परशुराम द्वादशी व्रत, करने से पुण्य का प्रभाव कभी समाप्त नहीं होता

परशुराम द्वादशी व्रत, करने से पुण्य का प्रभाव कभी समाप्त नहीं होता

प्रेषित समय :18:45:04 PM / Mon, May 1st, 2023

परशुराम द्वादशी व्रत, भगवान विष्णु के छठे अवतार, भगवान परशुराम को समर्पित है. परशुराम द्वादशी व्रत वैशाख मास में शुक्ल पक्ष के बारहवें दिन मनाया जाता है. इस दिन भक्त एक कठोर व्रत का पालन करते हैं. मोहिनी एकादशी के अगले दिन परशुराम व्रत मनाया जाता है. कभी-कभी दोनों व्रत एक ही दिन पड़ सकते हैं. शास्त्रों में इस व्रत को बहुत ही फलदायी माना गया है शास्त्रों के अनुसार अगर कोई वैवाहिक दंपत्ति संतान की कामना रखते हैं तो उन्हें परशुराम द्वादशी का व्रत करना चाहिए 
परशुराम द्वादशी का महत्व 
भगवान् परशुराम को भगवान विष्णु के छठे अवतार के रूप में जाना जाता है. इनकी माता का नाम रेणुका था.  भगववान परशुराम त्रेता युग और द्वापर युग के दौरान रहे. शास्त्रों के अनुसार भगवान् परशुराम को चिरंजीवी या अमर माना जाता हैं. भगवान् परशुराम ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की और उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने उन्हें दर्शन दिए और परशु प्रदान किया. भगवान् शिव ने परशुराम को कलारीपयट्टु नामक कला का भी प्रशिक्षण दिया. दो विशाल महाकाव्य महाभारत और रामायण ने भीष्म, द्रोण और कर्ण के गुरु के रूप में उनकी महत्वपूर्ण भूमिकाओं को परिभाषित किया है . परशुराम एक महान योद्धा थे. वो हमेशा भगवा वस्त्र धारण करते थे. उन्होंने भगवान शिव से भार्गवस्त्र अर्जित किया था. परशुराम ने भगवान शिव से युद्ध के गुर भी सीखे थे. मान्यताओं के अनुसार परशुराम द्वादशी के दिन किये गए पुण्य का प्रभाव कभी खत्म समाप्त नहीं होता है. विशेष रूप से ब्राह्मणों के लिए परशुराम द्द्वादशी का बहुत महत्व होता है. 
परशुराम द्वादशी की व्रत कथा 
वीरसेन नाम का एक राजा था. उसका कोई पुत्र नहीं था इसलिए उसने भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप करने का निर्णय लिया. तपस्या करने के लिए वह घने जंगल में चला गया. वह इस बात से अनजान था कि ऋषि याज्ञवल्क्य का आश्रम भी वहीं पास में ही है. एक दिन वीरसेन ने याज्ञवल्क्य को अपनी ओर आते देखा तो वह तुरंत उठकर खड़े हो गया और उनका अभिनन्दन किया. कुछ समय बाद ऋषि ने राजा से उसकी कठिन पूजा का कारण पूछा तब राजा ने उसे बताया कि वह एक पुत्र चाहता है इसलिए भगवान को प्रसन्न करने के लिए वह ये सब कर रहा है. ऋषि याज्ञवल्क्य ने उसे कठोर तपस्या के बजाय परशुराम द्वादशी का व्रत करने की सलाह दी. ऋषि की आज्ञा का पालन करते हुए राजा ने परशुराम द्वादशी के दिन विधिपूर्वक व्रत और पूजा की जिसके बाद विष्णु जी ने उसे बहादुर और धार्मिक पुत्र का वरदान दिया. बाद में वीरसेन का यह पुत्र पुण्यात्मा राजा नल के रूप में प्रसिद्ध हुआ.
पूजा विधि
1 इस दिन व्रत करने के लिए, स्नान ध्यान से निवृत होकर व्रत का संकल्प लें. 
2- इसके बाद भगवान परशुराम की मूर्ति स्थापित करें.
3- भगवान परशुराम की पूरी भक्ति भावना से पूजा-अर्चना करें.
4- इस दौरान मन में लाभ, क्रोध, ईर्ष्या जैसे विकारों को नहीं लाना चाहिए. 
5- इस दिन व्रत करने वाले को निराहार रहना चाहिए.
6- शाम को आरती अर्चना करने के बाद फलाहार ग्रहण करें.
7- इसके बाद अगले दिन फिर से पूजा करने के उपरांत भोजन ग्रहण करें.
8- यह व्रत द्वादशी की प्रातः से शुरु  होता है और दूसरे दिन त्रयोदशी तक चलता है

