द्विव्यांगता के द्विव्य ज्योतिपुंज स्नेही गिरीश बिल्लौरे ‘मुकुल’ को श्रद्धांजलि

द्विव्यांगता के द्विव्य ज्योतिपुंज स्नेही गिरीश बिल्लौरे ‘मुकुल’ को श्रद्धांजलि

प्रेषित समय :21:39:58 PM / Mon, Oct 27th, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

- डॉ. मुकुल तिवारी  

अनुभवजन्यता के आधार पर सच ही कहा गया है कि कब, कहाँ, कैसे क्या हो जाए — किसको पता है. आगे आने वाला पल तो ईश्वर ही जानता है. विगत दिवस कुछ ऐसा ही हुआ.
संस्कारधानी जबलपुर की सर्वाधिक प्राचीन संस्था मिलन के हीरक जयंती वर्ष के अवसर पर मिलन को पुनः जीवन्त करने के लिये मिलन हीरक जयंती कार्यक्रम शुभारंभ की श्रृंखला में अत्यन्त भव्यता के साथ आयोजित किया गया, जिसका प्रमुख नेतृत्व अपने सभी संगी-साथी सदस्यों के सहित स्नेहिल अनुज गिरीश बिल्लोरे "मुकुल" जी ने अपने कंधों पर ले लिया.

पहले तो मुझे कुछ समझ नहीं आया कि इतने कम समय में, बिना किसी विशेष आर्थिक स्रोत और आवश्यक कार्यकर्ता के कार्यक्रम कैसे होगा. मिलन हीरक जयंती समारोह आयोजन के संदर्भ में चलभाष पर तथा समारोह बैठक में अनुज गिरीश भाई से प्रत्यक्ष बातचीत होने लगी. हँस कर कहने लगे— “अब मैं शासन के महिला और बाल विभाग से संबद्ध बाल भवन से सेवानिवृत्त हो गया हूँ. जीवन का अब जो बचा हुआ समय है, उसे मैं समाजोपयोगी संस्थागत कार्य में लगाऊँगा.”

मैं शिक्षाविद, साहित्यकार, राष्ट्रीय विचारक, खादीधारी, हिंदी वर्णी दादाश्री पंडित हरिकृष्ण त्रिपाठी जी से अपने जीवन में बहुत अधिक प्रभावित रहा हूँ. जब मैं कक्षा दसवीं में था, तब से मैं आदरणीय दादा को विभिन्न गोष्ठियों में सुनता रहा हूँ. जब वो बोलते थे तो लगता था कि सुनता ही जाऊँ. भाई श्री अभिज्ञान कृष्ण त्रिपाठी से मैं बड़ा हूँ, पर उनसे बहुत प्यारी मित्रता रही है. वे भी पहले मिलन से जुड़े रहे हैं, मैं भी मिलन से जुड़ा रहा हूँ. कुछ दिनों पश्चात अभिज्ञान त्रिपाठी आई.टी.आई. शासकीय सेवा में संलग्न हो गए और मैं भी शासन के महिला एवं बाल विकास विभाग में संलग्न हो गया, किंतु बहुत दिनों तक हम दोनों साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक कार्यों में साथ मिलते-जुलते रहे.

अभिज्ञान भी बहुत जल्दी चला गया. जीवन का कोई ठिकाना नहीं — कब क्या हो जाए!
“आप अभिज्ञान की बहन हैं तो मेरी सगी बहन हैं,” कहकर गिरीश भाई जोर से हँस दिए. “अब आप अभिज्ञान की कमी मिलन में पूरी कीजिए. हम सभी के साथ सक्रिय होइए. हाँ, अपने साथ अपनी बहू सुलभा को भी सक्रिय कीजिए, उनको सिखाइए, प्रशिक्षण दीजिए.”
मैंने भी इसे मज़ाक में लिया और हँस दिया. तब क्या पता था कि ‘बहू को सिखाइए’ के आग्रह के पीछे कोई रहस्य छिपा है.

इस वर्ष मिलन के पचहत्तर वर्ष की पूर्णता पर वर्ष भर में पचहत्तर कार्यक्रम कराए जाने की योजना पर सभी सदस्यों की सहमति बन गई. हीरक जयंती समारोह के बाद से ही मिलन का नित्य प्रति कोई न कोई कार्यक्रम करवाने का जज़्बा मन में लिये हमारे स्नेही गिरीश भाई अत्यन्त सक्रिय रहे. इसी बीच संस्कारधानी जबलपुर के  समाचार पत्र यश भारत के संपादकीय विभाग में संलग्न हुए और अपनी साहित्यिक अभिरुचि का परिचय पत्रकारिता जगत में देने लगे. 

