रक्ष रक्ष जगन्मातर्देवि मंगलचण्डिके ।।
संहर्त्रि विपदां राशेर्हर्षमंगलकारिके ।।
हर्षमंगलदक्षे च हर्षमंगलचण्डिके ।।
शुभे मंगलदक्षे च शुभमंगल चण्डिके ।।
मंगले मङ्गलार्हे च सर्वमंगलमंगले ।।
सतां मंगलदे देवि सर्वेषां मंगलालये ।।
पूज्या मंगलवारे च मंगलाभीष्टदैवते ।।
पूज्ये मंगलभूपस्य मनुवंशस्य सन्ततम् ।।
मंगलाधिष्ठातृदेवि मंगलानां च मंगले ।।
संसारे मंगलाधारे मोक्षमंगलदायिनि ।।
सारे च मंगलाधारे पारे त्वं सर्वकर्मणाम् ।।
प्रतिमंगलवारं च पूज्ये त्वं मंगलप्रदे ।।
महादेव जी ने कहा – ‘जगन्माता भगवती मंगलचण्डिके! तुम सम्पूर्ण विपत्तियों का विध्वंस करने वाली हो एवं हर्ष तथा मंगल प्रदान करने को सदा प्रस्तुत रहती हो। मेरी रक्षा करो, मेरी रक्षा करो। खुले हाथ हर्ष और मंगल देने वाली हर्षमंगलचण्डिके! तुम शुभा, मंगलदक्षा, शुभमंगलचण्डिका, मंगला, मंगलार्हा तथा सर्वमंगलमंगला कहलाती हो। देवि! साधु पुरुषों को मंगल प्रदान करना तुम्हारा स्वाभाविक गुण है। तुमने सबके लिये मंगल का आश्रय हो। देवि! तुम मंगलग्रह की इष्टदेवी हो। मंगल के दिन तुम्हारी पूजा होनी चाहिये। मनुवंश में उत्पन्न राजा मंगल की पूजनीया देवी हो। मंगलाधिष्ठात्री देवि! तुम मंगलों के लिये भी मंगल हो। जगत के समस्त मंगल तुम पर आश्रित हैं। तुम सबको मोक्षमय मंगल प्रदान करती हो। मंगल को सुपूजित होने पर मंगलमय सुख प्रदान करने वाली देवि! तुम संसार की सारभूता मंगलधारा तथा समस्त कर्मों से परे हो।’
ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः २ (प्रकृतिखण्डः)/अध्यायः ४४