भगवान गणेशजी को 3 या 5 गांठ वाली दूर्वा (एक प्रकार की घास) अर्पण करने से शीघ्र प्रसन्न होते और भक्तों को मनोवांछित फल प्रदान करते हैं. इसीलिए उन्हें दूर्वा चढ़ाने का शास्त्रों में महत्त्व बताया गया है. इसके संबंध में पुराण में एक कथा का उल्लेख मिलता है-"एक समय पृथी पर अनलासुर नामक राक्षस ने भयंकर उत्पात मचा रखा था. उसका अत्याचार पृथ्वी के साथ-साथ स्वर्ग और पाताल तक फैलने लगा था. यह भगवद्-भक्ति व ईश्वर आराधना करने वाले ऋषि-मुनियों और निर्दोष लोगों को जिंदा निगल जाता था. देवराज इंद्र ने उससे कई बार युद्ध किया, लेकिन उन्हें हमेशा परास्त होना पड़ा. अनलासुर से अस्त होकर समस्त देवता भगवान शिव के पास गए. उन्होंने बताया कि उसे सिर्फ गणेश ही खत्म कर सकते हैं, क्योंकि उनका पेट बड़ा है इसलिए वे उसको पूरा निगल लेंगे. इस पर देवताओं ने गणेश की स्तुति कर उन्हें प्रसन्न किया. गणेशजी ने अनलासुर का पीछा किया और उसे निगल गए. इससे उनके पेट में काफी जलन होने लगी. अनेक उपाय किए गए, लेकिन ज्वाला शांत न हुई. जब कश्यप ऋषि को यह बात मालूम हुई, तो ये तुरंत कैलास गए और . दूर्वा एकत्रित कर एक गांठ तैयार कर गणेश को खिलाई, जिससे उनके पेट की ज्वाला तुरंत शांत हो गई.
गणेशजी को मोदक यानी लड्डू काफी प्रिय हैं. इनके बिना गणेशजी की पूजा अधूरी ही मानी जाती है. गोस्वामी तुलसीदास ने विनय पत्रिका में कार है
गाइये गणपति जगवंदन .
संकर सुवन भवानी नंदन.
सिद्धि-सदन गज बदन विनायक . कृपा-सिंधु सुंदर सब लायक ॥
मोदकप्रिय मुद मंगलदाता .
विद्या वारिधि बुद्धि विधाता ॥
इसमें भी उनकी मोदकप्रियता प्रदर्शित होती है. महाराष्ट्र के भक्त आमतौर पर गणेशजी को मोदक चढ़ाते हैं. उल्लेखनीय है कि मोदक मैदे के खोल में रवा, चीनी, मावे का मिश्रण कर बनाए जाते हैं. जबकि लड्डू मावे व मोतीचूर के बनाए हुए भी उन्हें पसंद है. जो भक्त पूर्ण श्रद्धाभाव से गणेशजी को मोदक या लड्डुओं का भोग लगाते हैं, उन पर वे शीप प्रसन्न होकर इच्छापूर्ति करते हैं.
मोद यानी आनंद और 'क' का शाब्दिक अर्थ छोटा-सा भाग मानकर ही मोदक शब्द बना है, जिसका तात्पर्य हाथ में रखने मात्र से आनंद की अनुभूति होना है. ऐसे प्रसाद को जब गणेशजी को अर्पण किया जाए तो सुख की अनुभूति होना स्वाभाविक है. एक दूसरी व्याख्या के अनुसार जैसे ज्ञान का प्रतीक मोदक यानी मीठा होता है, वैसे ही ज्ञान का प्रसाद भी मीठा होता है.
*गणपति अथर्वशीर्ष में लिखा है*
*यो दूर्वाङ्कुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति .*
*यो लाजैर्यजति स यशोवान् भवति स मेघावान् भवति ॥*
*यो मोदक सहस्रेण यजति स वांछित फलमवाप्राप्नोति ॥*
अर्थात जो भगवान को दूर्वा चढ़ाता है वह कुबेर के समान हो जाता है. जो लाजो (धान-लाई) चाढाता है, वह यशस्वी हो जाता है, मेधावी हो जाता है और जो एक हजार लड्डुओं का भोग गणेश भगवान् को लगाता है, वह वांछित फल प्राप्त करता है.
गणेशजी को गुड भी प्रिय है. उनकी मोदकप्रियता के संबंध में एक कथा पद्मपुराण में आती है. एक बार गजानन और कार्तिकेय के दर्शन करके देवगण अत्यंत प्रसन्न हुए. उन्होंने माता पार्वती को एक दिव्य लड्डू प्रदान किया. इस लड्डू को दोनों बालक आग्रह कर मांगने लगे. तब माता पार्वती ने लड्डू के गुण बताए-इस मोदक की गंध से ही अमरत्व की प्राप्ति होती है. निस्संदेह इसे सूंघने या खाने वाला संपूर्ण शास्त्रों का मर्मज्ञ, सब तन्त्रो में प्रवीण, लेखक, चित्रकार, विद्वान, ज्ञान-विज्ञान विशारद और सर्वज्ञ हो जाता है. फिर आगे कहा-"तुम दोनों से जो धर्माचरण के द्वारा अपनी श्रेष्ठता पहले सिद्ध करेगा, वही इस दिव्य मोदक को पाने का अधिकारी होगा.'
माता पार्वती की आज्ञा पाकर कार्तिक अपने तीव्रगामी वाहन मयूर पर आरूढ होकर त्रिलोक की तीर्थयात्रा पर चल पड़े और मुहर्त भर में ही सभी तीर्थों के दर्शन, स्नान कर लिए. इधर गणेशजी ने अत्यत श्रद्धा-भक्ति पूर्वक माता-पिता की परिक्रमा की और हाथ जोड़कर उनके सम्मुख खड़े हो गए और कहा कि तीर्थ स्थान, देव स्थान के दर्शन, अनुष्ठान व सभी प्रकार के व्रत करने से भी माता-पिता के पूजन के सोलहवें अंश के बराबर पुण्य प्राप्त नहीं होता है, अतः मोदक प्राप्त करने का अधिकारी मैं हूँ. गणेशजी का तर्कपूर्ण जवाब सुनकर माता पार्वती ने प्रसन्न होकर गणेशजी को मोदक प्रदान कर दिया और कहा कि माता-पिता की भक्ति के कारण गणेश ही यज्ञादि सभी शुभ कार्यों में सर्वत्र अग्रपूज्य होंगे.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-