विशेष विश्लेषण रिपोर्ट
विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अब एक ऐसे आर्थिक और राजनीतिक मोड़ पर खड़ी है जहां हर निर्णय उसके भविष्य की दिशा तय कर सकता है. यह सवाल अब वैश्विक बहस का हिस्सा बन चुका है कि चीन की मौजूदा आर्थिक स्थिति उसे स्थायित्व और शक्ति के शिखर की ओर ले जा रही है या फिर वह धीरे-धीरे एक गहरे वित्तीय और सामाजिक संकट की ओर फिसल रहा है.
संकट के केंद्र में रियल एस्टेट
चीन की रियल एस्टेट इंडस्ट्री लंबे समय से उसकी आर्थिक प्रगति की रीढ़ मानी जाती रही है. घर निर्माण, जमीन की खरीद-फरोख्त और कर्ज आधारित निवेश की इस श्रृंखला ने दशकों तक GDP को तेज़ी से बढ़ाया. लेकिन अब यही सेक्टर एक भारी बोझ बन चुका है जिसे सरकार चाहकर भी उतार नहीं पा रही.
एवरग्रांडे और कंट्री गार्डन जैसी विशाल रियल एस्टेट कंपनियों का दिवालिया होना न केवल निवेशकों को झकझोर गया, बल्कि उससे जुड़े लाखों निर्माण कार्य ठप हो गए. इसके परिणामस्वरूप करोड़ों लोग अपने फंसे हुए निवेश और अधूरे घरों को लेकर मानसिक संकट में हैं. चीन की सरकार ने कर्ज नियंत्रण की जो नीति अपनाई थी, वह वित्तीय अनुशासन के दृष्टिकोण से जरूरी थी, लेकिन उसने एक साथ लाखों परियोजनाओं को अधर में लटका दिया.
मध्य वर्ग में बेचैनी और उपभोक्ता व्यय में गिरावट
जब किसी देश का मध्य वर्ग भय और असुरक्षा की स्थिति में होता है, तो उसका असर सीधे उपभोक्ता खर्च पर पड़ता है. यही हो रहा है चीन में, जहां लोग बड़े खर्चों को टाल रहे हैं, नई खरीदारी से बच रहे हैं और भविष्य के प्रति आशंकित हैं.
इस स्थिति को और गंभीर बना रही है युवाओं में बढ़ती बेरोज़गारी. हालिया आँकड़े बताते हैं कि 16–24 आयु वर्ग के युवाओं में बेरोज़गारी दर 20% के पार पहुंच चुकी है, हालांकि चीनी सरकार ने अब ऐसे आंकड़ों को सार्वजनिक करना ही बंद कर दिया है. यह कदम ही इस बात का संकेत है कि चीन उस आंतरिक संकट को छिपा रहा है जो उसकी ‘स्थिरता’ की छवि को नुकसान पहुँचा सकता है.
आर्थिक आंकड़ों की पारदर्शिता पर प्रश्नचिह्न
चीन की अर्थव्यवस्था को लेकर वैश्विक स्तर पर जो सबसे बड़ी चिंता है, वह है उसकी पारदर्शिता की कमी. सरकार GDP ग्रोथ, उत्पादन, निवेश और उपभोक्ता गतिविधियों से जुड़ी रिपोर्टों को नियंत्रित करती है और अनेक मामलों में संशोधित या चयनित रूप में ही प्रस्तुत करती है.
IMF, विश्व बैंक और स्वतंत्र शोध संस्थानों ने बार-बार इस बात पर सवाल उठाए हैं कि क्या चीन के सरकारी आंकड़े उसकी असली स्थिति को दर्शाते हैं. यही कारण है कि विदेशी निवेशकों में भरोसा डगमगाया है और चीन से पूंजी का निकलना तेज़ हो गया है.