परशुराम चालीसा
दोहा श्री गुरु चरण सरोज छवि, निज मन मन्दिर धारि ।
सुमरि गजानन शारदा, गहि आशिष त्रिपुरारि । ।
बुद्धिहीन जन जानिये, अवगुणों का भण्डार ।
बरणौं परशुराम सुयश, निज मति के अनुसार । ।
चौपाई जय प्रभु परशुराम सुख सागर, जय मुनीश गुण ज्ञान दिवाकर ।
भृगुकुल मुकुट बिकट रणधीरा, क्षत्रिय तेज मुख संत शरीरा ।
जमदग्नी सुत रेणुका जाया, तेज प्रताप सकल जग छाया ।
मास बैसाख सित पच्छ उदारा, तृतीया पुनर्वसु मनुहारा ।
प्रहर प्रथम निशा शीत न घामा, तिथि प्रदोष व्यापि सुखधामा ।
तब ऋषि कुटीर रुदन शिशु कीन्हा, रेणुका कोखि जनम हरि लीन्हा ।
निज घर उच्च ग्रह छः ठाढ़े, मिथुन राशि राहु सुख गाढ़े ।
तेज-ज्ञान मिल नर तनु धारा, जमदग्नी घर ब्रह्म अवतारा ।
धरा राम शिशु पावन नामा, नाम जपत लग लह विश्रामा ।
भाल त्रिपुण्ड जटा सिर सुन्दर, कांधे मूंज जनेऊ मनहर ।
मंजु मेखला कठि मृगछाला, रुद्र माला बर वक्ष विशाला ।
पीत बसन सुन्दर तुन सोहें, कंध तुरीण धनुष मन मोहें ।
वेद-पुराण-श्रुति-स्मृति ज्ञाता, क्रोध रूप तुम जग विख्याता ।
दायें हाथ श्रीपरसु उठावा, वेद-संहिता बायें सुहावा ।
विद्यावान गुण ज्ञान अपारा, शास्त्र-शस्त्र दोउ पर अधिकारा ।
भुवन चारिदस अरु नवखंडा, चहुं दिशि सुयश प्रताप प्रचंडा ।
एक बार गणपति के संगा, जूझे भृगुकुल कमल पतंगा ।
दांत तोड़ रण कीन्ह विरामा, एक दन्द गणपति भयो नामा ।
कार्तवीर्य अर्जुन भूपाला, सहस्रबाहु दुर्जन विकराला ।
सुरगऊ लखि जमदग्नी पाही, रहिहहुं निज घर ठानि मन माहीं ।
मिली न मांगि तब कीन्ह लड़ाई, भयो पराजित जगत हंसाई ।
तन खल हृदय भई रिस गाढ़ी, रिपुता मुनि सौं अतिसय बाढ़ी ।
ऋषिवर रहे ध्यान लवलीना, निन्ह पर शक्तिघात नृप कीन्हा ।
लगत शक्ति जमदग्नी निपाता, मनहुं क्षत्रिकुल बाम विधाता ।
पितु-बध मातु-रुदन सुनि भारा, भा अति क्रोध मन शोक अपारा ।
कर गहि तीक्षण पराु कराला, दुष्ट हनन कीन्हेउ तत्काला ।
क्षत्रिय रुधिर पितु तर्पण कीन्हा, पितु-बध प्रतिशोध सुत लीन्हा ।
इक्कीस बार भू क्षत्रिय बिहीनी, छीन धरा बिप्रन्ह कहँ दीनी ।
जुग त्रेता कर चरित सुहाई, शिव-धनु भंग कीन्ह रघुराई ।
गुरु धनु भंजक रिपु करि जाना, तब समूल नाश ताहि ठाना ।
कर जोरि तब राम रघुराई, विनय कीन्ही पुनि शक्ति दिखाई ।
भीष्म द्रोण कर्ण बलवन्ता, भये शिष्य द्वापर महँ अनन्ता ।
शस्त्र विद्या देह सुयश कमावा, गुरु प्रताप दिगन्त फिरावा ।
चारों युग तव महिमा गाई, सुर मुनि मनुज दनुज समुदाई ।
दे कश्यप सों संपदा भाई, तप कीन्हा महेन्द्र गिरि जाई ।
अब लौं लीन समाधि नाथा, सकल लोक नावइ नित माथा ।
चारों वर्ण एक सम जाना, समदर्शी प्रभु तुम भगवाना ।
लहहिं चारि फल शरण तुम्हारी, देव दनुज नर भूप भिखारी ।
जो यह पढ़ै श्री परशु चालीसा, तिन्ह अनुकूल सदा गौरीसा ।
पूर्णेन्दु निसि बासर स्वामी, बसहुं हृदय प्रभु अन्तरयामी ।
दोहा
परशुराम को चारु चरित, मेटत सकल अज्ञान ।
शरण पड़े को देत प्रभु, सदा सुयश सम्मान । ।
श्लोक
भृगुदेव कुलं भानुं, सहस्रबाहुर्मर्दनम् ।
रेणुका नयनानंदं, परशुं वन्दे विप्रधनम् । ।
इति सम्पूर्ण

Koti Devi Devta

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

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