कर्नाटक उच्च न्यायालय ने सार्वजनिक स्थानों पर आरएसएस गतिविधियों को रोकने वाले सरकारी आदेश पर लगाई अंतरिम रोक

कर्नाटक उच्च न्यायालय ने सार्वजनिक स्थानों पर आरएसएस गतिविधियों को रोकने वाले सरकारी आदेश पर लगाई अंतरिम रोक

प्रेषित समय :21:46:27 PM / Tue, Oct 28th, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

बेंगलुरु। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में राज्य सरकार के उस आदेश पर अंतरिम रोक लगा दी है, जिसका उद्देश्य सरकारी और सार्वजनिक स्थानों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की गतिविधियों को प्रतिबंधित करना था। यह निर्णय नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की दिशा में एक बड़ा कदम माना जा रहा है।

धारवाड़ उच्च न्यायालय पीठ में न्यायमूर्ति एम. नागप्रसन्ना की एकल पीठ ने 'पुनश्चेतना सेवा संस्था' द्वारा दायर याचिका को स्वीकार करते हुए यह फैसला सुनाया। यह याचिका हुबली-धारवाड़ पुलिस आयुक्त द्वारा आरएसएस की एक ध्वज रैली (फ्लैग मार्च) के लिए अनुमति देने से इनकार करने के खिलाफ दायर की गई थी। याचिका स्वीकार करते हुए पीठ ने पुलिस आयुक्त और राज्य के गृह मंत्री को नोटिस जारी किया है।

पुलिस आयुक्त ने सरकारी आदेश का हवाला देते हुए रैली की अनुमति देने से इनकार कर दिया था, जिसमें दस से अधिक व्यक्तियों के जमावड़े को गैरकानूनी घोषित किया गया था। इस पर टिप्पणी करते हुए न्यायमूर्ति नागप्रसन्ना ने स्पष्ट रूप से कहा कि दस से अधिक लोगों के जमावड़े को गैरकानूनी घोषित करके, सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 19(1) ए और बी के तहत नागरिकों को प्राप्त अधिकारों को छीन लिया है। न्यायालय ने कड़े शब्दों में कहा कि सरकार को संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिकों के अधिकारों को सीमित करने का कोई अधिकार नहीं है।

शांति बैठक रही विफल: इसी बीच, गुलबर्गा उच्च न्यायालय पीठ के निर्देश पर चितापुर, जो मंत्री प्रियांक खड़गे का गृह निर्वाचन क्षेत्र है, में आरएसएस की ध्वज रैली के संबंध में बुलाई गई शांति बैठक गतिरोध के साथ समाप्त हुई।

दरअसल, गुलबर्गा जिला प्रशासन द्वारा आरएसएस की ध्वज रैली की अनुमति से इनकार करने के बाद आरएसएस ने 19 अक्टूबर को न्यायालय का रुख किया था। जिला प्रशासन ने न्यायालय को बताया था कि उसी तारीख पर एक अन्य संगठन, भीम आर्मी, ने भी सार्वजनिक कार्यक्रम की अनुमति मांगी थी, जिसके कारण आरएसएस को अनुमति नहीं दी जा सकी। इस पर न्यायालय ने आरएसएस को 2 नवंबर को ध्वज रैली आयोजित करने के लिए नया आवेदन देने का सुझाव दिया था।

हालांकि, 24 अक्टूबर को जब न्यायालय में फिर सुनवाई हुई, तो आरएसएस के अलावा भीम आर्मी, कुरुबा एसोसिएशन, क्रिश्चियन एसोसिएशन और तीन अन्य समान संघों ने भी उसी तारीख पर चितापुर में रैली करने के लिए आवेदन कर दिया। इसके बाद न्यायालय ने जिला प्रशासन को सभी आवेदकों के प्रतिनिधियों के साथ एक शांति बैठक आयोजित करने और 30 अक्टूबर तक रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया था। मंगलवार को जिला प्रशासन ने सभी संगठनों के प्रतिनिधियों की बैठक बुलाई, लेकिन यह बैठक गरमागरम बहस में बदल गई और जिला प्रशासन किसी भी निर्णय पर नहीं पहुँच सका, जिसके कारण यह बैठक गतिरोध (स्टेलमेट) में समाप्त हो गई।

निर्णय के कानूनी निहितार्थ: अभिव्यक्ति और शांतिपूर्ण जमावड़े का अधिकार

कर्नाटक उच्च न्यायालय की धारवाड़ पीठ द्वारा आरएसएस (RSS) की गतिविधियों को सार्वजनिक स्थानों पर प्रतिबंधित करने वाले सरकारी आदेश पर लगाई गई अंतरिम रोक का फैसला भारतीय संविधान के संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण कानूनी निहितार्थ रखता है। यह निर्णय नागरिक स्वतंत्रता, विशेषकर संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत प्रदत्त अधिकारों के दायरे और सीमा को स्पष्ट करता है।

1. संवैधानिक अधिकारों की बहाली 

(Restoration of Constitutional Rights)

इस मामले में सबसे प्रमुख कानूनी निहितार्थ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और शांतिपूर्ण जमावड़े के मौलिक अधिकारों की बहाली है।