ऐसा माना जाता है कि ईश्वर सभी को कोई न कोई प्रतिभा अवश्य देता है. अनुज गिरीश भाई के साथ भी यही था. आकर्षक व्यक्तित्व तो था ही, किंतु उल्टे हाथ में जो दिव्यता थी, वह अत्यंत आश्चर्यजनक थी — उल्टा हाथ, जिसमें उनकी तीखी कलम, और सीधे हाथ में बैसाखी का साथ.
देखने में लगता था — कैसे जीवन की दौड़ में वे आगे निकले होंगे! शासकीय सेवा के साथ पारिवारिक जिम्मेदारियाँ, साहित्यिक-सामाजिक सक्रियता — सभी कुछ दिव्य था. वाणी और स्वर का आत्मविश्वास तो अद्वितीय था. बड़े-बड़े शासकीय मंचों, संस्थागत सार्वजनिक कार्यक्रमों में मंच संचालन, प्रस्तुति, बाल भवन के बच्चों के उत्कृष्ट कार्यक्रम — सभी सराहनीय रहे.

किसी का ध्यान यदि न जाए तो वे बिल्कुल सामान्य लगते थे. जैसे ही हाथों में टिकी बैसाखी पर दृष्टि जाती, मन श्रद्धा से भर जाता. आश्चर्यजनक किंतु सत्य — शरीर में अपूर्णता होते हुए भी जीवन में सफलता का जो जज़्बा था, वह अनुकरणीय था.

गिरीश भाई ने नई तकनीक को भी अत्यंत सुघड़ता से आत्मसात किया. लैपटॉप, मोबाइल, फेसबुक, व्हाट्सएप — सबका सुचारू संचालन करते थे. फेसबुक पर साहित्य विषयक विचारशील, भावपूर्ण, चिंतनयुक्त ब्लॉग और पॉडकास्ट वे वर्षों से तैयार कर रहे थे. साहित्य की गद्य एवं पद्य दोनों विधाओं में सृजन, संगीत संयोजन — न जाने कितने क्षेत्रों में हमारे प्यारे गिरीश भाई सक्रिय रहे हैं.

हम सबके प्यारे गिरीश भाई जी का जन्म नार्मदीय ब्राह्मण परिवार में 29 नवम्बर 1963 को सालीचौका, नरसिंहपुर (मध्यप्रदेश) में हुआ था. उच्च शिक्षा जबलपुर के डी.एन. जैन महाविद्यालय से सम्पन्न हुई. शिक्षा और साहित्य के साथ-साथ आप छात्र राजनीति में भी सक्रिय रहे. अध्ययन के साथ ही संस्कारधानी जबलपुर की अनेक साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक संस्थाओं में सक्रिय होकर साहित्य-सृजन की दुनिया में आगे बढ़े. साथ ही प्रतियोगी परीक्षा में चयनित होकर शासकीय सेवा में भी संलग्न हुए.

बाल भवन में बाल मनोविज्ञान को समझकर बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिये अपने परिवार सहित सदा सक्रिय रहे. आपकी जीवनसंगिनी श्रीमती आशालता बिल्लोरे (सुलभा) जी ने जिस कर्तव्यनिष्ठा से गिरीश भाई के साथ जीवन रथ को आगे बढ़ाया है, वह निश्चय ही सराहनीय है — जीवन के अंतिम क्षणों तक पास रहीं.

दोनों पुत्रियाँ — शिवानी (नीदरलैंड) और श्रद्धा (बेंगलुरु) — उच्च स्तरीय सेवाओं में हैं. सब कुछ बहुत अच्छा है, किंतु जो सबसे अच्छा था, वह अब हमारे बीच नहीं है. जीवन के अंतिम समय तक अनुज गिरीश बिल्लोरे सक्रिय रहे. अंतिम सांस से दो घंटे पूर्व मुझसे जो चलभाष पर चर्चा हुई, वह अब केवल स्मृति बनकर रह गई.

दिव्यांगता के दिव्य ज्योतिपुंज, दिव्य आत्मा भाई  गिरीश बिल्लोरे जी को शत-शत नमन.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-