भारत की राजनीति में महिलाओं की भूमिका ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण रही है, लेकिन लंबे समय से यह बहस चलती रही कि संसद और विधानसभाओं में उनकी वास्तविक हिस्सेदारी कैसे सुनिश्चित की जाए. 2023 में पारित महिला आरक्षण कानून ने इस बहस को नई दिशा दी और अब 2029 के लोकसभा चुनाव इसके लागू होने के बाद पहली बार होंगे, जिनमें महिला उम्मीदवारों की संख्या अभूतपूर्व रूप से अधिक रहने की संभावना है. यह केवल एक राजनीतिक परिवर्तन नहीं बल्कि भारतीय लोकतंत्र की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम भी है.
कानून के अनुसार लोकसभा और राज्य विधानसभाओं की 33 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की गई हैं. चुनाव आयोग के प्रारंभिक अनुमानों के अनुसार 2029 लोकसभा चुनाव में लगभग 180 से 190 सीटें केवल महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी. यह आंकड़ा अब तक के किसी भी चुनाव से कहीं अधिक है. अगर इस अनुमान को राजनीतिक दलों के उम्मीदवार चयन में देखा जाए तो लगभग सभी बड़े दलों को अपने टिकट वितरण में महिलाओं को अधिक महत्व देना पड़ेगा. विशेषज्ञों का मानना है कि यह बदलाव भारत की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को निर्णायक रूप से बदल देगा.
भारत की संसद में महिलाओं की हिस्सेदारी अब तक हमेशा सीमित रही है. 1952 के पहले लोकसभा चुनाव में केवल 22 महिलाएं संसद पहुंची थीं, जबकि 2019 के चुनाव तक यह संख्या 78 तक पहुंची, जो कुल सदन का मात्र 14.4 प्रतिशत था. यह आंकड़ा वैश्विक औसत से भी कम था. विश्व बैंक और इंटर-पार्लियामेंट्री यूनियन (IPU) के आंकड़ों के अनुसार विश्व की संसदों में औसतन 26 प्रतिशत महिलाएं प्रतिनिधित्व करती हैं. नॉर्डिक देशों में यह आंकड़ा 40 प्रतिशत से भी अधिक है. इस लिहाज से भारत हमेशा पीछे रहा है, जबकि दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था कहलाने का दावा भी करता है. महिला आरक्षण कानून इस अंतर को कम करने का सबसे बड़ा माध्यम बन सकता है.
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इस कानून के लागू होने से केवल संख्यात्मक बढ़ोतरी नहीं होगी, बल्कि राजनीति की कार्यशैली और मुद्दों की दिशा भी बदलेगी. अब तक राजनीति में महिलाओं की उपस्थिति कई बार प्रतीकात्मक रही है, जहां उन्हें केवल परिवारवाद या सामाजिक दबाव के कारण टिकट मिलता था. लेकिन आरक्षण की बाध्यता के बाद राजनीतिक दलों को योग्य और सक्षम महिला नेताओं को आगे लाना होगा. इससे शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सुरक्षा, पोषण, मातृत्व अवकाश, वेतन असमानता जैसे मुद्दे राजनीतिक विमर्श के केंद्र में आएंगे.
2029 लोकसभा चुनाव के लिए तैयारी कर रहे दलों ने भी इस नए परिदृश्य को ध्यान में रखकर रणनीतियां बनानी शुरू कर दी हैं. कांग्रेस, भाजपा, समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों ने पहले ही संकेत दिए हैं कि वे महिला नेतृत्व को मजबूत बनाने के लिए विशेष प्रशिक्षण और प्रचार अभियानों का आयोजन करेंगे. चुनाव आयोग के सूत्रों के अनुसार महिला मतदाताओं की संख्या भी लगातार बढ़ रही है और 2029 तक यह पुरुष मतदाताओं के बराबर या उनसे अधिक हो सकती है. इस लिहाज से महिला उम्मीदवारों का प्रभावी होना राजनीतिक दलों के लिए भी रणनीतिक रूप से लाभकारी होगा.