  • अनुच्छेद 19(1)(b) का उल्लंघन: पुलिस आयुक्त ने राज्य सरकार के एक आदेश का हवाला दिया था, जिसमें दस से अधिक व्यक्तियों के जमावड़े को गैरकानूनी घोषित किया गया था। न्यायमूर्ति एम. नागप्रसन्ना की पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा कि इस तरह का blanket प्रतिबंध सीधे तौर पर संविधान के अनुच्छेद 19(1)(b) का उल्लंघन करता है, जो नागरिकों को शांतिपूर्वक और बिना हथियारों के जमा होने का अधिकार देता है।

  • अनुच्छेद 19(1)(a) का उल्लंघन: ध्वज रैली (फ्लैग मार्च) या किसी भी प्रकार का प्रदर्शन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19(1)(a)) के तहत आता है। न्यायालय ने माना कि इतनी कम संख्या (दस) के आधार पर सभा को गैरकानूनी घोषित करना, नागरिकों के संवैधानिक रूप से संरक्षित अधिकारों को छीनने जैसा है।

कानूनी सिद्धांत: यह निर्णय इस सिद्धांत को पुष्ट करता है कि सरकारें कानून और व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर मनमाना या अत्यधिक प्रतिबंध नहीं लगा सकती हैं। प्रतिबंध केवल तभी उचित होते हैं जब वे अनुच्छेद 19(2) और 19(3) में उल्लिखित उचित प्रतिबंधों (जैसे भारत की संप्रभुता, सार्वजनिक व्यवस्था, या नैतिकता) के दायरे में आते हों। दस लोगों की संख्या को आधार बनाना मनमाना माना गया।

2. निषेधाज्ञा शक्तियों का न्यायिक पुनरावलोकन 

         (Judicial Review of Prohibitory Powers)  

यह फैसला जिला प्रशासन या पुलिस आयुक्तों की निषेधाज्ञा (Prohibitory) शक्तियों पर न्यायिक नियंत्रण को स्थापित करता है।

  • उचित प्रतिबंध की कसौटी: न्यायालय ने प्रभावी रूप से सरकारी आदेश को 'उचित प्रतिबंध' की कसौटी पर परखा और पाया कि यह कसौटी पर खरा नहीं उतरता। सरकार के पास धारा 144 जैसे उपकरणों का उपयोग करने की शक्ति है, लेकिन यह शक्ति विशेष परिस्थितियों और ठोस कारणों पर आधारित होनी चाहिए, न कि सामान्य प्रतिबंधों पर।

  • कार्यपालिका पर नियंत्रण: उच्च न्यायालय ने कार्यपालिका (पुलिस आयुक्त और गृह मंत्रालय) को नोटिस जारी करके यह संकेत दिया है कि सरकारी आदेश या निर्णय जो मौलिक अधिकारों को संकुचित करते हैं, वे न्यायिक पुनरावलोकन के अधीन हैं।

3. 'भीम आर्मी' विवाद और कानूनी प्रक्रिया

गुलबर्गा (कलबुर्गी) में चितापुर रैली से संबंधित शांति बैठक में हुए गतिरोध ने कानूनी प्रक्रिया को जटिल बना दिया है, जिसके भी अपने निहितार्थ हैं।

  • समानता का अधिकार (Article 14): जब एक ही तारीख पर कई समूह (जैसे आरएसएस, भीम आर्मी, कुरुबा एसोसिएशन, क्रिश्चियन एसोसिएशन) रैली की अनुमति मांगते हैं, तो जिला प्रशासन के लिए समानता के अधिकार (अनुच्छेद 14) को बनाए रखना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। प्रशासन को यह सुनिश्चित करना होता है कि वह किसी एक समूह के प्रति पक्षपात न करे।

  • शांति बैठक की विफलता: न्यायालय ने जिला प्रशासन को शांति बैठक आयोजित करने का निर्देश दिया था ताकि सभी आवेदकों के बीच सहमति बन सके। इस बैठक का गरमागरम बहस में समाप्त होना यह दर्शाता है कि प्रशासनिक प्रयास विफल रहे। अब 30 अक्टूबर को न्यायालय में प्रस्तुत होने वाली रिपोर्ट के बाद यह निर्णय न्यायिक विवेक पर निर्भर करेगा कि वह किसे और किस आधार पर अनुमति प्रदान करता है, ताकि कानून-व्यवस्था भी बनी रहे और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन भी न हो। यह मामला प्रशासन को भविष्य में समान परिस्थितियों से निपटने के लिए एक स्पष्ट मानक संचालन प्रक्रिया (SOP) बनाने पर मजबूर कर सकता है।

संक्षेप में, कर्नाटक उच्च न्यायालय का यह निर्णय भारतीय लोकतंत्र में मतभेद रखने और शांतिपूर्वक अपनी बात कहने के अधिकार को मजबूती प्रदान करता है, जबकि सरकार को अपनी प्रतिबंधात्मक शक्तियों का उपयोग अधिक जिम्मेदारी और संवैधानिक सीमाओं के भीतर करने की याद दिलाता है।

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-