भारत का 80 अरब डॉलर का ऑटो कंपोनेंट्स उद्योग नए रास्ते तलाश रहा, अमेरिकी 50 प्रतिशत टैरिफ का असर

भारत का 80 अरब डॉलर का ऑटो कंपोनेंट्स उद्योग नए रास्ते तलाश रहा, अमेरिकी 50 प्रतिशत टैरिफ का असर

प्रेषित समय :19:53:01 PM / Thu, Aug 28th, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

भारत का ऑटो कंपोनेंट्स उद्योग, जिसकी वर्तमान वैल्यू लगभग 80 अरब डॉलर आँकी जा रही है, इन दिनों अंतरराष्ट्रीय व्यापार के उतार-चढ़ाव और अमेरिकी टैरिफ नीतियों के चलते नई चुनौतियों का सामना कर रहा है. अमेरिका ने हाल ही में भारतीय ऑटो कंपोनेंट्स पर 50 प्रतिशत तक का भारी-भरकम टैरिफ लागू कर दिया है. इस कदम का सीधा असर भारतीय ऑटो कंपोनेंट्स निर्माताओं और निर्यातकों पर पड़ रहा है, जो अब तक अमेरिकी बाज़ार में प्रतिस्पर्धात्मक दरों पर टिके हुए थे. भारत के लिए यह निर्णय एक तरह से अवसर और चुनौती दोनों लेकर आया है, क्योंकि अब कंपनियों को न केवल अपनी लागत कम करने और नए बाज़ार तलाशने की दिशा में सोचना होगा, बल्कि दीर्घकालीन रणनीति भी बनानी होगी.

भारत के ऑटो कंपोनेंट्स उद्योग का विस्तार पिछले एक दशक में तेज़ी से हुआ है. चेन्नई, पुणे, गुड़गाँव-मनसर, और अहमदाबाद जैसे हब में वैश्विक स्तर पर सप्लाई चेन स्थापित हो चुकी है. अमेरिकी बाज़ार इस उद्योग के लिए हमेशा से महत्वपूर्ण रहा है, क्योंकि यहां की कंपनियां भारतीय निर्माताओं को उच्च गुणवत्ता और कम लागत के कारण प्राथमिकता देती रही हैं. लेकिन अब बढ़े हुए टैरिफ की वजह से भारतीय सामान की लागत लगभग दोगुनी हो जाएगी, जिससे अमेरिकी कंपनियां या तो स्थानीय उत्पादकों की ओर झुक सकती हैं या अन्य एशियाई देशों से सप्लाई ढूंढने लगेंगी.

इस झटके का सबसे बड़ा असर निर्यात आधारित कंपनियों पर पड़ेगा. ऑटो कंपोनेंट्स उद्योग की कमाई का लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा विदेशी निर्यात से आता है, और इसमें अमेरिका का योगदान सबसे अधिक है. अब इन कंपनियों के सामने यह चुनौती खड़ी हो गई है कि वे या तो अमेरिकी बाज़ार को बनाए रखने के लिए कीमतों में और कमी करें, या फिर नए बाज़ारों की तलाश करें. लागत में कटौती करना भारतीय कंपनियों के लिए आसान नहीं होगा क्योंकि पहले से ही कच्चे माल की कीमतें, बिजली और परिवहन लागत बढ़ चुकी हैं.

इसके बावजूद यह परिस्थिति पूरी तरह नकारात्मक भी नहीं है. कई विशेषज्ञ मानते हैं कि यह संकट भारत के लिए अवसर में बदल सकता है. यूरोप, अफ्रीका और दक्षिण एशियाई बाज़ारों में भारतीय ऑटो कंपोनेंट्स की अच्छी मांग है, और कंपनियां अपने फोकस को विविधता देकर इन क्षेत्रों में विस्तार कर सकती हैं. विशेष रूप से इलेक्ट्रिक वाहनों और ग्रीन टेक्नोलॉजी से जुड़े कंपोनेंट्स के क्षेत्र में भारत के पास बढ़त हासिल करने का मौका है. दुनिया भर में जब ऑटोमोबाइल उद्योग ईवी की ओर तेज़ी से बढ़ रहा है, तब भारतीय कंपनियां बैटरी प्रबंधन सिस्टम, ई-मोटर पार्ट्स और हल्के वज़न वाले कंपोनेंट्स जैसे सेगमेंट में निवेश कर सकती हैं.