हालांकि, इस प्रक्रिया में चुनौतियां भी कम नहीं हैं. कई विशेषज्ञों का मानना है कि राजनीतिक दल आरक्षित सीटों पर "प्रॉक्सी उम्मीदवार" खड़े कर सकते हैं, यानी परिवार की महिलाओं को नामित कर वास्तविक सत्ता पुरुष नेताओं के हाथ में ही रह सकती है. यह प्रवृत्ति पंचायत स्तर के आरक्षण में पहले देखी जा चुकी है. ऐसे में महिला नेताओं को वास्तविक सशक्तिकरण तभी मिलेगा जब वे स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने और नीति निर्माण में सक्रिय भागीदारी निभा सकें.
आर्थिक दृष्टि से भी यह बदलाव महत्वपूर्ण साबित हो सकता है. मैकिन्से ग्लोबल इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट के अनुसार यदि भारत में महिला श्रम शक्ति की भागीदारी को पुरुषों के बराबर कर दिया जाए, तो 2025 तक देश की जीडीपी में 700 अरब डॉलर तक की अतिरिक्त वृद्धि हो सकती है. राजनीति में महिलाओं की बड़ी भागीदारी इस दिशा में सकारात्मक संकेत दे सकती है, क्योंकि नीति निर्माण में उनके दृष्टिकोण से रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक कल्याण को नई प्राथमिकता मिल सकती है.
इतिहास पर नज़र डालें तो भारत में इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी, जयललिता, ममता बनर्जी, मायावती जैसी महिला नेताओं ने साबित किया है कि महिलाएं न केवल चुनावी राजनीति में बल्कि शासन संचालन में भी सक्षम हैं. 2029 के चुनाव में जब महिला उम्मीदवारों की संख्या रिकॉर्ड स्तर पर होगी, तब नए नेतृत्व के उभरने की संभावना और भी बढ़ जाएगी. युवा महिला उम्मीदवारों की भागीदारी लोकतंत्र में नई ऊर्जा और नए दृष्टिकोण लेकर आएगी.
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यह संदेश जाएगा कि भारत ने महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को मजबूत करने की दिशा में बड़ा कदम उठाया है. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट्स में लंबे समय से यह आलोचना होती रही है कि भारत महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी में पीछे है. अब इस कानून के लागू होने के बाद भारत एशिया ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक उदाहरण बन सकता है.
सामाजिक दृष्टि से भी यह एक बड़ा परिवर्तन होगा. गांव और कस्बों की आम महिलाएं जब संसद में बड़ी संख्या में प्रतिनिधित्व करेंगी, तो समाज में उनकी स्थिति भी सशक्त होगी. शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में उन्हें समान अवसर मिलेंगे. महिलाओं की आवाज़ जब संसद के सर्वोच्च मंच से उठेगी, तो घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा, बाल विवाह और लैंगिक असमानता जैसे मुद्दों पर अधिक ठोस नीतियां बन सकेंगी.
कुल मिलाकर, महिला आरक्षण कानून के लागू होने से 2029 लोकसभा चुनाव भारतीय राजनीति का ऐतिहासिक चुनाव बनने जा रहा है. यह चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन या सरकार बनाने का नहीं बल्कि भारतीय लोकतंत्र में लैंगिक समानता की दिशा में उठाए गए सबसे बड़े कदम का प्रतीक होगा. अब यह जिम्मेदारी राजनीतिक दलों, मतदाताओं और खुद महिला उम्मीदवारों की है कि वे इस अवसर का सदुपयोग कर देश की राजनीति को नई दिशा दें. यदि यह प्रयास सफल हुआ तो 2029 का चुनाव आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणादायक उदाहरण बन सकता है, जब भारत ने नारी शक्ति को लोकतंत्र की मुख्यधारा में सर्वोच्च स्थान दिया.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

