को दक्षिणा दी जाती है. ब्राह्मण को भोजन करवाना कल्याणकारी समझा जाता है. मान्यता है कि इस दिन सत्तू अवश्य खाना चाहिए तथा नए वस्त्र और आभूषण पहनने चाहिए. गौ, भूमि, स्वर्ण पात्र इत्यादि का दान भी इस दिन किया जाता है. यह तिथि वसंत ऋतु के अंत और ग्रीष्म ऋतु का प्रारंभ का दिन भी है इसलिए अक्षय तृतीया के दिन जल से भरे घडे, कुल्हड, सकोरे, पंखे, खडाऊँ, छाता, चावल, नमक, घी, खरबूजा, ककड़ी, चीनी, साग, इमली, सत्तू आदि गरमी में लाभकारी वस्तुओं का दान पुण्यकारी माना गया है. इस दान के पीछे यह लोक विश्वास है कि इस दिन जिन–जिन वस्तुओं का दान किया जाएगा, वे समस्त वस्तुएँ स्वर्ग या अगले जन्म में प्राप्त होगी. इस दिन लक्ष्मी नारायण की पूजा सफेद कमल अथवा सफेद गुलाब या पीले गुलाब से करना चाहिये.
सर्वत्र शुक्ल पुष्पाणि प्रशस्तानि सदार्चने.
दानकाले च सर्वत्र मंत्र मेत मुदीरयेत्॥
अर्थात सभी महीनों की तृतीया में सफेद पुष्प से किया गया पूजन प्रशंसनीय माना गया है. ऐसी भी मान्यता है कि अक्षय तृतीया पर अपने अच्छे आचरण और सद्गुणों से दूसरों का आशीर्वाद लेना अक्षय रहता है. भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की पूजा विशेष फलदायी मानी गई है. इस दिन किया गया आचरण और सत्कर्म अक्षय रहता है.
सतयुग और त्रेता का आरंभ बिंदू
भविष्य पुराण के अनुसार इस तिथि की युगादि तिथियों में गणना होती है, सतयुग और त्रेता युग का प्रारंभ इसी तिथि से हुआ है. भगवान विष्णु ने नर–नारायण, हयग्रीव और परशुराम जी का अवतरण भी इसी तिथि को हुआ था. ब्रह्माजी के पुत्र अक्षय कुमार का आविर्भाव भी इसी दिन हुआ था. इस दिन श्री बद्रीनाथ जी की प्रतिमा स्थापित कर पूजा की जाती है और श्री लक्ष्मी नारायण के दर्शन किए जाते हैं. प्रसिद्ध तीर्थ स्थल बद्रीनारायण के कपाट भी इसी तिथि से ही पुनः खुलते हैं. वृंदावन स्थित श्री बांके बिहारी जी मन्दिर में भी केवल इसी दिन श्री विग्रह के चरण दर्शन होते हैं, अन्यथा वे पूरे वर्ष वस्त्रों से ढके रहते हैं. जी.एम. हिंगे के अनुसार तृतीया 41 घटी 21 पल होती है तथा धर्म सिंधु एवं निर्णय सिंधु ग्रंथ के अनुसार अक्षय तृतीया 6 घटी से अधिक होना चाहिए. 
व्रत कथाएं
एक कथा के अनुसार प्राचीन काल में एक धर्मदास नामक वैश्य था. उसकी सदाचार, देव और ब्राह्मणों के प्रति काफी श्रद्धा थी. इस व्रत के महात्म्य को सुनने के पश्चात उसने इस पर्व के आने पर गंगा में स्नान करके विधिपूर्वक देवी–देवताओं की पूजा की, व्रत के दिन स्वर्ण, वस्त्र तथा दिव्य वस्तुएँ ब्राह्मणों को दान में दी. अनेक रोगों से ग्रस्त तथा वृद्ध होने के बावजूद भी उसने उपवास करके धर्म–कर्म और दान पुण्य किया. यही वैश्य दूसरे जन्म में कुशावती का राजा बना. कहते हैं कि अक्षय तृतीया के दिन किए गए दान व पूजन के कारण वह बहुत धनी प्रतापी बना. वह इतना धनी और प्रतापी राजा था कि त्रिदेव तक उसके दरबार में अक्षय तृतीया के दिन ब्राह्मण का वेष धारण करके उसके महायज्ञ में शामिल होते थे. अपनी श्रद्धा और भक्ति का उसे कभी घमंड नहीं हुआ और महान वैभवशाली होने के बावजूद भी वह धर्म मार्ग से विचलित नहीं हुआ. माना जाता है कि यही राजा आगे चलकर राजा चंद्रगुप्त के रूप में पैदा हुआ.