महाराष्ट्र और तमिलनाडु सरकारें पहले से ही ऑटो कंपोनेंट्स उद्योग को प्रोत्साहन देने के लिए नई नीतियाँ लागू कर रही हैं. विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ) और निर्यात-आधारित उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए टैक्स लाभ और सब्सिडी प्रदान की जा रही है. लेकिन अमेरिकी टैरिफ का असर इतना गहरा है कि केवल नीतिगत बदलावों से राहत नहीं मिलेगी. भारतीय कंपनियों को अपनी सप्लाई चेन का पुनर्गठन करना होगा और स्थानीय स्तर पर भी माँग बढ़ाने के रास्ते तलाशने होंगे.

एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि अमेरिका में बढ़ते टैरिफ को लेकर वहां की ऑटो कंपनियां भी खुश नहीं हैं. वे भारतीय सप्लायर्स पर निर्भर रही हैं क्योंकि यहाँ उन्हें बेहतर कीमत और गुणवत्ता का संतुलन मिलता है. अब जब लागत बढ़ेगी तो अमेरिकी कंपनियों का मुनाफा भी घट सकता है. इस स्थिति में संभावना है कि अमेरिका की बड़ी ऑटो कंपनियां अपनी सरकार पर दबाव बनाएँगी ताकि भारतीय सप्लायर्स के लिए कुछ छूट या राहत दी जा सके. यह आने वाले महीनों में भारत के लिए राजनयिक स्तर पर एक बातचीत का विषय बन सकता है.

भारत सरकार भी इस चुनौती को गंभीरता से देख रही है. वाणिज्य मंत्रालय ने संकेत दिया है कि वह इस मामले को द्विपक्षीय बातचीत में शामिल करेगा. भारत-अमेरिका के बीच पहले से ही व्यापार समझौते पर चर्चा चल रही है, जिसमें ऑटो कंपोनेंट्स को शामिल किया जा सकता है. अगर भारत यह साबित करने में सफल हो गया कि उसका ऑटो कंपोनेंट्स उद्योग अमेरिकी कंपनियों की आपूर्ति श्रृंखला के लिए अनिवार्य है, तो संभव है कि टैरिफ में कुछ नरमी लाई जाए.

हालांकि स्थिति इतनी सरल नहीं है. अमेरिका की कोशिश है कि वह अपनी घरेलू मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा दे और चीन तथा भारत जैसे देशों पर निर्भरता कम करे. यही कारण है कि टैरिफ का यह कदम केवल भारत के खिलाफ नहीं बल्कि वैश्विक सप्लाई चेन में बदलाव का हिस्सा है. अमेरिका चाहता है कि स्थानीय स्तर पर उत्पादन बढ़े और नौकरियों का सृजन हो. भारतीय कंपनियों को इस वास्तविकता को समझते हुए रणनीति बनानी होगी.

इस सबके बीच भारतीय ऑटो कंपोनेंट उद्योग के छोटे और मझोले उद्यम (SMEs) सबसे अधिक प्रभावित होंगे. बड़े कॉरपोरेट्स तो विविध बाज़ारों और साझेदारियों की वजह से झटके को सहन कर लेंगे, लेकिन छोटे उद्योग जिनका प्रमुख फोकस निर्यात है, उनके लिए यह स्थिति अस्तित्व का संकट बन सकती है. यदि समय रहते इन्हें सरकारी समर्थन और वैकल्पिक बाज़ारों की जानकारी नहीं मिली, तो कई छोटे उद्यम बंद होने की कगार पर पहुँच सकते हैं.

फिलहाल उद्योग विशेषज्ञों का मानना है कि भारतीय कंपनियों को दो स्तर पर काम करना होगा. पहला, लागत घटाने और तकनीकी नवाचार पर जोर देना होगा ताकि वे टैरिफ के बावजूद प्रतिस्पर्धी बने रहें. दूसरा, नए बाज़ारों की ओर ध्यान देना होगा. अफ्रीका और लैटिन अमेरिका जैसे क्षेत्रों में भारत के ऑटो कंपोनेंट्स की मांग बढ़ सकती है क्योंकि वहाँ अभी तक चीन का दबदबा है और भारतीय कंपनियां अपनी विश्वसनीयता और गुणवत्ता से अपनी पकड़ बना सकती हैं.

कुल मिलाकर, अमेरिका के 50 प्रतिशत टैरिफ ने भारत के ऑटो कंपोनेंट्स उद्योग को हिला दिया है. लेकिन यही परिस्थिति भारत के लिए एक अवसर भी है कि वह अपनी वैश्विक रणनीति को फिर से परिभाषित करे. आने वाले समय में यह उद्योग केवल पारंपरिक बाज़ारों पर निर्भर न रहकर विविधता और नवाचार की ओर बढ़ेगा. यह देखना दिलचस्प होगा कि भारत का 80 अरब डॉलर का यह उद्योग आने वाले वर्षों में इस संकट को किस तरह अवसर में बदलता है और वैश्विक सप्लाई चेन में अपनी जगह मजबूत बनाए रखता है.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-