तकनीकी क्षेत्र में सरकारी हस्तक्षेप और जोखिम
चीन की तकनीकी कंपनियां कभी विश्व की सबसे तेज़ उभरती इकाइयों में गिनी जाती थीं. अलीबाबा, टेनसेंट, बाइटडांस जैसी कंपनियों ने वैश्विक निवेशकों का ध्यान आकर्षित किया और देश के भीतर नवाचार की लहर पैदा की. लेकिन बीते कुछ वर्षों में सरकार द्वारा इन कंपनियों पर कड़े नियंत्रण, जुर्माने और निगरानी ने ‘स्टार्टअप संस्कृति’ को गहरे झटके दिए हैं.
जैक मा जैसे उद्यमी का सार्वजनिक जीवन से गायब हो जाना और अलीबाबा पर भारी जुर्माने से यह संकेत गया कि चीन में निजी क्षेत्र की स्वतंत्रता अब सीमित हो चुकी है. परिणामस्वरूप युवा उद्यमी और निवेशक अब दूसरे देशों की ओर देख रहे हैं, जहां उन्हें अधिक स्वतंत्रता और सुरक्षा मिले.
वैश्विक व्यापार में चीन की गिरती साख
हालांकि चीन अब भी ‘दुनिया की फैक्ट्री’ बना हुआ है, लेकिन हालिया वर्षों में वियतनाम, भारत, बांग्लादेश और मेक्सिको जैसे देशों ने वैश्विक आपूर्ति शृंखला में चीन का स्थान लेना शुरू कर दिया है. अमेरिकी-चीन व्यापार युद्ध, तकनीकी प्रतिबंध और भू-राजनीतिक तनाव ने चीन की साख को प्रभावित किया है.
कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने चीन से अपना उत्पादन हटाकर वैकल्पिक बाजारों में निवेश करना शुरू कर दिया है, जिससे वहां के रोजगार और निर्यात पर सीधा प्रभाव पड़ा है.
क्या चीन जापान की राह पर?
चीन की मौजूदा आर्थिक स्थिति की तुलना बार-बार 1990 के दशक के जापान से की जा रही है. उस समय जापान ने भी संपत्ति और स्टॉक मार्केट में अतिवृद्धि देखी थी, जिसके बाद उसे ‘लॉस्ट डिकेड्स’ का सामना करना पड़ा. चीन को इस रास्ते से बचना होगा.
यदि सरकार ने पारदर्शिता नहीं बढ़ाई, निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन नहीं दिया और जनसंख्या संकट (बूढ़ी होती आबादी) की अनदेखी की, तो वह उसी जाल में फँस सकता है जिसमें जापान दशकों तक जूझता रहा.
विकल्प हैं लेकिन चुनौती भी बड़ी
बीजिंग सरकार के पास विकल्प ज़रूर हैं—नीतिगत ढील, घरेलू उपभोग को प्रोत्साहन, रियल एस्टेट सेक्टर को पुनर्जीवित करने के लिए रणनीतिक निवेश और विदेशी कंपनियों के लिए खुलेपन की नीति—but हर कदम राजनीतिक जोखिम और नियंत्रण छोड़ने की मांग करता है, जो राष्ट्रपति शी जिनपिंग की शैली के अनुकूल नहीं है.
यदि चीन समय रहते अपने आर्थिक मॉडल में सुधार नहीं करता, तो वह विकास के उस बिंदु से पीछे लौट सकता है, जिसे उसने कठिन परिश्रम से प्राप्त किया था.
आज चीन की अर्थव्यवस्था एक ऐसे मोड़ पर है जहां से उसका पतन भी उतना ही संभावित है जितना उसका उत्थान. यह तय करना अब बीजिंग के हाथ में है कि वह पारदर्शिता, उदारीकरण और जन-हित के मार्ग पर चलेगा या फिर नियंत्रण, प्रचार और संकीर्ण राष्ट्रवाद के रास्ते पर. इस मोड़ पर उठाया गया हर कदम भविष्य की कहानी लिखेगा—कि क्या चीन इतिहास में एक चमत्कारी आर्थिक शक्ति के रूप में याद किया जाएगा या एक अधूरी क्रांति की मिसाल के रूप में.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-