स्कंद पुराण और भविष्य पुराण में उल्लेख है कि वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया को रेणुका के गर्भ से भगवान विष्णु ने परशुराम रूप में जन्म लिया. कोंकण और चिप्लून के परशुराम मंदिरों में इस तिथि को परशुराम जयंती बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है. दक्षिण भारत में परशुराम जयंती को विशेष महत्व दिया जाता है. परशुराम जयंती होने के कारण इस तिथि में भगवान परशुराम के आविर्भाव की कथा भी सुनी जाती है. इस दिन परशुराम जी की पूजा करके उन्हें अर्घ्य देने का बड़ा माहात्म्य माना गया है. सौभाग्यवती स्त्रियाँ और क्वारी कन्याएँ इस दिन गौरी–पूजा करके मिठाई, फल और भीगे हुए चने बाँटती हैं, गौरी–पार्वती की पूजा करके धातु या मिट्टी के कलश में जल, फल, फूल, तिल, अन्न आदि लेकर दान करती हैं. मान्यता है कि इसी दिन जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय भृगुवंशी परशुराम का जन्म हुआ था. उल्लेख है कि सीता स्वयंवर के समय परशुराम जी अपना धनुष बाण श्री राम को समर्पित कर संन्यासी का जीवन बिताने अन्यत्र चले गए. अपने साथ एक फरसा रखते थे तभी उनका नाम परशुराम पड़ा.
जैन धर्म में महत्व
जैन धर्मावलम्बियों का महान धार्मिक पर्व है. इस दिन जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान ने एक वर्ष की पूर्ण तपस्या करने के पश्चात इक्षु (शोरडी–गन्ने) रस से पारायण किया था. जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर श्री आदिनाथ भगवान ने सत्य व अहिंसा का प्रचार करने एवं अपने कर्म बंधनों को तोड़ने के लिए संसार के भौतिक एवं पारिवारिक सुखों का त्याग कर जैन वैराग्य अंगीकार कर लिया. सत्य और अहिंसा के प्रचार करते–करते आदिनाथ प्रभु हस्तिनापुर गजपुर पधारे जहाँ इनके पौत्र सोमयश का शासन था. प्रभु का आगमन सुनकर सम्पूर्ण नगर दर्शनार्थ उमड़ पड़ा सोमप्रभु के पुत्र राजकुमार श्रेयांस कुमार ने प्रभु को देखकर उसने आदिनाथ को पहचान लिया और तत्काल शुद्ध आहार के रूप में प्रभु को गन्ने का रस दिया, जिससे आदिनाथ ने व्रत का पारायण किया. जैन धर्मावलंबियों का मानना है कि गन्ने के रस को इक्षुरस भी कहते हैं इस कारण यह दिन इक्षु तृतीया एवं अक्षय तृतीया के नाम से विख्यात हो गया.
भगवान श्री आदिनाथ ने लगभग 400 दिवस की तपस्या के पश्चात पारायण किया था. यह लंबी तपस्या एक वर्ष से अधिक समय की थी अत: जैन धर्म में इसे वर्षीतप से संबोधित किया जाता है. आज भी जैन धर्मावलंबी वर्षीतप की आराधना कर अपने को धन्य समझते हैं, यह तपस्या प्रति वर्ष कार्तिक के कृष्ण पक्ष की अष्टमी से आरम्भ होती है और दूसरे वर्ष वैशाख के शुक्लपक्ष की अक्षय तृतीया के दिन पारायण कर पूर्ण की जाती है. तपस्या आरंभ करने से पूर्व इस बात का पूर्ण ध्यान रखा जाता है कि प्रति मास की चौदस को उपवास करना आवश्यक होता है. इस प्रकार का वर्षीतप करीबन 13 मास और 10 दिन का हो जाता है. उपवास में केवल गर्म पानी का सेवन किया जाता है.
पहले समझते हैं कि तिथि क्या है, सूर्य और चंद्रमा की निश्चित कोणीय दूरी को एक तिथि कहा जाता है. यही कारण है कि अंग्रेजी कलेण्डर में जब दिन जारी रहता है, तभी तिथि समाप्त हो जाती है अथवा अंग्रेजी कलेण्डर में तारीख वही रहती है और तिथि बदल जाती है.
इसके साथ ही हम यह भी देखते हैं कि किसी तिथि का लोप हो जाता है तो किसी तिथि की वृद्धि हो जाती है. ऐसा इस कारण होता है क्योंकि सनातन कलेण्डर के अनुसार एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय के बीच की अवधि को एक दिन कहा जाता है. अगर कोई तिथि एक सूर्योदय से अगले सूर्योदय के बीच ही समाप्त हो जाती है, तो उसे तिथि का लोप होना कहते हैं और अगर एक दूसरे दिन के सूर्योदय के बाद भी तिथि जारी रहती है तो उसे तिथि वृद्धि होना कहा जाता है.
सूर्य और चंद्रमा के कोणीय संबंधों में अक्षय तृतीया एक ऐसा बिंदू है, जहां यह संबंध बिल्कुल सटीक होता है, और सूर्योदय के साथ तिथि का उदय होता है और अगले दिन सूर्योदय से पहले तिथि समाप्त हो जाती है. दूसरे शब्दों में कहें तो अक्षय तृतीया ऐसी तिथि है, जिसमें कभी वृद्धि अथवा लोप नहीं होता. इसी कारण इसे अक्षय कहा गया है, इसका कभी क्षरण नहीं होता.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

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